लापता औरतें
लापता औरतें
अख़बार में गुमशुदा व्यक्तियों के कॉलम पर अचानक मेरी निगाहें गयी। आम तौर पर लोग समाज कल्याण विभाग की उस लिस्ट को अनदेखा कर अखबार के उस पन्ने को पलट देते है।
मेरा ध्यान अचानक इसलिए अटक गया था क्योंकि गुमशुदा व्यक्तियों की वह लिस्ट कुछ ज्यादा लंबी लग रही थी। उस लिस्ट में सारी महिलाओं के नाम थे। शायद वह महिलाओं के लिए वह लिस्ट थी।
उस लिस्ट में एक महिला का ज़िक्र कुछ ऐसे था :-
नाम- नामालूम
पिता का नाम - नामालूम
उम्र- 50 साल
मूक बधिर
थोड़े और ध्यान से देखा तो ऐसे ही एक और मूक बधिर महिला के बारे में इसी तरह का ज़िक्र था जिसकी उम्र कुछ 40 साल थी, उसका नाम भी नामालूम था और पिता का नाम भी नामालूम था।
मुझे लगा कि शेक्सपीयर ने सही तो कहा है, व्हाट इज इन द नेम? गुलाब को मोगरा कहने से गुलाब मोगरा नहीं हो जाता।
हाँ, तो यहाँ उन महिलाओं की सिर्फ़ पहचान की ही बात नहीं थी...बल्कि वह मूक बधिर महिलाएं तो अपने घर से ही लापता थी...उन मुक बधिर महिलाओं के घर वालों को व्यवहार का तकाजा मालूम था। यह उनके लिए कंवेनियन्स का सौदा था... उनके घरवालों को क्यों कोसना है भला?
वह औरतें वाकई लापता थी या लापता करवाई गयी थी? शायद कुछ सवालों के जवाब नहीं होते है या फिर दिये ही नहीं जाते है...
उस अख़बार की ख़बर के मुताबिक वे औरतें लापता ही थी...