शर्माजी जग गए
शर्माजी जग गए


शर्माजी अकेले हैं .
घर ख़ुद का , ज़मीन ख़ुद की , नदी ख़ुद की..
अंधेरा शर्मा जी का ..
सब कुछ होते हुए भी पूरे घर में अंधेरा ..
बिजली से परहेज़ रहा होगा शर्मा जी को ..
पूर्ण प्राकृतिक जीवन ..
शर्मा जी के पिताजी के बारे में भी कुछ ख़ास ख़बर नहीं ..
ये सब कैसे पा गए , खबर नहीं ..
भाई , बहन , रिश्तेदारों की भी खबर नहीं ..
एक वजह तो ये कि बड़े भूभाग के मालिक ..
सब के बस के भी नहीं ..
दूसरा सब कुछ उनके बड़े स्टेट में उपलब्ध हैं ..
शर्मा जी मेहनती भी खूब ..
घर में एक भी नौकर ,चाकर नहीं ..
साफ़ सफ़ाई से लेके , ज़रूरी खेती भी ख़ुद से कर लेते हैं ..
सेब के बगीचे ख़ुद के और कई प्रकार के फलों के बाग ..
शर्मा जी रचनात्मक भी खूब , सृजनात्मक भी खूब ..
उनकी ज़रूरते ख़ुद से ही पूरी हो जाती ..
शर्मा जी दूसरों से दूर ही रहे हैं ..
लेकिन समय गुजर गया , जवानी निकल गई , बुढ़ापा ने दस्तक दे दी.
जीवन भर की मेहनत से खाने ,पीने ,जीने का इंतज़ाम था ..
अपने स्टेट में ,जंगल में एक शेर की तरह घूमते रहते थे ..
लेकिन इच्छा कब ,कैसे ,क्यों पैदा हुई .. कौन जानता हैं ..
शायद शर्माजी को अकेलापन कचोटने लगा ..
खेलने के लिए भी तो ,किसी की तो ज़रूरत होती ही हैं ..
शर्मा जी के बराबर का तो कोई था ही नहीं ..इसलिए धर्मपत्नी का तो ख़याल भी उन्हें नहीं आया..
अचानक से ही ज्ञान उत्पन्न हुआ और शर्मा जी बिल्ली ले आए..
बिल्ली क्या आई शर्मा जी का जीवन ही बदल गया..
या यूँ कहे उनका नया जीवन अब शुरू हुआ ..
पहले तो मृत्प्राय ही था ..
बिल्ली के साथ दिन भर खेलते..
रात को भी बिल्ली सिरहाने लेट जाती..
अंधेरे में काली बिल्ली को ढूँढे कैसे ?
तो शर्माजी ने चकाचौंध कर दी ..
बिल्ली के लिए स्टेट बहुत बड़ा था . कभी घर में इधर से उधर भागती , तो कभी खेतों कि तरफ़ ..
उसे खाने को चूहे मिल जाते हालाँकि आम और सेब के बगीचे भी थे ..
अब भई सबकी अपनी अपनी पसंद ..
बिल्ली कभी नदी किनारे , कभी उन पहाड़ियों पर जो स्टेट का हिस्सा थी ..
बिल्ली के मन बहलाने के लिए, खाने , पीने, देखने , सुनने की लिए बहुत कुछ था ..
इतना कि वो जितना भागे उतना स्टेट बड़ा लगता ..
बिल्ली को कई बार ऐसा लगता कि जिस तरफ़ वो भागती हैं स्टेट बड़ा हो जाता हैं..
थक हार के वो वापस शर्मा जी के पास लौट आती ..
शर्मा जी को बिल्ली के साथ खेलने के लिए झुकना पड़ता था ..
एक तो छः फीट की हाइट और बुढ़ापा..
कमर में दर्द रहने लगा ..
लेकिन ख़ुशी इसी खेलने में थी ..दर्द था तो मज़ा भी ..
पूरी जवानी शांति में अच्छे से निकल गई.. लेकिन जीवन में हलचल तो अब थी ..
शर्मा जी अब बिल्ली के साथ खेलने के लिए , बिल्ली जैसे ही चलने लग गए..
एक तो इसमें पीट का दर्द नहीं रहता और बिल्ली भी अपने जैसे को पाके , और मस्त हो जाती ..
उछल उछल के खेलती , नाचती , कूदती ..
कभी पीट पे, कभी सिर पे ..
हार जीत के खेल चलते..
कभी दोनों लड़ते, कभी दोनों एक से लगते ..
फ़र्क़ करना भी मुश्किल हो जाता कि कौन बिल्ली हैं , कौन शर्माजी..
धीरे धीरे शर्माजी बिल्ली होते गए..
अब वो बिल्ली को समझने लग गए थे ..
उसके दुःख, उसकी इच्छाएँ, उसके संघर्ष..
शर्माजी इतने भावविभोर हो जाते की बिल्ली का दुख उनमें उतर आता..
शर्माजी में कब बिल्लीपना उतर गया, उन्हें पता ही न चला..
अब उनकी सम्पति, बचीखुची ऊर्जा और एक एक श्वास सिर्फ़
बिल्लीपने के लिए थी..
वो अक्सर घंटों अकेले बैठे ,बिल्ली को शीर्ष जीवन व सुरक्षा कैसे मिले.. इसके बारे में विचार करते..कल्पनाओं में दिन गुजर जाते..
बिल्ली उनका परिवार था , घर था , धर्म था ..
वो ख़ुद को समझाते , कभी ग़लत सही में उलझ जाते, कभी उग्र आंदोलन करने की सोचते, कभी कभी कोई अनजान सेंस उन्हें रोक लेता.
फिर वो बिल्ली को रोज़ देखते, उसकी मासूम आँखें, धीरे से उसका म्याऊँ म्याऊँ करना , आँखें झुकाना और पहलू में आके बैठ जाना..
मेरे जाने के बाद इसका क्या होगा . मैं इसके लिए खड़ा नहीं होऊँगा तो कौन होगा..
आज मेरा डर ही मुझे रोक रहा हैं , कल घर में दुश्मन घुस आएँगे तब क्या होगा..
हाँ , लोग मुझे सही ग़लत के तराज़ू में तोलेंगे, कुछ आतंकवादी ही कहदे. लेकिन मैं लड़ूँगा… जो सही हैं उसके लिए..
मैं बिल्ली के सत्य को जानता हूँ . उसे मैंने क़रीब से पढ़ा हैं , उसके मन को जानता हूँ .. बिल्ली ग़लत नहीं हो सकती ..मैं ग़लत नहीं हो सकता ..
तकलीफ़ एक थी ,शर्मा जी अपने जैसे आप ही थे ,उनके कोई मित्र तो थे नहीं . लोग उन्हें जानते ही नहीं थे..
लेकिन बिल्ली के दोस्त थे , शर्मा जी ख़ुद भी बिल्ली हो ही गए थे..
बिल्ली समाज एक हो उसके लिए वो स्टेट से बाहर आए..
जगह जगह आयोजन किए गए..
शर्माजी अब बिल्ली समाज के अध्यक्ष हो गए..
समाज को एक दिशा मिले, इसलिए एक किताब भी लिखी गई..
इतना गहरा कौन सोच सकता हैं .. शर्माजी को भगवान का दर्जा मिलने लगा ..
भविष्य में बिल्ली समाज के सामने क्या क्या परेशानियाँ आ सकती हैं , उस तक का ज़िक्र था . और एक दिन बिल्लियाँ ही राज करेगी , ये भविष्यवाणी थी ..
बिल्ली का भगवान बिल्ली जैसा..
किताब ने बिल्लियों की बंद आँखें खोल दी..
एक एक चना भाड़ फोड़ने लगा ..
कुत्तों की लाशे बिछने लग गई..
कुछ समाचार शर्माजी तक पहुँचने लगे..
कुछ तस्वीरें बयाँ करती की मरने वाले भी बिल्ली बिल्ले ही थे..
शर्माजी विचार ही कर रहे थे कि काली बिल्ली आई..
उसने कहा जो हमारे दुश्मन होते हैं वो कुत्ते ही होते हैं ..
जो हमे नहीं समझते, महसूस करते , जो हमारे ग़लत सही , हमारी किताब नहीं समझते वो हमारे जैसे दिखते ज़रूर हैं लेकिन हमारे हैं नहीं ..
शर्माजी को ख़याल आया की तुमने भी तो चूहे खाए थे .लेकिन शर्मा कैसे कहते. वो अब हम हो गए थे..
तुम में ग़लती देखी जा सकती हैं .. लेकिन हम में सब ठीक जान पड़ता हैं ..
भीड़ रोष में थी तो हो गया.. कोई अकेला ज़िम्मेदार नहीं ..यानी कोई गुनहगार नहीं ..
शर्माजी चुप हो गए..उम्र भी दादाजी की हो चली थी ..
पॉवर बच्चों के हाथ में थी ..दादाजी की मूर्ति भी बन सकती थी ..
जो विरोध में आए किसी को शूली पे टांग दिया गया..
किसी को ज़हर दिया गया, किसी को जेल मिली..
किसी को काट दिया गया , किसी को जला दिया गया..
हर विद्रोह का एक परिणाम तो होता ही हैं ..
विरोध में आवाज़ें उठने लगी..
घनघोर युद्ध हुए..
लाखों की संख्या में कुत्ते बिल्ली मारे गए..
विनाशक बॉम्ब से धरती की छाती जल गई..
दूध पीते बच्चे जल गए..
और जल गई वो सारी कविताएँ जो लिखी गई थी ,उन प्यार के दिनों में जब शर्मा जी बिल्ली नहीं थे, बस उसके साथ प्रेम से खेला करते थे ..
बीच बचाव के लिए कुछ एक इंसान आगे आए..
शरमाजी किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में थे..
इंसान अपने जैसे ही लग रहे थे .कुछ बाते समझ आ रही थी , कुछ नहीं ..
बिल्लियों का मत था , कुत्तों की तरह इंसानों को भी मार दिया जाए..
लेकिन शर्माजी उनसे प्रभावित हो रहे थे ..वो कुछ थे ही नहीं , कहने के लिए इंसान थे . वो कुछ हो भी नहीं रहे थे ..जैसे शून्यभाव में थे..
वो शांत थे, सहज भी , तेजयुक्त भी ..
वो भय रहित थे , बहुत सरल तरीक़े से चीज़ों को देख पा रहे थे ..
वो किसी भी तरफ़ नहीं थे और सभी की तरफ़ लग रहे थे ..
इतने सरल तरीक़े से कहना , स्पष्ट देख पाने से ही संभव हैं ..
शर्माजी उनसे प्रभावित हो गए थे लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी बात रखी ..
शर्माजी - आपकी बाते हमे सही लग रही हैं , लेकिन हम बिल्लियों के अस्तित्व का क्या ? क्या हम विरोध भी न करे..
हमारे हक़ , हमारी परेशानियाँ, मजबूरियाँ ..
हमारी इज़्ज़त, मान मर्यादा का क्या?
हमारी किताब का क्या ?
हमारी एकता का क्या?
इंसान - लेकिन आप तो बिल्ली हैं ही नहीं ..
वो तो आपका बस एक साधन हैं ..
आप उसका उपयोग करते ,न करते वो ठीक हैं ..
लेकिन आप तो ख़ुद बिल्ली हो गए..
बिल्ली की नज़रों से जो दिखेगा, वो बिल्ली तक ही सीमित हैं ..
शर्माजी - लेकिन ऐसा नहीं हैं ..
हम दूर दूर तक गए..कितने बिल्लियों से पूछा , समझा , जाना तब कही जाके किताब की रचना हुई..ये किसी एक की लिखी हुई नहीं हैं ..इसमें हज़ारों के मन की आवाज़ हैं ..
आप कह सकते हैं ये हमारी रचना ही नहीं ,अपौरुष्य वाणी हैं ..सत्य की आवाज़ हैं ..
और आप हमारी सोच समझ का परिणाम देखिए.. हमने सरकारें बनाली ..बॉम्ब बना लिए.. आप सात्विक परिणाम भी तो देखिए.. कुछ हिंसा तो आवश्यक भी हैं ..
इंसान - लेकिन आवाज़ बिल्ली की , समझ बिल्ली की , ज्ञान बिल्ली का, सार बिल्ली का ..
परेशानियों बिल्ली की ? या ; बिल्ली की पैदा की हुई ?
आप बिल्ली कैसे..
(शर्माजी जी के जब से नए जीवन की शुरुआत हुए थी, वो बिल्ली में जिये थे , हसे थे , रोए थे ..
बिल्ली को समझा था , सुना था , सारा समय बिल्ली को दिया था ..
वो कब बिल्ली हो गए थे , वो भी भूल गये थे
अब वो बिल्ली हैं , बिल्ली नहीं तो शरमाजी नहीं ..
बिल्ली जैसे सोचते थे , बिल्ली जैसे चलते थे ..
बिल्ली की इच्छायें, दुख , उनका सुख दुख था ..)
शर्माजी - मेरा जीवन गुजर चुका हैं , मैं बिल्लीपने में ही रहना चाहता हूँ .. मुझे ऐसे ही मर जाने दीजिए..
बिल्ली के बिना मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं हैं ..आप मुझे कह रहे हैं मैरा मूल अस्तित्व बिल्ली नहीं हैं .. लेकिन जो मेरा मूल अस्तित्व हैं , उससे तो कभी मिला ही नहीं .. वो क्या होगा . वो नया होगा .. मुझे आदत ही बिल्लीपने की हैं …
या यूँ मान लीजिए.. मैं कभी बिल्ली , कभी शर्माजी हो जाता हूँ ?
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा ..
मैं क्या करूँ ?
(शर्माजी रो पड़ते हैं ..)
इंसान (मुस्कुराते हुए) - ख़ुद से ख़ुद कैसे मिलोगे?
एक इंसान एक आईना शर्माजी के सामने रख देता हैं ..
शर्माती देखते रह जाते हैं . वो वैसे नहीं थे जैसा वो ख़ुद को मानने लगे थे ..
न पूँछ थी, न बिल्ली जैसी मूछ..
शर्माजी खड़े हो गए..
शरमाजी जग गए..
बंद फेफड़ो में हवा भर गई.. ऊर्जा से ओतप्रोत हो गए..
खड़े हुए तो दूर दूर तक साफ़ साफ़ दिखने लगा ..
बिल्लियाँ छोटी छोटी सी लगने लगी ..
शरमाजी का ये स्वरूप देख बिल्लियाँ भागने लगी ..
कुछ ने वहीं दम तोड़ दिया..
शर्मा जी की दृष्टि स्पष्ट हो गई..
शर्मा जी ने देखा न ही कोई बिल्ली थी , ना ही कुत्ता..
सब द्वेत के , मन के बखेड़े थे ..
जो स्वयं कुछ थे ही नहीं ..
बस जीवन ही अलग अलग रूपों में दृश्यमान था ..
वो स्वयं भी जीवन ही थे ..बस नाम , मन बन बैठे थे ..
सामने खड़े तेजयुक्त इंसान भी जीवन ही थे ..
शर्माजी ने इंसान को प्रणाम किया…
जीवन ने जीवन को ही प्रणाम किया..
और घर की तरफ़ निकल पड़े..
थोड़ी देर में काली बिल्ली का ख़याल आया..
देखा तो सामने एक पेड़ पर बैठी थी ..
शर्माजी ने हाथ बढ़ाया तो पीछे हटने लगी ..
शर्माजी ने झट से पकड़ लिया..
शर्माजी - डरो मत, तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ ...
मेरे घर का ही हिस्सा हो ..
चूहे ढूँढने ,मारने का तो काम करती ही हो ..
बस मुझे ख़याल इतना रखना हैं की तुम्हें उतना ही काम में लेना हैं जितनी की ज़रूरत हैं ..
याद रखना बिल्ली को ज़्यादा महत्व दिया तो व्यक्ति को मार देती हैं ..