इंतज़ार
इंतज़ार


मैं सबके बीच में बैठा था ..दूर का मुझे कुछ दिखाई ही नहीं देता था.. सब तो पास थे..जिनके साथ में रहना चाहता था..
मैं बहुत खुश था..सब नज़दीक थे..साथी.. प्रेम..जीवन..और हां , हां मैं भी तो था..
सालो साल मैं बैठा ही रह गया..ऐसा ही जीवन तो अच्छा लगता हैं..फिर उठना क्यों?
एक दिन कुछ तकलीफ़ सी हुई.. खड़ा होना चाह भी और नहीं भी..लेकिन पता लगा.. मैं तो उस जगह से चिपक ही गया.. ज़मीन ने मुझे पकड़ रखा था या मैं ही उस ख़ास जगह से एक हो गया था..
धीरे धीरे साथी दूर होने लगे... मैं अपनी जगह से हिल नहीं पा रहा था.. मेने उन्हे आवाज़ दी..उन्होंने सुना ही नहीं या सुन के अनसुना कर दिया..
इसमें गलती उनकी नही हैं..असल में, मेरी हमेशा से बोलने की आदत ज़्यादा रही और कई किस्से
,मैं कई बार सुना चुका हूं.. सब तो वो जानते ही हैं..
अब तो बोला भी नही जाता.. शायद ज़्यादा बोलने से ही ज़बान को लकवा मार गया हैं ..
समय गुजर रहा था..जीवन गुजर रहा था.. उम्र गुजर रही थी.. प्रेम ने कब विदा ली..पता ही नही चला.. बता के भी नही गया.. अजीब बात हैं.. ऐसा कौन करता हैं?
अब कोई नही हैं.. वो जगह और मै एक दूसरे से चिपके पड़े हैं.. इस इंतज़ार में कि वो सब वापस आएंगे.. वही , साथी, प्रेम और जीवन..
मैं इंतजार में तो हूं अभी भी..लेकिन ,मैं अब कमज़ोर होता जा रहा हूं.. गुजरते वक्त के साथ.. गुजरी बातो के साथ..गुजरी यादों के साथ..
आज मैं सब के बीच लेटा हूं.. मेरे कमज़ोर दोस्त आस पास हैं..रंग उड़ा, बुझा सा प्यार भी बैठा हैं.. बस जीवन नदारद हैं...