यह नवीन ‘तुम’
यह नवीन ‘तुम’
मैंने जब भी तुम्हें देखा है, पाया है:
एक नया रूप, एक नई उदासी बढ़ते हुए नमकीन आंसुओं की बाढ़।
सोचती हूं- दुर्भाग्य है मेरा ,या यूं ही महज एक भ्रम !
यह बहरूपिय रूप कहीं छल तो नहीं मेरे विश्वास के साथ ?
तुम पर अभिनत मेरे मन पर कोई आघात तो नहीं।
स्वयं को आश्वासन देती हूं- प्रेम की पनाह में छल का अंकुरना स्वाभाविक ही नहीं।
परंतु फिर भी इस नवीन ‘तुम’ को जानना चाहती हूं, क्योंकि-
इसी ‘तुम’ का आंचल मेरा सहारा है।
मैं तुम में वही’ तुम’ तलाशती हूं।
मैं उसी ‘तुम’ को पाना चाहती हूं।
हां, ‘ मैं’ अब वह ‘मैं’ नहीं
मेरे अंदर का ‘मैं’ मुझसे जुदा हो गया है।
मेरा ‘मैं ‘भूख से बिलखते असंख्य अबोध बच्चों के कोलाहल में खो गया।
मेरा’ मैं’ जाड़े की बर्फीली हवाओं में कॉपती अर्धनग्न वृद्धा की आहों में खो गया।
मेरा ‘मैं ‘दूर किसी चिल्लाते जर्जर शरीर, कुष्ठ रोगी की दर्दनाक पुकार में कैद हो गया।
यह ‘मैं’ अंशु से झुलसते असंख्य नन्हे शिशुओं की कराहों में दफन हो गया।
वही ‘मैं’ जातिवाद के द्वेष में जलते अनगिनत निर्दोष हरिजनों के साथ खत्म हो गया।
मेरा अस्थाई ‘मैं’ स्थाई जीवन की रूद्रता और उदासीनता के आलिंगन में लुप्त हो गया।
मेरा वह ‘मैं’ एक परिश्रात पलित सा हो चुका है,
मैं उस ‘मैं’ को भूलना चाहता हूं।
फिर तुम बताओ मैं उसमें’ मैं’ समा जाऊं कैसे?
जो अब मेरे बस में नहीं।
जीवन यथार्थ से अनभिज्ञ मेरा ‘मैं’ बदल गया है,
मैं वह’ मैं’ नहीं, मैं तुम्हारा वह ‘तुम’ नहीं।
तुम्हारे उस’ तुम’ में पनपा यह नया मैं ही ‘मैं’ हूं,
यही तुम्हारा नवीन 'तुम' है, मेरा ‘मैं’--- आज का ‘मैं’।
