आईना
आईना
मैंने आईने में देखना छोड़ दिया है।
जो बदलना था, बदल गया,जो बिगड़ना था बिगड़ गया।
ये चेहरे की परिवर्तिति पहले मां, दादी और नानी सभी में देखी।
उम्र की दहलीज यहां तक लाई तो वाकफियत इससे भी होनी ही थी।
उभरती लकीरें और बढ़ती चांदी की तारें
कहीं- कहीं ठोड़ी पर उगते चीनियों से बाल।।
अजी हंसिए मत...
यहां तक भी सब कहां पहुंच पाते हैं?
मुझे कोई शिकायत नहीं,बस आईना अब कुछ भाता नहीं, संवरना जो अब आता नहीं।।
चेहरे की हर एक लकीर में छिपे है, ना जाने कितने किस्से और कहानियां...
यहां तक आते-आते बदली है कितनी ही भूमिकाएं।
बेटी से बहु,बहु से मां, फ़िर सास
यू हे नहीं संभाला है मैंने इन्हें, निभाई है सभी जिम्मेदारियां।
पेशानी पर सोती हर एक लकीर एक एक दशक का संक्षिप्त इतिहास छिपाए हुए हैं,
वहीं त्योरियां के बीच क्रोध और आक्रोश लिए त्रिशूल अब कुछ फीका सा हो गया है।
अजी रुकिए रुकिए,,, हुस्न का पिटारा अभी खुला ही कहां है?
छिपा रखे है मैंने अपने गम और खुशी के आंसू यहीं आंखों के नीचे बनी थैलियों में!
न जाने कब जरूरत पड़ जाए छलकाने की ।1
होंठों से ठोड़ी तक बाहें फैलाए ये लकीरें भी कुछ कहती हैं।
जरा सा मुस्कराने से आज भी कान के पीछे छिप अठखेली करती हैं ।
और उदासी देख लौट एक साथ चुपचाप बैठ जाती हैं।
ये नया रूपांतर तो कुछ दूर, कुछ देर और चलने वाला है।
इस दौर में चंद लकीरें और कुछ तारें और जुड़ने वाली हैं।
हमें बुजुर्गों में गिन ने वालों ये आईना किसी को छोड़ने नहीं वाला है।
मैंने आईना देखना छोड़ दिया है।।
