जीवन की खोज
जीवन की खोज
फिर अकड़ती कुछ मुस्कुराती,
जिंदगी की विषमता का बोध उठाती,
दौड़ पड़ती थी “ वो”।
पीड़ा से और पीड़ा उठाती,
स्वयं को असीम दुख दे पाती,
यही सोच जहरीली धूप को गले लगाती थी “वो”।
चेहरे की अनगिनत नग्न झुर्रियों में,
कितने ही सत्य और अर्धसत्य को लपेटे बेचा करती थी -“वो
कुछ खट्टे, कुछ मीठे, कुछ कड़वे और कुछ विषैल अनुभव।
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sp; पांव में पढ़ते छालों को बहुमूल्य “हीरे” समझ वह,
असंख्य कंकड़ रौंदा करती थी “वो “।
बेजान पत्थरों से बोलती, रूठती उन्हीं के कंधों पर रो देती थी “वो”।
अपनी जर्जर काया को झुलाती,
बिना “साजो” के गाया करती थी“वो” जब-
जलते मुर्दों को देख ईर्ष्या से जल उठती थी“वो “।
इसे “जीवन” कहना मुर्दों का अपमान कहती थी “वो”
क्योंकि मुर्दों की बस्ती में अंधेरे गिनती
शायद “जीवन” खोज रही थी“वो”।