क्यों रूठी परछांई मेरी
क्यों रूठी परछांई मेरी
क्यों रूठ गई परछांई मेरी मुझसे
क्यों कर दिया मुझे अकेला यूं
फेर लीं ऐसे अचानक नज़रें मुझसे
गुनहगार करार दे दिया हो जैसे !
छोड़ अकेला मुझको, तोड़ दिया मेरा
रहा सहा वह आखिरी विश्वास
लगाए बैठी थी तुझसे जो-
क्या थी वह मजबूरी
पूछूं मैं तुझसे
क्योँ बना ली तूने दूरी
मुझसे अचानक ऐसी जो
तोड़ रही है मेरी अन्तिम आस
क्यों मेरे सिर से उठ गया हाथ तेरा
मिला जवाब किया जिसने सोचने को मजबूर-
डाल नज़र अपनी ज़िंदगी पर एक बार-
मैंने कब चाहा, जाना तुझसे दूर
तेरे हर निर्णय में दिया साथ
हार जीत को तेरी माना
मैंने अपना,लिया हाथ में हाथ
बनी सहारा तेरा,गई न तुझसे दूर
देखा परखा तेरी खामियों को कई बार
अनदेखा किया बार बार तेरा अहंकार, तेरा गुरूर!
है अनुशासनहीन, निरंकुश तेरी यह ज़िंदगी
नहीं लगन,न आस्था न ठहराव कहीं
कथनी करनी में न तालमेल कहीं
जब तू ही साथ न दे पाता
अपनी पहचान का
तेरा मेरा तो परछांई का नाता
जब तक तू ख़याल रखेगा नहीं
जब तक जीवन की गरिमा जानेगा नहीं
परछांई भी, जान ले तेरे साथ नहीं,है यही ज़िंदगी
फिर मुझ से क्यों बैठी है तू आस लगाए
परछांई हूं, पर हार गई मैं तुझसे !