ईश्वर का न्याय
ईश्वर का न्याय


अपनी बात ...
इस कथा के माध्यम से मैं तीन बातें कहना चाहता हूं।
१_ यह कथा एक सत्य घटना पर आधारित है।
२_ तंत्र शास्त्र के जानकार बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि तंत्र की राह पर चलने वाले व्यक्तियों पर तंत्र बहुत से बंधन लगाता है। सामान्यतय: कोई भी तांत्रिक किसी पर भी अकारण ही तंत्र का प्रयोग नही करता है।
३_ तंत्र की राह पर चलना दुधारी तलवार पर चलना दोनो एक बात है।
कथारंभ
बस्ती के पूर्व दिशा मे हाईवे है। हाईवे उत्तर से चलती हुयी दझिण की तरफ चली जाती है। हाइवे पर दझिण मे चलते हुये जिस स्थान से बस्ती समाप्त होती है वहां से तकरीबन आधा किलोमीटर की दूरी पर दाहिने हाथ यानी पूर्व दिशा मे एक रास्ता कुछ कच्चा कुछ पक्का, कुछ ऊबड़-खाबड़ कुछ समतल गया हुआ है। इस रास्ते पर सामान्यतय: सांझ हो जाने के बाद कोई नही आता-जाता। कारण, यह रास्ता सीधे श्मशान मे चला गया है। सांझ होते ही इस रास्ते पर सांप-बिच्छू जैसे प्राणियों का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है। अत: इस रास्ते पर चलना अपनी मृत्यु को निमंत्रण देने जैसा ही होता है। ऐसे मे रात्रि के ग्यारह बजे एक अति जीवट वाला व्यक्ति हाथों मे टार्च लिये मध्यम गति से चला जा रहा था। राह मे मिलने वाले सर्पो को स्वयं मार्ग देता और सियार आदि प्राणी स्वयं इसे मार्ग दे देते थे। इसी प्रकार चलते हुये यह व्यक्ति श्मशान मे पहुंच गया। यहां उसे नीलमणि अघोरी से मिलना था। यह व्यक्ति दिन मे भी उससे मिल सकता था। मिला भी था। तब नीलमणि ने उससे आधी रात मे मिलने का निर्देश दिया था। नीलमणि ने शायद सोचा होगा कि आधी रात को कौन आता-जाता है। अर्थात् अपने हिसाब से तो उसने टाल ही दिया था। परंतु यह भी हठ का पक्का निकला। जाकर नीलमणि के सामने हठात् ही खड़ा हो गया। नीलमणि ने इसे देखा, इसने नीलमणि को। नीलमणि की आंखे सुर्ख अंगारे की भांति दहक रही रही थी। शायद वो शराब के नशे मे चूर था। नीलमणि ने इस समय अपनी दुकान सजा रखी थी। एक तरफ मिट्टी का बड़ा सा सरसों के तेल का दिया जल रहा था। नीलमणि के आसन से लगभग तीन फुट की दूरी पर एक मानव खोपड़ी रखी थी। इस खोपड़ी को चारों तरफ से घेरते हुये चार अस्थियां रखी थी। खोपड़ी और अस्थियों पर सिंदूर लगा था। इनके दोनो तरफ दो त्रिशूल ज़मीन मे धंसे हुये खड़े थे। त्रिशूलों पर भी सिंदूर लगा हुआ था। इन सारी व्यवस्थाओं पर गुड़हल के फूल भी चढ़े थे। इनके और नीलमणि के बीच एक हवन कुण्ड था जिसमे अग्नि दहक रही थी। वातावरण मे लोबान की खुशबू तैर रही थी। हवन कुण्ड के एक तरफ एक पात्र मे मदिरा भरी रखी थी और दूसरी तरफ हवन सामग्री, लोबान आदि अलग-अलग पात्रो मे रखे थे। नीलमणि ने हाथ के संकेत से आगंतुक को बैठने को कहा। आगंतुक समीप ही रखे एक आसन पर बैठ गया
नीलमणि माला फेर रहा था। माला पूरी होने पर उसने माला को माथे से लगाया और समीप रखे एक पाटे पर रख दिया।
"तो तू आ गया"
"जी महाराज"
"बहुत जिद्दी है तू"
"जी महाराज"
"हठ छोड़ दे। यह विनाशकारी है ।"
"महाराज आपकी शरण मे हूं। दोषी को दण्ड दिये बिना मुझे चैन नही पड़ेगा।"
"देखता है मुझे समय नही है। मेरा एक-एक पल कीमती है।"
"आपको कोई न कोई मार्ग निकालना ही होगा।"
"तू स्वयं करेगा"
"करूंगा"
"सोच समझ ले। अच्छा बुरा जो होगा तेरा होगा । पाप पुण्य जो होगा तेरा होगा।"
" सोच समझ लिया है। अब जो होना है हो मगर मैं दण्ड दिये बिना नही मानने वाला"
"खैर जैसी महाकाल की इच्छा। बाद मे मुझे दोष मत देना।"
"नही महाराज आपको दोषी ठहराने का कोई औचित्य नही है।"
"ठीक है चल मेरे साथ"
नीलमणि अपने आसन से उठ गये। वह व्यक्ति भी उठ गया। इस श्मशान से थोड़ी दूर पर एक नदी बहती थी। यह स्थान भी श्मशान क्षेत्र में आता था। नदी किनारे पर एक विशाल पीपल का वृझ था। नीलमणि आगंतुक को इसी वृझ के नीचे ले आया।
"डरेगा तो नही"
"नही"
"मैं तेरे चारों तरफ ये घेरा बना रहा हूं। इससे बाहर मत आना। जब तक मैं आकर तुझ से न कहूं तब तक इसी घेरे मे बैठकर जप करना। हो सकता है कि कोई मेरी सूरत बन कर आये। अच्छी तरह समझ बूझ कर ही मेरे आने का विश्वास करना। वैसे मैं तीन बजे से पहले नही आऊंगा।"
कहते हुये नीलमणि ने घेरा बनाया। मंत्र बताया। मंत्र को जपने की विधि बतायी। जप करने मे जो सावधानियां रखनी थी वो बतायी।
"हो सकता है सर्प घेरे के अंदर आ जाये। घबराना नही। सर्प आस-पास घूम टहल कर चला जायेगा। हो सकता है शरीर पर भी चढ़े। परंतु वो कोई अहित नही करेगा। अब मैं जाता हूं। सावधान रहना।"
नीलमणि वापस चला गया।
नीलमणि इस श्मशान मे लगभग दो वर्ष पूर्व आया था। इसका रहन-सहन, दिनचर्या आदि देखकर बस्ती के लोगो ने इसके जीवन यापन हेतु सभी आवश्यक साधन सामग्री जुटाने की व्यवस्था कर दी थी। तब से ये यहीं रहता था। एक छोटी सी कुटिया बना कर दिन भर उसी मे पड़ा विश्राम करता और रात्रि होने पर साधना करता रहता।
नीलमणि के साथ ही इस आगंतुक के बारे मे बताना भी आवश्यक है। ये महाशय बस्ती, जो वास्तव मे तहसील है, के सबसे बड़े सर्राफ है। इनका नाम धनीराम गुप्ता है। इस बस्ती के क्या आस-पास के कस्बो मे भी इन जैसा कोई सर्राफ नही है। कुछ दिनो पूर्व, शायद दस दिनो पूर्व इनकी दुकान मे बहुत बड़ी चोरी हो गयी थी। लगभग दस लाख का सामान चला गया। सामान्यतय: प्रत्येक सर्राफ के यहां बिना लिखा-पढ़ी का काफी सामान होता है। इनके यहां भी था। ये चोरी की शिकायत तो कर सकते थे परंतु इतनी बड़ी चोरी की नही। वो इन्होंने भी की। दस लाख की चोरी की शिकायत मात्र पचास हजार की ही आयी। पुलिस आयी। खाना-पूरी करके चली गयी। चोर न पकड़ा जाना था न पकड़ा गया। धनीराम गुप्ता इतनी बड़ी चोट कैसे सहते। सो ये नीलमणि की शरण मे आ गये। नीलमणि ने इन्हे बहुत समझाया। परंतु इनकी समझ मे न आया । बनियों को रूपया माता-पिता व संतान से भी ज्यादा प्यारा होता है। इन्होंने चोर का मारण करने की ठान ली थी।
साढ़े तीन-पौने चार का समय रहा होगा जब नीलमणि वापस आये। आकर बंधन खोला और धनीराम को साथ लेकर वापस अपने स्थान पर चले आये।
"अब तुम वापस जाओ। रात भर जगे हो। जाकर आराम करो। काम हो जाने पर सूचना देने आना।"
धनीराम वापस लौट गया।
इस घटना के दो दिन बाद ...
धनीराम बुरी तरह विलाप करते हुये आया। नीलमणि उस समय विश्राम को तत्पर थे।
"क्या हुआ? क्यो रोते हो?"
"महाराज मैं तो लुट गया, बर्बाद हो गया"
"क्या हो गया?"
"कल रात मेरा इकलौता पुत्र चल बसा"
"कैसे?"
नीलमणि की भाव-भंगिमा से लग रहा था कि उसे कोई आश्चर्य नही हुआ है।
"कल रात ग्यारह बजे के लगभग वो अपनी गाड़ी से कहीं जा रहा था कि एक ट्रक की चपेट मे आ गया। टक्कर इतनी भीषण थी कि गाड़ी के परखच्चे उड़ गये। बेटा वहीं चल बसा।"
"दुखी हो! शायद तुम्हें लगे कि मैं ऐसे समय पर तुम्हें संतावना देने के बजाय इस तरह की बात क्यो कर रहा हूं। परंतु मैं संन्यासी हूं। दुनियादारी से मुझे क्या लेना देना। मैने तुम्हें बार-बार समझाया था कि इस चक्कर मे मत पड़ो। परंतु तुम्हें तो रूपया अधिक प्यारा है। किसी की जिंदगी या भले बुरे से तुम्हें क्या लेना देना। भले आदमी इतना ही सोच लिया होता कि जिस पर तुम्हें चोरी का संदेह था वो भी किसी माँ का बेटा है। अच्छा चल बता तेरा बेटा ही क्यो मरा? क्या उसने चोरी की थी? और देख सच बोलना अन्यथा मैं इस खोपड़ी से सच का पता लगा लूँगा तब तुम्हारे लिये और भी कठिनाई हो जायेगी।"
"चोरी उसी ने की थी"
"उसे चोरी की क्या जरूरत आ पड़ी?"
प्रत्युत्तर मे जो धनीराम ने बताया वो नीलमणि के लिये तो नही पर सामान्य जन के लिये चौंकाने वाला अवश्य था। धनीराम का एकमात्र पुत्र था जयेन्द्र। अन्य न कोई बेटा न बेटी। एकमात्र होने के कारण जयेन्द्र काफी लाड़-प्यार से पला था। लाड़-प्यार की अधिकता ने किशोर वय मे ही जयेन्द्र को गलत मार्ग पर ड़ाल दिया। युवावस्था तक आते आते जयेन्द्र हर बुरे कर्म करने लगा था। वेश्यागमन, जुआ, नशेबाजी। हर बुरे कर्म मे उसका दखल हो गया था। नशेबाज ऐसा कि समाज मे प्रचलित शायद ही कोई ऐसा नशा हो जिसका उसने सेवन न किया हो। इस चक्कर मे वो बाजार से कर्ज भी ले लिया करता था। बाजार के लोग भी धनीराम का बेटा होने के कारण उसे कर्ज दे दिया करते थे। बाद मे वो घर या दुकान से पैसे चुरा कर कर्ज चुका दिया करता था। इससे पूर्व उसने छोटी-मोटी चोरियां ही की थीं। एकाध बार पकड़ा भी गया तो लाड़-प्यार की अधिकता या चोरी की बात से मुकर जाने के कारण साफ बच निकला था। इस बार उसने लम्बा हाथ मारा था। कारण- इस बार उस पर काफी कर्ज हो गया था। कर्ज देने वाले एकाध बार उगाही के लिये भी आ चुके थे। सो उसने मौका पाते ही हाथ साफ कर दिया। चोरी किये माल को तत्काल औने-पौने भाव मे बेचकर अपना कर्ज चुका दिया। शेष जो धन बचा वो जुए और वेश्यागमन मे उड़ा दिया।
धनीराम को जब चोरी का पता तो उसका तत्काल ध्यान उसके यहां काम करने वाले एक सेवक पर गया। धनीराम ने अपना संदेह पुलिस वालो को बताया भी। पुलिस ने अपने हिसाब से पूछ-ताछ भी की। दो तीन दिन उसे थाने पर भी रोक कर रखा। परंतु साक्ष्य के अभाव मे उसे छोड़ भी दिया। सेवक ने भी पुलिस से छूटते ही धनीराम की नौकरी छोड़ दी। इससे धनीराम का संदेह और भी पुष्ट हुआ। पुलिस और पुलिस की जांच-पड़ताल मे भरोसा न कर धनीराम ने ये मार्ग पकड़ा। परिणाम सामने था।
"तूने अपनी मूर्खता मे अपना एकमात्र पुत्र गवां दिया। यदि तूने एक निरपराध को दण्ड देने की हठ न ठानी होती तो आज तेरा पुत्र जीवित होता। जैसा भी था तेरा पुत्र था। आज बिगड़ा था। हो सकता है कल को सुधर जाता। परंतु तुझे न तो इतना विश्वास था और न ही इतना धैर्य। अब तू इतना और सुन ले, मैने तुझे जप करवाते समय चोरी करने वाले की मृत्यु का संकल्प कराया था न कि किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु का। खैर अब तू यहां से उठ और जीवन मे कभी मुझे दोबारा अपना चेहरा न दिखाना। और कोशिश ये करना कि जो पाप तुझसे हो गया है उसका प्रायश्चित कर ले। अब उठ और जा यहां से।"
धनीराम कुछ सेकेंड शान्त रहा फिर पुन: बोला-
"ठीक है। जो मेरे भाग्य मे था वैसी मेरी बुद्धि हो गयी। विदा करने से पूर्व बस इतना और बता दीजिए कि मेरे ही पुत्र ने चोरी की है ये आपको पहले से पता था।"
"नही। हम लोग इन चक्करों मे नही पड़ते।"
धनीराम वापस लौट गया।
इस घटना के कुछ ही दिनो के बाद अघोरी भी न जाने कहां चला गया।