आशिक तू कैसा
आशिक तू कैसा
आशिक है तू ज़िंदगी का अगर
निभाता क्यों नहीं आशिकाना
रास नहीं आता सच कहूं अगर
तेरा यह रोना यह कुलबुलाना
क्यों तुला है अपनी बरबादी पर
क्यों भूल बैठा हंसना मुस्कुराना
थी हिम्मत बस इतनी ही अगर
क्यों है मांगता अपना मेहनताना
नहीं दिखता तुझ में संयम,न सब्र
तेरे अंदाज़ में क्या है आशिकाना
मिट मरने की क़समें तो खाईं मगर
ज़िंदगी से जूझ न पाया तू परवाना
आशिक मेरे दोस्त , तेरा यह सफ़र
ख़तरों से न खाली-रास्ता अनजाना
ज़िंदगी के गले लग ,बन हमसफ़र
बन हमज़ुबां-तभी मिलेगा नज़राना
दर्द भी,ख़ुशी भी कर उसी की नज़र
ज़िदंगी का गूंज उठेगा मधुर तराना!