उथल - पुथल
उथल - पुथल


यह सब अंदर से ही शुरू होता है.. बहुत गहरे से.. और फिर हम इसे बाहर ले आते है।
रिश्तों में तनाव बढ़ने लगता हैं। झगड़े शुरू होने लगते हैं। हम सब एक दूसरे को गलत साबित करने में लग जाते है।
झगड़े में जीतने वाला भी संतुष्ट नहीं होता। हारने वाला शराब सिगरेट का सहारा पकड़ लेता है, अपना कलेजा जलाता रहता हैं और दिन ब दिन और कमज़ोर होता चला जाता हैं.. और गिरता चला जाता है..
हां यह सब अंदर से ही शुरू होता है... जब धीरे धीरे मन: स्थिति अशांत व असंतुलित होने लगती है..
कुछ लोगों के लिए फाइटर प्लेन का भी शोर कम है और हम जैसे लोग तुम्हारे छींकने से भी मर जाते है।
इतनी संवेदनशीलता जीवन में हमेशा से ही रही ..
जब प्रैक्टिकल रूप से जीवन परीक्षा लेता हैं... तभी हम अपने को और क़रीब से जान पाते हैं...
कभी रिश्तों का रूप देख कच्ची उम्र में ही डिप्रेशन का शिकार हो जाना....कभी ज़वानी की दहलीज़ पे क़दम रखते ही प्यारे साथी को खो देना.... अर्थ का नुकसान भी कितना तोड़ के रख देता हैं..
जिस पैसे को हाथ का मैल और माया कहते थे ,वो आपके कॉन्फिडेंस को तोड़ के रख देता हैं...
लेकिन जब तक यह होगा नहीं... वर्चुअल टैस्ट// किताबी बातों से एक जीवन तैयार ही कहां हो पाता हैं?
मजबूती टूटने से आती हैं..
सुबह सवेरे उठा तो तुम्हारी गहरी आंखें याद आई.. हिरनी सी कहूं क्या?
डुबाने वाली आंखें, जिसमें कब कोई खो जाए.. भान ही न रहे..
फिर तुम्हारे घुंघराले बाल.... फिर तुम्हारी हँसीं... फिर तुम्हारा फूल..और फिर बिंदी..
अब प्यार करने का मन नहीं हैं.. बहुत खाने से जैसे जी भर जाता हैं... मेरा प्रेम से जी भर गया हैं..
बहुत उथल - पुथल ने सीखा दिया की संतुलित व शांत रहना ही आवश्यक हैं.
जीवन इन्हीं शांति के पलों में कभी कभी घटित होता हैं .. जिसकी प्यास हमें हर दिन बनी ही रहती हैं.
जैसे कभी तुम्हारे साथ बिताई चांद तारो के साए में रात..
उम्र बढ़ती हैं तो शरीर का आकर्षण भी प्रभावित नहीं करता.... नहीं बैरागी नहीं हुवे... भोग इतना कर लिया की भोग की सीमाएं सीमित हैं.. ये सीमितता दिखने ,समझ आने लगी।
फिर भी तू हैं और तू रहेगी.. और जब जीवन साथ लाएगा.. मैं साथ भी रहूंगा... उन क्षणों के लिए.. उन मनःस्थितियों के लिए... जब जीवन घटित होता हैं... कुछ क्षणों के लिए.... जिसकी प्यास हमें हर दिन बनी रहती हैं...जीवन भर बनी रहती हैं।