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Uddipta Chaudhury

Abstract

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Uddipta Chaudhury

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वक्त

वक्त

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ए तो वक्त वक्त की बात है,

आज जो साथ थी कल वोही पराई घर की दीपक हे।

अंधेरे में रहने की आदत बन गया हमे,

अब तो तन्हाई भी पूछते है के केसा मेरा हाल है ।


ताल है बेताल,संगम भी छोड़ दिया अपना साथ,

धुन भी है बेजान सी और हर एक लंबे कर देता है बेहाल,

भटकती हुई रूह की तरह ढूंढता रहता हू बस वोही मंजर,

आंखो में खौफ की परछाई फिर भी दिल है बैचेन।


वक्त को रोकने का तमाम कोशिशें आज भी दस्तक देकर कहता है

इतनी ख्वाहिश रखने वाले इंसान आज तू चुप क्यूं बैठा था भला ?

क्यों हर कोई बस हमे रोकने की कोशिश में लगे हैं,

भला की हवा की झोंके हर रोकटोक से मुक्त हे।


वो कहती रही, में सुनता रहा,

मन ही मन मुस्कुराकर खुद से ही नाराजगी दिखाई,

पर कुछ न कहे सका।

कहने को तो बोहोत कुछ बाकी था

पर एक ही सवाल मन में आया,

आखिर हमें हुआ क्या है ?


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