साधारण
साधारण


मैं (प्रेम) जितना बढ़ा या बूढ़ा होता जा रहा हूँ , उतना ही मुझे समझ आता हैं की मैं कितना बेवक़ूफ़ रहा हूँ ..
मैं हमेशा ख़ास होना चाहता था या ख़ुद को विशेष ही मानता रहा..
पर बहुत छोटी छोटी बातें मुझे आईना दिखा देती हैं ..
आज अहम रखने के लिए मेरे पास सिर्फ़ उम्र हैं ..
मैं कह सकता हूँ की मैं उससे बड़ा, उसका सीनियर या उससे पहले मैंने ये किया हैं .. अब उम्र से मान चाहता हूँ ..
कभी कोई बात छोटे उम्र वाले से सीखने को मिलती हैं तो बुरा लगता हैं की ये बात मुझे पहले से क्यों नहीं मालूम ..
अब समझ आता हैं की मैं अध्यात्म का शाब्दिक अनुचर हैं ..
मैं शब्दों में सब कह सकता हूँ पर वैसा करता नहीं हूँ ..
मुझे पैसे की कमी डराने लगी हैं ..
मुझे लगने लगा हैं की किसी को दान देने से , दस रुपए ही सही या घर पर खर्च करने से पैसे खत्म हो जाएँगे ..
मगर मैं अपनी इच्छापूर्ति करते वक्त पैसे का नहीं सोचता..
मैं पैसे के पीछे कभी नहीं भागा..अब जब वो मुझसे दूर जा रहा हैं तो उसकी तरफ़ ही बहे जा रहा हैं …
अपनी गलतियों से जो मैंने ख़ुद का नुकसान किया हैं उसके लिए शनि,राहु ,मंगल ,केतु या बीवी को ज़िम्मेदार बनाना चाहता हूँ ..
जौन एलिया ..
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ की बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं ..
ये शूरवीरों की कहानियाँ सिर्फ़ वीर रस जगाने के लिए हैं ..सच में वैसा नहीं हूँ .. उल्टा डरपोक होता जा रहा हूँ या था ही ..
मैं सीधे तोर पर मनु को कभी नहीं कह पाया की वो मुझे कितनी विशेष लगती हैं .. की मेरा मन उसकी ओर बहता हैं …जैसे की कोई पिछले जन्म का प्रेम ..
मगर ऐसा कहता और किसी को पता लगता तो वो मुझे बुरा इंसान मानते…मैंने अपनी नज़र में अपनी एक तस्वीर,इमेज बना रखी हैं … भले किसी को मैं ख़्वाब में भी याद न आया हूँ ..
मगर मैंने अपनी तस्वीर को थाम रखा हैं ..
जब से बाल कम होने लगे हैं , झुर्रियाँ बढ़ने लगी हैं ..अब मिलने से और डरने लगा हूँ .. अब क्यूँ कोई चाहेगा मुझे ..
यूँ मैंने ख़ुद को किसी से छोटा नहीं माना.. सफलता, असफलता तो संयोग, प्रोबबिलिटी का खेल हैं ..लेकिन कोई बड़ा आदमी मिलता हैं तो ठीक तरह से बात नहीं कर पाता ..
कभी कभी ख़ुद को बड़ा,ज्ञानी साबित करने लगता हूँ और कभी कभी बड़ा छोटा महसूस होता हैं ..
अभी तक सबसे
ज़्यादा मैंने जो पढ़ा वो सहज होने, शांत होने, ठहर जाने के बारे में पढ़ा और समझा और कभी कभार महसूस भी किया..
जैसे किसी गांव के पहाड़ पर बने मंदिर की शाम ..ढलता सूरज , गाते पंछी ..और शांति की अपनी आवाज़ ..
जैसे किसी झील किनारे, चलती लहरो के बीच ठहरा मन ..
जैसे घर की छत पर बैठे, उड़ते कबूतरों के बीच .. रुका सा समय ..
मगर ज़्यादातर अंदर कुछ हैं जो भाग रहा हैं ..इधर से उधर ..जिसको सब कुछ जल्दी चाहिए… जो ठीक से सोता नहीं हैं … जो बस बेचैन हैं ..डरा हुआ भी ..रुआँसा भी ..
इच्छाये इतनी सारी और मिश्रित…एक ही रात में जवाँ लड़की , खूब सारा पैसा और शूरवीर की तरह लड़ता मैं.. सब कुछ दिख जाता हैं ..
न एस्थेटिक्स का सेंस हैं ना ही कोई ख़ास हुनर ..
किसी चीज़ में बहुत अच्छा नहीं ..या अच्छा ही नहीं ..
मुझे शिकायते भी हैं ..
इस दुनिया के कुटिल लोगो से ….
इतने तेज़,मौक़ापरस्त ,मतलबी , राजनीतिज्ञ और चापलूस लोगो को मैं सम्भाल नहीं पाता..
मैं मानता हूँ की मैं इन जैसा नहीं हूँ ..
मुझमें इन जैसा होने का हुनर भी नहीं ..हिम्मत भी नहीं ..
इस बात के ज़िम्मेदार पिताजी हैं .. जिन्होंने बचपन से ही सही ग़लत , अच्छा बुरा सिखाने वाले सज्जन इंसानों के सानिध्य में मुझे रखा…और मैं ऐसा बन गया ..
अजीब सी हैं हालत ..
मन सिगरेट पीना चाहता हैं
शरीर परेशान हो रहा हैं ..
उसे अब सिगरेट का स्वाद भी अच्छा नहीं लग रहा..
मन मूवीज़ देखना चाहता हैं
फ़ोन सारी रात चलता रहता हैं
शरीर सो जाता हैं
बूढ़ा शरीर गहरी नींद में हैं
मन जवान जिस्म के ख़्वाब देखता हैं
दिमाग़ जैसे स्वचालित यंत्र की तरह हो गया हो ..
ऑटोमाड में काम कर रहा हो जैसे..
एक आदत के अनुसार रिएक्शन..
कभी सिगरेट की तरफ़ बढ़ता है , कभी भय, चिंता की तरफ़ ..
कभी शरीर की तरफ़ ..
आप आज़ाद ही नहीं , जैसे दिमाग़ ही चला रहा हो ..
विशेष ना सही …मैं साधारण तो हूँ ना ?..
परवीन शाकिर -
हुस्न को समझने को उम्र चाहिए जाना ..
जीवन के बारे में भी ये सत्य हो शायद..
या हम कुछ भी नहीं समझ सकते ..
गीतकार संतोष आनंद-
जीवन का मतलब तो बस आना और जाना हैं ..