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Usha Gupta

Abstract

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Usha Gupta

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मैं और मेरी क़लम

मैं और मेरी क़लम

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ख़ुशियों से भरी झोली जब,

बन बहिर्मुखी बाँट लेती हूँ परिवार, 

मित्रों, सहयोगियों सभी से,

सुना है बढ़ जाती हैं ख़ुशियाँ,

साझा करने से।


दर्द का अंधेरा घेर लेता है,

जीवन को जब, तब बन मैं अन्तर्मुखी,

बन्द कर देती हूँ पीड़ा, हृदय की कोठरी में।

भर गई कोठरी तो लगी

छलकने व्यथा,

परन्तु न कर पाई फिर भी साझा,

किसी से भी अन्तर्मुखी मैं।


सोचा उठा लूँ क़लम,

बना साथी पीड़ा का उसे,

छिटक गया था दर्द बाहर,

 जो कोठरी से हृदय की,

ले गया उड़ा क़लम बड़ी सावधानी से उसे, 

और कर दिया अंकित काग़ज़ पर।


लगा, हुई कुछ हल्की मैं,

बढ़ा विश्वास साथी पर नये,

निकालती जाती गाथा अपनी,

खोल कोठरी हृदय की

उतारता जाता क़लम उसे,

बड़ी चतुराई से काग़ज़ पर,

बन निकटतम मित्र मेरा।


अब है क़लम दर्द में प्यारा साथी मेरा,

साझा कर पीड़ा का बोझ उसके साथ,

करती हूँ महसूस हल्का-हल्का,

क़लम न पूछता प्रश्न मुझसे,

न देता कोई ज्ञान मुझे,

बस चुपचाप सुन व्यथा मेरी,

उभार देता बड़ी ख़ूबसूरती और

 सच्चाई से भावनाओं को काग़ज़ पर।


हूँ मैं आभारी क़लम की,

नहीं दिया धन्यवाद भी अभी तक,

परन्तु करूँ कैसे व्यक्त आभार,

और दूँ कैसे धन्यवाद, हूँ उलझन में।

 सुलझा सकता है क्या कोई पाठक,

उलझन मेरी ?


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