समंदर छुपाती नदी
समंदर छुपाती नदी
वह मुझसे कल बेहद फ्री होकर बात कर रही थी...बातों के दरमियान वह हँस भी रही थी...
उसकी कुछ बातें तो उसके बेहद इनर कोर वाली होती थी...या शायद मुझे ही लगती थी। न जाने क्यों लगता था कि वह मुझसे कितने आसानी से अपनी सारी बातें कह देती है...शायद मुझ पर उसका ट्रस्ट ही है जिससे की उसे लगता होगा कि मेरी तरफ़ से उसकी कोई भी बात न तो डिसटॉर्ट होगी और न ही एम्प्लीफाय भी होगी....
कुछ लोग कह सकते है कि औरतें किसी भी टॉपिक पर बोल सकती है...नॉन स्टॉप...बिना किसी हिचकिचाहट और बेबाकी से अपनी बात कह देती है।
यूँ भी औरतों के मनोविज्ञान को समझना आसान कहाँ है? वह अपने अंदर कितने सारे समंदर छुपाये फ़िरती रहती है और ख़ुद किसी नदी की तरह बेखौफ बहते जाती है...इधर उधर...जिंदगी की राह में आने वाले हर पत्थर को पार करते हुए जाती है...
आज वह भी तक़रीबन दो घंटों से ज्यादा मुझसे बात कर रही थी...उन बातों के दरमियान वह मुझे किसी नदी की तरह ही लग रही थी...किसी की परवाह किये बग़ैर...खुलकर बहने वाली कोई बेपरवाह नदी...
वह समंदर भी अजीब होता है...जितना गहरा होता है उतना ही वह आवारा भी होता है...सभी को अपने अंदर समाहित करने को आतुर...हर जानेवाली लहरों को वापस लौट आने पर बिना कुछ कहे क्षमा कर वापस खुद में समाहित करता है।
न ही वह किसी में कोई भेद विभेद करता है और न ही कोई अपनी पसंद नापसंद ज़ाहिर करता है...न वह गंगा को ज्यादा तरजीह देता है और न ही नर्मदा को कम...
वह शायद हर नदी को बेपनाह चाहता हैं...किनारों की ओर भागकर जाती है उस हर लहर को भी....
पाठकों को लगेगा की लेखिका आज शायद कन्फ्यूज्ड है...कुछ भी आयँ बायँ लिख रही है...बात हो रही है एक स्त्री की जो अपने मन की बातें अपनी एक दोस्त से करती है...बातचीत के दरमियान अपने पति की बातों के साथ साथ उसके मन के इतर बातों का पिटारा खोल देती है...इस दौरान वह खुल कर हँसती भी है...इसमें ऐसा क्या है? उसकी खुलकर हँसने वाली बात में पति को क्यों लाया गया? मायके में माँ तो बचपन से ही ठठाकर हँसने की मनाही किया करती थी जो अपने यहाँ बेहद आम सी बात है...पता नहीं यह नदी और समंदर कहाँ से आ गये...आजकल की यह फेमिनिस्ट टाइप की रायटर्स कुछ भी लिखती रहती है...
छोड़िये इस बात को और इस फालतू फेमिनिज्म को भी...शायद कुछ लोग स्त्री मन वाली बात को समझ लेंगे...