Nisha Singh

Abstract

4.7  

Nisha Singh

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पंछी

पंछी

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मैं… मैं पंछी हूँ । मेरा नाम पंछी नहीं है, मेरी फितरत पंछी जैसी है। हवाओं में उड़ना, खुले आसमान को निहारना,ऊंची उड़ाने भरना मुझे बहुत पसंद है । अच्छा लगता है मुझे…जब मैं उड़ान भरते हुए दूरदराज पहुंच जाती हूँ पर सिर्फ मेरे सपनों में। आज तक उड़ान नहीं भरी मैंने, पिंजरे में कैद हूँ ना,इसलिए…मजबूर हूँ। अपनी मर्जी से उड़ान भरना मेरे लिए पाप के बराबर है। और ये सिर्फ मेरी ही हालत नहीं है, ये लगभग हर हिंदुस्तानी लड़की की हालत है । हमारे पास पंख हैं, दिल में जज्बा है कुछ कर दिखाने का पर फिर भी हम कुछ कर नहीं पाते क्या बताएं मजबूर है… बेडियों में जकड़ दिया है हमें। झूठे समाज के नाम पर, झूठी इज्जत के नाम पर हम पर सिर्फ पाबंदियां लगाई जाती है। कहने के लिए तो कहा जाता है कि बेटा और बेटी में कोई फर्क नहीं है पर असलियत इसके बिल्कुल उलट है। मैंने ऐसा महसूस किया है कि समाज जितनी अहमियत हमें मिलती दिखाता है उतनी अहमियत शायद असलियत में नहीं मिलती।

अरे… बातों-बातों में आपको अपने बारे में बताना तो भूल ही गई। अवनी नाम है मेरा… अवनी कश्यप। नाम मेरा अवनी जरूर है… मैं हूँ नहीं ‘अवनी’ जैसी। अवनी का तो मतलब भी कमाल का होता है ‘धरती’। धरती, जो सब का वजन सहती है, और मैं…मैं तो किसी की बात तक नहीं सह सकती। सहनशक्ति नाम की चीज नहीं है मेरे अंदर, छोटे भाई से ही आए दिन झगड़े होते रहते हैं मेरे । मेरा छोटा भाई राहुल… राहुल कश्यप, मां का लाड़ला, पापा का दुलारा, और मेरी विरोधी पार्टी। आम भाई बहनों की तरह हमारी भी आपस में नहीं बनती । वह 11वीं में पढ़ता है और मैं बीएससी III सेम की स्टूडेंट हूँ ।अपने आपको वो कुछ ज्यादा स्मार्ट समझता है जो की वो नहीं है, और मैं अपने आपको उससे ज्यादा समझदार समझती हूँ जो कि मैं हूँ भी। सब मम्मी पापा के लाड़ प्यार का नतीजा है।

शैलेंर कश्यप,मेरे पापा,बड़े ही सुकून पसंद इंसान हैं। सुकून उन्हें केवल अपने लिए ही पसंद है,दूसरों को उनकी हिटलरगीरी से अगर कोई समस्या है,तो इससे वह कोई इत्तेफाक नहीं रखते। पेशे से मेरे पापा टी टी ई हैं। मेरी समझ में तो ये नहीं आता इन महापुरुष को तो मुझे अपनी शक्ल दिखाने की इच्छा नहीं होती,पता नहीं लोग इन्हें टिकट कैसे दिखा देते हैं। सुहासनी कश्यप, मेरी माँ,या यूं कहूँ कि पूरे मोहल्ले की मां,हम दो भाई बहन के साथ साथ पूरे मोहल्ले का ख्याल रखती है। भगवान… जाने इतना समय कहाँ से आता है इनके पास, घर का काम करती हैं,माकेट का सारा काम भी यही करती है,नानी और मौसी से घंटों फोन पर बातें भी इन्हीं को करनी होती है, कमाल का मैनेजमेंट है मेरी माँ का । अभी मुझे नई बात मालूम हुई है,मेरी माँ को मोहल्ले के बच्चे आंटी 007 कह के बुलाते हैं। और कर लो जासूसी,और बनो मदर इंडिया,यही कहेंगे बच्चे,सही करते हैं। सबके हालचाल लेने के चक्कर में 24 घंटे लोगों को टोकती रहोगी तो और क्या होगा… यही होगा।

वैसे तो हम लोग लखनऊ के रहने वाले शायद मेरे बात करने के लहजे से आप को लगा भी हो। पापा की जॉब यहां लग गई तो लगभग 10 साल से दिल्ली ही रह रहे हैं। कहने को तो पिछले 10 साल से दिल्ली में हूँ। शुरू में लखनऊ के स्कूल में पढ़ती थी,यहां आ गए तो बची हुई पढ़ाई भी यही कंप्लीट हुई और अब यही के कॉलेज में पढ़ती हं। काफी हद तक दिल्ली वाली हो गई हूँ पर मेरी जुबान में आज भी लखनवी लहज़ा बरकरार है।

वैसे तो बड़ी ही मस्त मौला लड़की हूँ मैं,पर क्या करू जब भी कुछ गलत होते हुए देखती हूँ तो खून खौल उठता है,कुछ कर नहीं पाती तो गुस्सा घुटन में बदल जाता है। किसी से कुछ कहने बैठूं तो लोग समझते नहीं,समझना तो बहुत दूर की बात है सुनते तक नहीं। कुछ ऐसी ही घुटन मेरे अंदर है जो आपसे बात करते वक़्त ज़ाहिर हो गई। लोग समझते सुनते क्यों नहीं? आखिर कब तक चलेगा ऐसा… कब तक… 


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