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Uddipta Chaudhury

Tragedy

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Uddipta Chaudhury

Tragedy

वक्त का खेल

वक्त का खेल

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वक्त की नाकाबंदी में सरहद पार करते हुए वो टूटा सा

आशियाना ढूंढती रहती है एक आखरी सांस।

धरकती दिलो में मिन्नते हजार, बेखबर बस में ही था

जिसे हम प्यार समझ रहे थे वो भी है किसी और की कद्रदान।


लम्हे तेरी,आर्जु मेरी,गीली मिट्टी पर बेवफाई का

फसल उघलकर आखिर क्या साबित करना चाहती थी ?

जिस्म से जिस्म को टकराना, सूरज की रोशनी में चमकदार

नजराना के साथ किसी की यादों में फिसल जाना।


फितरत तेरी हमेशा से ही लुभावनी रही है

पर मैंने तो बस प्यार ही किया था,

अतरंगी स्वप्नों की बारिश में भीगता हुआ

रोते बिलखते हुए ए दो आंखे बस तुम्हे ही देखता रहा,


तुम्हारी गरम सांसों से किसी और का बदन भी भोग रहा था,

मत्त हाथी की तरह संगम में लिप्त होकर तुम भूल गई थी

कि तुम्हारे लिए कोई इंतजार कर रहे हैं।


शाम के रेत पर चिट्ठियां हजार,

पलकें भरी होती गई और में खोता गया उन यादों की धुंध में

जहां बस पड़ी थी कुछ बेनाम लाशें जिसे मैंने कभी

अपने स्वप्नों में देखा था।


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