एक कहानी-मेरे शब्दों की जुबानी
एक कहानी-मेरे शब्दों की जुबानी
शब्दों से ही कहानी बनती है.......उन शब्दों से ही बयां होती भी.....
कुछ ऐसी ही कहानी मेरी है.... चंद ऐसी ही शब्दों की जुबानी है ...
मन में बहुत से सपने थे, उन सपनो में बहुत उडानें थी ,कुछ ऐसे ही गुज़रा बचपन मेरा ....
हँसते-हँसते कब बड़ी हुई, न खुद को जाना, न अस्तित्व को जाना, न "मैं" समझी.... न "मैं" को माना......
खुद को तलाशा, अपनों में.... बहुत तराशा, तब निकला ये स्वरुप मेरा ....
अनमोल हूँ... या बेमोल हूँ ....न जानूँ मैं.... न मानूँ मैं....
जिसको पूजा, जिसको माना, ठुकराया उसने ही वजूद मेरा..... क्या यही था अस्तित्व मेरा .......
पर मैं तो हूँ .....आशा की लकीर और सपनो में है उड़ान मेरे .....
कभी न डगमगा सकते मेरे कदम ......कभी न बंद हो सकती मुसकान ये, फिर कैसे हो सकती परेशान मैं .......
मैं भी हूँ हर उस बच्चे जैसी... खेलकूद और मस्ती में बचपन था जिसका ....
किशोरावस्था में जैसे रखे कदम ......हर नज़र का मुझ पर भी हुआ असर ....
हर पल कैद थी जिंदगी मेरी, न कोई साथी ......न कोई संगी......
बांधा मैंने खुद को एक दायरे में, जो हुआ मुझसे ही शुरू ......और मुझमें ही खत्म ......
तभी रखे किसी ने मेरी जिंदगी में कदम .......मेरी तो मानो पूरी दुनिया ही बदल गयी.......
वजूद मेरा भी निखरने लगा..... मैं भी सोचने लगी ...... मैं भी मुस्कुराने लगी ....
पर वक़्त को नहीं था ये भी मंजूर ......उसने दामन को उजाड़, मेरी दुनिया को ही कर दिया शून्य !!!!!!
मैने जिसे अपना माना.... उसने ही बेवक़्त चले जाने का फरमान सुनाया !!!
फिर भी मैंने उसे वक़्त माना...... पर खुद के लिए बेवक़्त माना.....
अब बची रह गई...बस एक ही आस और रह गया ...बस एक ही अहसास
अस्तित्व को खुद के बचाना है .......वजूद को अपने पाना है ......
उस "मैं" को ही अपनाना है ......बस उस "मैं" को ही अब पाना है.....
समझ गयी अब आधार जीवन का ...... इस "मैं" में ही है सम्मान व्यक्ति का .......
यही वो साथी है जीवन का ........जो साथ न छोड़े अंतिम शय्या तक.......
बाकी तो सब क्षणभंगुर है..... ये "मैं" ही तो बस शाश्वत है !!!!