यादें
यादें
कैसे धुंधले होते चले जाते हैं यह यादों के साये,
पुराने उजड़े हुए खंडहरों में बादशाहों की तरह टहलते दिखते हैं यह साये।
हर वह पल जो कुछ होता है कभी,
हर वह हादसा जो कुछ होता था कभी,
अब एक पर एक रखी हुई बेजान ईंट की तरह धरा रह जाता है- ‘स्तर’ पर
और बन जाता है आगे चढ़ती हुई हर परत की नींव।
कितना असंभव लगता है- खुद ही वीराना ढूंढ कर
यादों के आश्रय में भी नहीं जी सकता यह ‘जीव’।
समय जो है कभी शत्रु तो कभी मित्र
चक्र की तरह घूमता ही रहता है, और बिछा जाता है
असीमित दूरियां और फासले
और छिपा लेता है उन सर्द यादों को अपने पारदर्शी सीने में,
जिन्हें हम सब देख सकते हैं,
मगर पुनः अपने में समेट नहीं सकते- ‘सजीव’ करके।
महसूस कर सकते हैं इनकी महक- परंतु विवश हैं हम-
हमारी पहुंच से दूर यह यादें वहीं से मुस्कुरा कर, देखती है हमें ‘एकटक’।
यही तो है समय मित्र।
‘तनहाई’ ढूंढते हैं इनके लिए- कहां है?
शब्द स्वयं तो ‘तन्हा ‘है, पर खोखला है, जो नहीं दे सकता
मुझे वह सब- जो मैं इसमें खोजती हूं ‘बेबस’ होकर।
तो फिर क्या है वह जो मुझे कचोटना रहता है?
लगता है कुछ भी नहीं, पर कुछ महसूस करती हूं ‘ हर क्षण’
इन्हीं यादों को जो फीकी होती चली जाती हैं- दूर, बहुत दूर।
मैं पलकों में सजा, आंखों में भर उन्हें फिर करीब लाती हूं,
फायदा- कुछ भी नहीं।
शायद में बीते हुए समय के पहिए को उल्टा घुमाना चाहती हूं,
जो स्प्रिंग की तरह कुछ क्षण’ ठहर वापस आगे दौड़ चलता है- निरंतर गति की ओर…...।
