कभी आसमाँ भी मेरा था
कभी आसमाँ भी मेरा था
आसमान में रंगबिरंगी पतंगों को उड़ते हुए देखना कितना अच्छा लगता है,नहीं?
दूर आसमान में यह पतंगें इठलाती कभी बल खाती इधर उधर उड़ती रहती हैं।उनको तो बस एक इशारे की ही जरूरत होती है।और अपनी इसी ऊँची उड़ानों की खयालों में सरसराती हुई पतंगें खुद को आसमाँ की मलिका समझने लगती है।
पतंगें कभी इधर तो कभी उधर सरसराते हुए उड़ने लगी थी।आसमान में कौन ज्यादा ऊँचाई पर जाएगा इसी खेल में वह सब कुछ भूल गयी।जमीन पर खेले जा रहे उस खेल में खिलाड़ियों की शर्त लगी थी और शर्त जीतने के लिए सारे दावँ पेंच आजमाए जा रहे थे।
लेकिन नियति के खेल तो अजीब होते है।नियति के खेल का अंदाजा उस आसमान में उड़ने वाली पतंग को कैसे होगा भला?
जो पतंग अभी दूसरी पतंग के साथ ऊँची और ऊँची उड़ान का खेल खेल रही थी,वह अचानक जमीन की तरफ जाने लगी।
पतंग तो आसमान में अपने गुमान में थी और सोच रही थी की वह तो आसमाँ की मलिका है।वह जमीन पर कैसे आ सकती है भला?
लेकिन वह और नीचे नीचे आने लगी और निरीह निगाहों से यहाँ वहाँ देखने लगी।
अचानक लड़कों के एक झुंड की उस पर नजर पड़ी,और वे सब उसकी तरफ दौड़ पड़े।
मन की उस छटपटाहट में ही वह किसी कँटीली झाड़ियों में गिर पड़ी।उसके कानों में उन लड़कों के तेज कहकहों का शोर गूंजने लगा।
आसमाँ की मलिका की छटपटाहट और सिसकियाँ जमीन के शोरगुल में दब गयी।
आसमाँ की मालिका कँटीली झाड़ियों में सिसक रही थी और उधर उसे लूटने वालों के कहकहे गूँज रहे थे.....