समय
समय
समय एक बड़ा ही विचित्र विषय हैं!
भूत, भविष्य और वर्तमान, यहीं तीन हिस्से हैं काल के!
इसी बीच में आप और यह जीवन!
हम किस तरह से समय को लेते हैं, यह किसी और पर नहीं स्वयं पर निर्भर करता है!
इन्हीं कुछ क्षणों की मेरे और मेरी कल्पना के बीच की वार्ता साझा कर रहा हूँ!
"घड़ी और मेरी कल्पना"
जाने कितने वर्ष बीत चुके हैं,
कलाईं पर हाथ घड़ी बाँधे हुए,
ऐसा नहीं था कि,
मैं यह बात भूल गया था,
पर न जानें क्यों,
घड़ी-घड़ी मैं अपनी कलाईं,
पलट-पलट कर देख रहा था,
जैसे-जैसे, एक-एक करके,
घड़ी बीतती जा रहीं थी,
मन बेचैन हो रहा था,
अचानक, कल्पना बोली,
कि,
कहां गुम हों, क्या कर रहे हों,
मैं उसे वहां पाकर खुश भी हुआ,
और मायुस भी हुआ,
खुश इसीलिए कि,
जिस घड़ी का इंतजार था,
वह मेरे समक्ष हैं, और,
मायूस इसलिए कि, जल्द ही,
यह घड़ी बीत जाएगी,
मेरी मन: स्थिति को समझने में,
कल्पना को एक घड़ी भी न लगी,
और मुझसे प्रेम पूर्वक बोली,
मेरे प्राणनाथ, कि,
कल की घड़ी और कल की घड़ी के चक्कर में,
अभी की घड़ी तूम भूल रहें हों,
मैं घड़ी से नहीं तुमसे जुड़ी हूं,
मैं प्रती क्षण तुम्हारे साथ ही हूं,
मैं तुम्हारी हूं, तुम्हारी रहूंगी,
अगर तुम सिर्फ़ और सिर्फ़,
उस घड़ी के बारे में सोचो,
जो तुम जी रहें हों,
यह सब समझते ही,
मेरे सारे लेश (दुख:),
उस घड़ी की भाँति गायब हो गए,
जिसे पहनें हुए मुझे बरसों बीत चूकें थे!