Deepak Kaushik

Drama Tragedy

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Deepak Kaushik

Drama Tragedy

ये कहां आ गए हम

ये कहां आ गए हम

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वो रात अनिका के जीवन की सबसे काली रात थी जब अनिका ने अपने माता-पिता को सफेद कपड़ो मे सर से पांव तक लिपटे हुए देखा था। पहले-पहल तो अनिका को कुछ समझ नही आया कि क्या हो गया है। फिर जब समझ आया तो रोने का मन नही हुआ। उस समय अनिका मात्र चौदह वर्ष की थी और उसका छोटा भाई मात्र सात वर्ष का। एक झटके मे ही अनिका एक अल्हड़ किशोरी से एक जिम्मेदार स्त्री बन गयी। यूं उसकी सरपरस्ती के लिये उसके चाचा-चाची आ गये थे और वे दोनो उसे और उसके भाई विशू को अनिका के माता-पिता के संस्कार के बाद अपने घर ले गये थे। फिर भी अनिका ने अपने भाई की जिम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर ही रखी। सात वर्ष के विशू को स्कूल मे दाखिल कराना, उसे पढ़ाना-लिखाना, उसकी ड्रेस, कापी-किताबे, कपड़े, खिलौने सभी कुछ का खर्च अनिका ने स्वयं उठाया। इसके लिये उसने छोटी-मोटी ट्यूशन पकड़नी शुरू की। चाची ने पहले तो उसे बड़े प्यार से रखा फिर धीरे-धीरे उस पर कहर ढ़ाना शुरू किया। पहले उसे घर के काम-काज मे लगाया। फिर ताने मारने शुरू किये। फिर गाली-गलौज और फिर मारपीट। चाचा का स्नेह अनिका पर था। परंतु वे अपनी गृह-लक्ष्मी के आगे बेबस हो जाते थे। यहां तक भी ठीक था।


अनिका के जीवन की दूसरी काली रात तब आयी जब वह सोलह वर्ष की हुयी थी। तब उसकी चाची ने उसे एक लाख रू० के बदले एक रात के लिये किसी सेठ के हाथ बेच दिया। अनिका सेठ के आगे खूब रोयी गिड़गिड़ायी। मगर सेठ ने उसे नही छोडा। सारी रात नोचता रहा। उस रात अनिका एक बालिका से एक प्रौढ़ नारी बन गयी। दूसरे दिन सुबह सेठ का ड्रायवर अनिका को उसके घर छोड गया। अनिका जब सेठ की गाड़ी से उतरी तब उसके पैर जमीन पर सीधे नही पड़ रहे थे। डगमगाते कदमों से किसी तरह घर के अंदर आयी। घर मे पहुंचते ही उसका सामना उसकी चाची से हुआ। उसकी चाची के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थी। उसका मन हुआ कि अपनी चाची का मुंह नोच ले। मगर ना जाने क्या क्या सोचकर शांत रही और बिस्तर पर जाकर कटे पेड़ की भांति गिर कर रोने लगी। रोते-रोते न जाने कब उसे नींद आयी और वो गहरी नींद सो गयी।


अनिका जब जागी उसका रोंया-रोंया टीस रहा था। आंखे खुलने के बावजूद भी चुपचाप पड़ी रही। मन मे न जाने क्या-क्या विचार आते रहे। एक विचार यह भी आया कि जब उसकी देह इतनी कीमती है ही तो क्यो न वो स्वयं इसका उपयोग करे। अपने देह की कीमत किसी अन्य को क्यो दे। देह उसकी नष्ट होगी मजा दूसरे क्यो मारे।


इस समय शाम के पांच बज चुके थे। अनिका उठी। अपना मुंह धोया। कपड़े बदले और घर से बाहर निकली। निकलते समय चाची ने टोका-

"कहां चली?"


इस समय अनिका को अपनी चाची किसी डायन से कम नही लग रही थी। लेकिन अभी वो किसी तरह का झगड़ा मोल लेने के पक्ष मे नही थी।

"अभी आती हूं।" कहकर अनिका घर से निकली। सीधे अपने चाचा के पास पहुंची उसके चाचा एक छोटे-मोटे मोटर गैराज के मालिक थे।


"चाचा आपसे कुछ बात करनी है।"


"आओ।" चाचा उसे अपने चैम्बर मे ले गये।


"हां कहो क्या बात है?"


"चाचा आपको मालूम है कल चाची ने मेरे साथ क्या किया है।"


"क्या किया है? कल रात तुम्हे घर पर न पाकर मैने उससे पूछा तो उसने कहा था कि तुम अपनी किसी सहेली के घर शादी समारोह मे गयी हो। सुबह तक आ जाओगी।"


"चाची ने मुझे एक सेठ के हाथ बेच दिया था। मै रात भर उस सेठ के बेडरूम मे थी।" कहते हुए अनिका रो पड़ी।

"क्या? इतनी नीच हो गयी है वो। आज मै उसका खून पी जाऊंगा।" चाचा की आंखे क्रोध से लाल हो गयी।


"चाचा आप जो चाहे कीजिये मगर अब मै आपके घर नही रहूंगी।"


"तो कहां जायेगी बेटा। ये दुनिया अकेली लड़की को जीने नही देती।"


"जो अपनो ने किया उससे ज्यादा और क्या करेगी।"


"ठीक है बेटा। मै तुम्हारे लिये कही अलग घर खोज देता हूं।"


"वो भी मै खोज लूंगी।"


"शायद तुम अपने चाचा से भी नाराज हो।"


"नही! लेकिन अब मै अपने पैरो पर खड़ी होना चाहती हूं। बिना किसी का अहसान लिये।"


"मै तुम पर कोई अहसान नही करूंगा। अपना फर्ज पूरा करूंगा।"


"मै उससे भी आपको मुक्त करती हूं।" कहकर अनिका उठकर चली आयी। चाचा ने रोकने की बहुतेरी कोशिश की मगर उसने जो ठान लिया तो ठान लिया।


अनिका वापस घर पहुंची। सीधे अपनी चाची की तरफ चली। चाची अपने कमरे मे अपनी आलमारी के सामने खड़ी कुछ कर रही थी। अनिका चाची के पीछे जा खड़ी हुयी। अपने पीछे किसी की आहट पाकर चाची पीछे मुड़ी। चाची कुछ कहती इससे पहले ही अनिका ने झपट कर चाची के बाल पकड़ लिये और एक जोरदार झटका दिया। चाची सीधे दीवार से जा टकरायी। माथा फट गया। माथे से खून की धारा बह निकली।


"चुपचाप पड़ी रह कुतिया। कोई हरकत की या मुंह से एक शब्द भी निकाला तो तेरे हक मे ठीक नही होगा।"


चाची ने अभी तक उसका सौम्य रूप ही देखा था। इस समय उसे चण्डी रूप मे देखकर उनके पुरखो के भी बैण्ड बज गये। चाची चुपचाप पड़ी देखती रही। अनिका ने आलमारी से एक एक सामान निकाल कर फेकना शुरू किया। ज्यादातर कपड़े ही थे। कपड़ो के नीचे दबे हुए ५०० के नोटो की दो गड्डियां मिली। अनिका ने उसे अपने पास रखा। पुन: ५०० की एक गड्डी और मिली।


अनिका ने उसे भी रख लिया। चाची बड़ी हसरत से नोटो को देख रही थी। अभी कुछ देर पहले तक ये नोट उसके अपने थे। जिनसे वो आलमारी के पास खड़ी खेल रही थी। अनिका तीनो गड्डी लेकर कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ी। जाते-जाते चाची को एक बार देखा। उसका खून पुन: खौल उठा। उसने जाते-जाते अपने पैरो की दो-चार जोरदार ठोकर और मार दी। चाची बिलबिला उठी। चाची के कमरे से बाहर निकलते ही अनिका ने कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया।


अनिका छोटे भाई विशू, एक बड़े से सूटकेस मे अपने कपड़े और डेढ़ लाख रू० लेकर घर से निकली। भाई और सूटकेस को अपनी एक सहेली के घर छोड़कर अनिका सीधे उसी सेठ के पास जा पहुंची जिसके बेड़रूम मे पहले ही एक रात व्यतीत कर चुकी थी। सेठ के बंगले पर पहुंच कर सबसे पहले उसकी भेंट सेठ के ड्रायवर से हुयी। ड्रायवर उसे देख पहले तो चौंका। लपकता हुआ अनिका के पास आया।


"तुम यहां क्यो आयी हो?"


"तेरे सेठ से मिलने। जाकर अपने सेठ को सूचना दे।"


"वो इस समय नही मिल सकते। मीटिंग मे है।"


"तू सूचना दे। नही तो मै सीधे उसकी मीटिंग मे पहुंच जाऊंगी। और तू चाह कर भी मुझे रोक नही पायेगा।"


अनिका ने थोड़ी तल्खी से कहा। ड्रायवर उसका यह रूप देखकर सहम गया। सेठ का राजदार था। इसलिये वो किसी भी समय कभी भी सेठ से मिल सकता था। वो घबराया सा मीटिंग मे पहुंच गया। कान मे फुसफुसाते हुये सारी बात बतायी। सेठ ने कहा- "ठीक है। उसे बिठाओ| ठंड़ा पिलाओ। मै पन्द्रह मिनट मे आता हूं।"


ड्रायवर वापस आकर अनिका की खातिरदारी मे लग गया। आधे घंटे बाद सेठ ने अनिका को अपने चैम्बर मे बुलाया।


"तुम्हारे पैसे तो मैने पहले ही चुका दिये थे। अब क्या लेने आयी हो?"


अनिका ने कोई जवाब नही दिया। बस एकटक घूरती रही।


"समझा। शायद तुम और पैसे चाहती होगी।"


कहकर सेठ ने अपना ब्रीफकेस खोला, ५०० की एक गड्डी निकाली और अनिका के सामने डाल दी। अनिका ने न तो गड्डी की तरफ हाथ बढ़ाया और न ही सेठ को घूरना बंद किया।


"क्या ये भी तुम्हे कम लग रहे है। कोई बात नही और ले लो। मगर इससे ज्यादा नही दे पाऊंगा। बस मेरे पास यही आखिरी गड्डी है।" कहते हुए सेठ ने ५०० की एक गड्डी और अनिका के सामने डाल दी।


पुरूष जब इन्द्रियो का दास हो जाता है तब उसे तमाम तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं से बचने के लिये उसे तरह-तरह का नुकसान भी उठाना पड़ता है। उसी जगह एक स्त्री जब अपनी पर आती है तब संसार की कोई भी शक्ति उसके सामने नही टिक सकती।


अब अनिका मुस्कुरायी। दोनो गड्डियों को उठाकर अपनी पर्स मे डाल लिया।


"मै यहां आप से पैसे लेने या आप को ब्लैकमेल करने नही आयी थी। मै तो आप से यह कहने आयी थी कि मेरी चाची और आप ने मुझे जिस रास्ते पर डाल दिया है, अब मै उसी रास्ते पर चलना चाहती हूं। और आप मुझे रास्ता दिखायेंगे।"


"लेकिन मै ये काम कैसे कर सकता हूं। मै कोई दलाल नही हूं।"


"लेकिन खरीदार तो है। एक खरीदार सैकड़ो दलालो से परिचित होता है और एक दलाल सैकड़ो खरीदारो से। आपके लिये ये काम कठिन नही है।"


सेठ अभी तक डर रहा था कि सामने बैठी लड़की किसी तरह का दबाव न बनाये। दबाव के डर से ही उसने अनिका को एक लाख रूपयो का अतिरिक्त भुगतान कर दिया था। अब उसकी बात सुनकर उसकी जान मे जान आयी। समाज मे प्रतिष्ठा बनी रहे रूपये तो बहुतेरे आ जायेंगे।


"अच्छी बात है, तुम्हारा काम हो जायेगा। और कोई सेवा।"


"इस समय मेरे पास रहने का कोई स्थान नही है। फिलहाल मुझे कुछ दिनो के लिये सर छुपाने की जगह चाहिये।"


"समझो वो भी हो गया। मेरा एक फ्लैट खाली पड़ा है। ड्रायवर तुम्हे वहां तक छोड आयेगा।" कहकर सेठ ने अपने ड्रायवर को बुलाया। अनिका को उसके सुपुर्द कर दिया।


अनिका अभी सोलह वर्ष की थी। अद्वितीय सुंदरी थी। इसलिये देह व्यापार के बाजार मे स्थापित होने मे उसे अधिक समय नही लगा। जब वह सत्रह वर्ष की हुयी तब तक वो देश की हाई प्रोफाईल काल-गर्ल्स मे एक थी। इस एक वर्ष मे उसने अपना फ्लैट खरीद लिया था। भाई के नाम एक खाता खोलकर उसमे अच्छी खासी रकम जमा कर दी थी। अब उसे विशू के कुछ और बड़े हो जाने की प्रतीझा थी। ताकि उसे किसी हास्टल मे डालकर उसे अपनी छाया से भी दूर कर सके।


सात वर्ष बीत गये। अनिका और भी ज्यादा निखर आयी थी। विशू अब पन्द्रह वर्ष का हो गया था। पिछले वर्ष ही उसने विशू को देश के एक प्रतिष्ठित विद्यालय मे भर्ती करा दिया था। अब विशू उसी विद्यालय के हास्टल मे रहता था। आजकल अनिका को निरन्तर ज्वर रहने लगा था। बहुत इलाज करवाने के बाद भी जब ज्वर नही उतरा तब डा० की सलाह पर उसने अपना ब्लड टेस्ट करवाया। रिपोर्ट आने पर अनिका के पैरो के नीचे से जमीन खिसक गयी। उसे एड्स हो चुका था। हालांकि अनिका अब तक लाखो रूपये कमा चुकी थी। भाई के भविष्य के प्रति भी आश्वस्त थी। फिर भी विशू अभी भी छोटा था। ईश्वर यदि उसे चार-पांच वर्ष का समय और दे देता तो फिर उसे कोई चिन्ता नही थी। विशू को सब कुछ समझा कर आसानी से मर जाती। जीवन अभी उसे मरने की अनुमति नही दे रहा था। मगर ईश्वरीय विधान मनुष्य की इच्छाओं और आवश्यकताओं से संचालित नही होते। ईश्वर की सारी गणित, सारे विधान उसके अपने नियमो के आधार पर चलते है।


एक बार तो अनिका के मन मे विचार उठा कि जिस समाज ने उसे ये प्राणघाती बीमारी दी है। उस समाज को वो इस बीमारी को लौटाती रहे। समाज इस लायक नही कि उसके साथ सहानुभूति रखी जाय। परंतु फिर उसकी अन्तरात्मा ने उसे समझाया कि ऐसा करना उचित नही होगा। माना कि उसकी देह को भोगने वाले पापी हो पर उनकी पत्नियो और आने वाली संततियो का क्या दोष। लोगो को यह रोग बांटने पर उनके साथ उनके परिवार भी नष्ट होंगे। अनिका ने बहुत कुछ सोचा और इस कार्य को प्रणाम कर लेने का प्रण कर लिया।


अनिका के पास मात्र कुछ ही समय शेष था। किसी भी पल मृत्यू उसे अपने पाश मे जकड़ सकती थी। उसने अपनी और विशू की सारी सम्पत्ति की गणना की। लगभग साढ़े छह वर्ष पूर्व खरीदा गया उसका ये फ्लैट आज डेढ़ से दो करोड़ के मध्य का था। विशू के खाते मे पचास लाख रूपये थे। उसके अपने खाते मे सत्तर लाख रूपये थे। यानी लगभग ढ़ाई-तीन करोड़ रूपयो का स्वामित्व विशू के पास था। लेकिन यदि वो दो तीन या छह माह मे मर जाती है तो विशू धरती पर अकेला-असहाय होगा। न जाने वो इस सम्पत्ति को संभाल भी पायेगा या नही। बहुत सोच समझ कर उसने निर्णय लिया। एडवोकेट भटनागर, नगर के सबसे धनाढ्य व्यक्ति अग्रवाल जी और समाज सेवक शुक्ला जी को मिलाकर एक ट्रस्ट बना दिया। इन तीनो से उसका परिचय विभिन्न समारोहो के दौरान हुआ था। तीनो उसके ग्राहक नही थे। तीनो का उस पर पिता तुल्य स्नेह था। हालांकि तीनो ही उसके मूल व्यवसाय से परिचित थे। फिर भी इन तीनो ने कभी उसे वासना की दृष्टि से नही देखा था। एडवोकेट भटनागर ने उसकी वसीयत तैयार की। वसीयत के अनुसार अनिका ने इन तीनो को विशू का स्थायी संरझक बना दिया था। सारी सम्पत्ति विशू के नाम थी। अठारह वर्ष की आयु तक विशू की सारी आवश्यकताएं इन तीनो को सम्मिलित रूप से पूरी करनी थी। उसके बाद विशू को सम्पत्ति का पूरा अधिकार मिल जाना था। लेकिन अभी भी तीनो को यह अधिकार भी था कि वे जब चाहे विशू को अनावश्यक व्यय से रोक सके। इसका कारण अनिका ने यह सोचा कि ऐसा करने से न केवल विशू अपव्यय से बचेगा अपितु अपने संरझको की बात भी सुनेगा और उनका सम्मान भी करेगा।


जिस दिन अनिका की वसीयत न्यायालय मे रजिस्टर्ड हुयी उस दिन अनिका ने चैन की सांस ली। न्यायालय से लौटते समय अनिका का मन अति शांत था। जिस टैक्सी से वह लौट रही थी, उसमे सीडी लगी थी। गाना बज रहा था, 'ये कहां आ गये हम, यूं ही साथ-साथ चलते।' अनिका को लगा शायद ये गाना उसी के लिये बज रहा है। मगर नही, वो तो अकेली थी। नितान्त अकेली। हां! चलते-चलते वो किस मोड पर आ गयी थी। ये वो नही जानती थी।

।।इति‌‌।।


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