Deepak Kaushik

Drama Horror Tragedy

3.9  

Deepak Kaushik

Drama Horror Tragedy

भय बिनु होय न प्रीति

भय बिनु होय न प्रीति

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323


बात जरा पुरानी है। अस्सी के दशक का अवसान था। केवल दशक का ही नहीं; वर्ष का भी अवसान था। दिसम्बर माह की बारहवीं तारीख थी। शीत लहर अभी शुरू नहीं हुई थी मगर उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। रातें इतनी तो ठंडी हो ही चुकी थीं कि रात नौ बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा पसरने लगा था। मगर ये सर्दी उन जगहों पर अपना आतंक पैदा नहीं कर पा रही थी जहां कोई विवाह समारोह आयोजित हो रहा था। जी हां! सहालकों का जोर था। शहर के हर हिस्से में शादियों का धूम-धड़ाका मचा हुआ था। ऐसी ही एक शादी थी- सुषमा वेड्स अजीत। मंच पर दुल्हा-दुल्हन ने एक-दूसरे को जयमाला पहनाई। फोटो सेशन चला। आगंतुकों ने वर-वधू को आशीर्वाद दिया। भोज का आनंद लिया। करीबी संबंधियों को छोड़कर अन्य अतिथि वापस लौट गए। रात भर विवाह के रीति-रिवाज सम्पन्न होते रहे और अंततः वधु सुषमा अपने पिया के साथ एक नई दुनिया में, नई दुनिया बसाने विदा हो गई।


सुषमा का परिवार एक मध्यमवर्गीय परिवार था। परिवार का आकार भी छोटा नहीं था। सुषमा पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर की थी। लगातार चार बहनों के बाद सबसे छोटा एक अकेला भाई था। सुषमा की दादी और एक अविवाहित बुआ भी इनके परिवार का हिस्सा थीं। पिता कचहरी में मुंशी थे। उनकी आय इस बड़े आकार के परिवार को पालने के बाद इतनी ही शेष बचती थी कि उन्हें अपनी संतानों को पार लगाने के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। सुषमा भले ही चार बेटियों के बाद इकलौते भाई की बहन हो, मगर उसके पिता ने कभी अपने बेटे-बेटियों के साथ भेदभाव नहीं किया। उन्होंने अपनी बेटियों को उतना ही प्यार सम्मान दिया जितना अपने बेटे को दिया। आज उन्होंने अपनी दूसरी आंख की पुतली को उसका सुनहरा संसार बसाने के लिए खुद अपने हृदय पर पत्थर रखकर विदा कर दिया। 


सुषमा ने एक नये संसार में पैर रखा। इस नये संसार में सास थी, दो अविवाहित नन्दें थीं, एक देवर और स्वयं उसका पति अजीत। स्पष्ट है कि सुषमा सास और पति के बाद सबसे बड़ी थी। ससुराल के रीति-रिवाज पूरे किए जाने लगे। लेकिन इन रीति-रिवाजों में सुषमा को एक बात खटकने लगी। रीति-रिवाज मशीनी ढंग से निभाये जा रहे थे। उसकी सास और पति खुश नहीं लग रहे थे। मगर संबंधियों और अन्य अतिथियों के कारण खुलकर कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे। मगर सुषमा अपने मन की शंका किसी से साझा भी नहीं कर सकती थी। माहौल पूरी तरह अपरिचित था। सभी अपने होकर भी अंजाने थे। अभी अगर वो किसी पर विश्वास कर सकती थी तो वो उसका पति अजीत ही था। सुहाग सेज पर उसने दबी जुबान से पूछा भी-

"आप कुछ अनमने से लग रहे हैं।" 

"कुछ नहीं, थकान है।"

पति ने बात टाल दी। सुषमा को कुछ संतोष तो हुआ मगर मन के किसी कोने में एक धुआं बना रहा। इस धुएं की चिंगारी बहुत समय तक छिपी नहीं रही। अभी उसके हाथों की मेहंदी भी नहीं छूटी थी कि सास और पति ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। 

"ये चाय है या धोवन!" 

कहते हुए सास ने सुषमा के हाथ की बनी चाय कप सहित फर्श पर फेंक दी। जहां कप और प्लेट किर्ची-किर्ची होकर बिखर गए वहीं सुषमा के पैरों पर गर्म चाय गिरने से पैर भी जल गए। बाद में वही चाय उसके देवर ने, जो घर में सबसे छोटा था, पी, उसने चाय की भूरि-भूरि प्रशंसा की। ...और तब उसे अपनी सास की कुचाल का प्रथम आभास हुआ। उसी शाम एक छोटी सी बात को लेकर अजीत ने सुषमा पर हाथ छोड़ दिया। सुषमा लड़खड़ा कर गिरी। उसका माथा अलमारी के कोने से टकराया और उसके माथे पर गुम्मड़ उभर आया। सुषमा हैरान थी कि आखिर उसकी सास और पति उसके साथ इतना क्रूर व्यवहार क्यों कर रहे हैं? बिना किसी गलती के ही उसे क्यों सजा दी जा रही है? सप्ताह भर भी नहीं बीता था- सुषमा को अपनी सास और पति की क्रूरता के पीछे का कारण पता चल गया। सास और पति ने सुषमा के साथ दहेज में पचीस हजार रुपए नगद की आशा बांध रखी थी- जो उसके पिता की तरफ से पूरी नहीं की गई। सास ने सोच रखा था कि चूंकि समधी कचहरी में मुंशी हैं तो बिना मांगे कम से कम पच्चीस हजार रुपए तो दे ही देंगे। मगर समधी जी ने बर्तन-भांड़े तो दिए, काम-चलाऊ मात्रा में गहने भी दिए, अलमारी-सोफा आदि फर्नीचर भी दिए मगर नगद के नाम पर एक हजार एक रुपए पकड़ा कर इतिश्री कर ली। बस यही खुन्नस सुषमा से निकाली जा रही थी। 


सुषमा की शादी को एक वर्ष बीत चुके थे। सास और पति का अत्याचार अभी भी जारी था। एक दिन अजीत कार्यालय जाने के लिए तैयार हो रहा था। उसने देखा उसकी कमीज का एक बटन टूटा हुआ था। वो पहले तो सुषमा पर चिल्लाया फिर उसने सुषमा को मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि... यह क्या? उसका हाथ हवा में उठा का उठा ही रह गया। जैसे किसी ने बलपूर्वक पकड़ रखा हो। फिर उसके हाथों को एक जोरदार झटका लगा और अजीत हवा में उड़ते हुए कमरे की दीवार से जा टकराया। 

"हरामजादी! मुझ पर हाथ उठाती है। मुझे धक्का देती है।"

अजीत की समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब कैसे हो रहा है। उसे तो सिर्फ सुषमा को प्रताड़ित करना था। वो पुनः सुषमा की तरफ लपका। मगर जैसे ही उसने अपने पैर आगे बढ़ाए धड़ाम से मुंह के बल गिरा। जैसे उसे किसी ने लंगड़ी मारी हो। उसकी नाक और दाहिनी भौ पर चोट लगी। एक पल के लिए तो उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मगर इस बार उसे ये निश्चय हो गया कि उसे फेंकने या गिराने वाली सुषमा नहीं है। लेकिन अभी भी उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ ये सब कैसे घट रहा है, कौन उसे फेंक या गिरा रहा है। हां! इस बार वो सहम अवश्य गया था। इधर सुषमा भी हैरान थी कि अचानक ये सब कैसे घट रहा है। इसके बाद अजीत ने सुषमा से कुछ भी नहीं कहा चुपचाप अपने कार्यालय चला गया। 


उसी दोपहर सुषमा की सास सुषमा से अपने पैर दबवा रही थी। 

"हाथों में दम नहीं है क्या? खाने को तो ढाई मन खाती है। मगर काम करते बखत नानी मरती है। पैर दबा रही है कि सोहरा रही है।"

कहते हुए सुषमा को लात मारने की कोशिश की। मगर जैसे ही उसने लात मारने के लिए अपने पैर समेटे उसका पैर बुरी तरह अकड़ गया। बुरी तरह छटपटा कर रह गई सुषमा की सास। 

अब ये किस्सा आए दिन घटने लगा। अजीत मारने की कोशिश करता तो खुद वो ही चोट खा जाता। सास कभी चोट खाती तो कभी उसका शरीर नाकाम हो जाता। होते-होते सुषमा के ससुराल वालों को लगने लगा कि सुषमा जादू-टोना जानती है। एक बार सुषमा की सास किसी तांत्रिक बाबा को बुला लाई। तांत्रिक बाबा ने पहले तो स्पष्ट किया कि सुषमा के पास ऐसी कोई विद्या नहीं है। फिर बाद में बताया कि उसके घर पर किसी ब्रह्मराक्षस का साया है। और वो ब्रह्मराक्षस किसी के काबू में आने वाला नहीं है। बहरहाल वो तांत्रिक हनुमान जी की शरण में जाने की सलाह देकर विदा हो गया। 

मगर एक सामान्य मनोविज्ञान है कि लोगों पर अच्छे उपदेश- अच्छी सलाह का असर जल्दी नहीं होता परन्तु गलत उपदेश या गलत सलाह का असर बहुत जल्दी और ज्यादा प्रभावशाली ढंग से पड़ता है। यहीं हाल सुषमा के पति और सास का हुआ। अब उनके घर पर बाबाओं और तांत्रिकों का जमघट लगने लगा। लेकिन इन बाबाओं और तांत्रिकों में सही कितने थे? शायद एक प्रतिशत! या शायद उससे भी कम। बाबा आते, कुछ ढ़ोंग करते, एक मोटी रकम वसूल करके चलते बनते। इन सबसे और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, सुषमा की परेशानी बढ़ गई। कोई बाबा उसे मंत्र पढ़कर राई के दाने मारता, तो कोई मिर्चें की धूनी देता, तो कोई उसे चुड़ैल बताकर उसके हाथ-पांव बंधवाकर छड़ी या कोड़े से पीटता। हालांकि जब कोई भी व्यक्ति, चाहे वो उसकी सास या पति हो चाहे कोई बाबा, उसे मारने-पीटने की कोशिश करता तो उसकी भी वैसी ही दशा हो जाती। अर्थात या तो वो चोट खाता या फिर उसका शरीर नाकाम हो जाता। लेकिन मंत्रों और अन्य तांत्रिक क्रियाओं के साथ ऐसा नहीं होता। मगर इससे क्या? इससे सुषमा का भूत तो नहीं भागता अलबत्ता सुषमा को जरूर शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलना पड़ता। भूत तो तब भागता जब कोई भूत होता। मंत्रों की शक्ति से भूत भागते हैं, अच्छे-भले इंसान नहीं। बहरहाल सुषमा का शरीर ढलने लगा। सूखकर कांटा हो गई। एक दिन किसी बाबा ने उसकी इतनी ताड़ना की कि उसके शरीर में चलने की ताकत भी नहीं रही। धुएं से उसकी आंखें सुर्ख लाल हो गई थीं। वो अपने कमरे में पड़ी रो रही थी कि अचानक कमरे में एक आवाज गूंजी-

"बेटा सुषमा!"

सुषमा ने अपने कमरे में चारों तरफ दृष्टि घुमाई। कहीं कोई भी नहीं दिखाई दिया।

"इधर देखो, शीशे में।"

कमरे में एक लोहे की अलमारी थी। अलमारी के एक पल्ले पर शीशा जड़ा हुआ था। सुषमा ने शीशे में देखा। देखते ही चौंक पड़ी। उसके ठीक पीछे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष खड़ा था। उसके कमरे में उसके पति और देवर के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का आना असंभव था। तो फिर ये कौन था? उसके कमरे में कैसे आ पहुंचा? सुषमा ने झटके से पीछे मुड़कर देखा। मगर उसके पीछे तो कोई भी नहीं था। आश्चर्य! शीशे में प्रतिबिंब दिख रहा था। मगर प्रतिबिंब वाला व्यक्ति अदृश्य था। सुषमा को डर के मारे गश आ गया। कुछ पलों बाद जब सुषमा की आंख खुली तो सामने एक और आश्चर्यजनक दृश्य था। हवा में पानी का जग लटका हुआ था, उसके चेहरे पर पानी की बूंदें थीं, मानो किसी ने उसके चेहरे पर जग से लेकर पानी के छींटें मारे हों। उसके होश में आने के बाद जग वापस अपने स्थान पर पहुंच गया।

"बेटा सुषमा! मुझसे डरो मत। मुझे अपने पिता समान समझो। मैं तुम्हारी सहायता करने आया हूं।"

"लेकिन आप हैं कौन?" 

सुषमा का भय कुछ हद तक दूर हुआ। उसने साहस करके पूछ ही लिया।

"मैं एक ब्रह्मराक्षस हूं। वर्षों पहले मैंने अपनी प्राण प्यारी बेटी इन दहेज लोभी राक्षसों के हाथों गंवा दी थी तब मैंने प्रण लिया था कि मैं तुम्हारी जैसी दहेज पीड़ित बेटियों की रक्षा करूंगा। तब से मैं इस प्रण का निर्वाह कर रहा हूं। कई बेटियों को बचा चुका हूं। अब मेरी दृष्टि तुम पर पड़ी है। इसलिए मैं तुम्हारी रक्षा कर रहा हूं।"

"आपने अपनी बेटी गंवाई थी? कैसे? क्या आप मुझे बता सकते हैं?"

"हां! हां! क्यों नहीं।... बात तब की है जब भारत देश में अंग्रेजों का शासन था। भारतीय स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्षरत थे। पूरे देश में कहीं हिंसक तो कहीं अहिंसक आंदोलन चल रहे थे। मगर मुझे किसी आंदोलन में कोई रुचि नहीं थी। ब्राह्मण कुल में जन्मा था इसलिए ईश्वराधन में मेरी विशेष रुचि थी। ईश्वर की कृपा भी मुझे प्राप्त थी। मेरी एक ही संतान थी। मेरी बेटी कृपा। मेरी पत्नी तब उसे मेरी गोद में डालकर इस असार संसार से विदा हो गई थी जब वो दुधमुंही बच्ची थी। इस तरह मैं ही उसका पिता था, मैं ही माता। मैंने उसे अपनी आंख की पुतली की तरह पाला था। उन दिनों लड़कियों की शादी बहुत कम आयु में कर दी जाती थी। मैंने भी अपनी बेटी की शादी तेरह वर्ष की अवस्था में कर दी। उन दिनों शादी के बाद गौने का रिवाज था। पन्द्रह वर्ष की आयु में मैंने उसका गौना भी कर दिया। उसे उसकी ससुराल भेज कर मैं तीर्थ यात्रा करने निकल गया। तीन वर्षों तक मैं इस तीर्थ से उस तीर्थ घूमता रहा। एक दिन अचानक मुझे मेरे चचेरे भाई का तार मिला। 'तुरंत वापस आओ।' तार पाते ही मैं वापस लौट पड़ा। घर पहुंच कर सबसे पहले मैं अपने चचेरे भाई से मिला। मैंने उससे तार देने का कारण पूछा। उसने जो बताया उसे सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मेरी कृपा अस्पताल में भर्ती थी। मेरे भाई ने बताया कि कृपा के ससुराल वालों ने उसे बुरी तरह जला दिया है। वो लोग तो उसे जिंदा जमीन में गाड़ देना चाहते थे। मगर उसके पड़ोसियों ने कुछ समाज सेवकों के साथ मिलकर उसे न केवल ससुराल वालों से बचाया बल्कि उसे अस्पताल में भर्ती भी कराया। कृपा की दुर्दशा सुनकर मैं अस्पताल भागा। लेकिन जब मैं अस्पताल पहुंचा तब तक मेरी कृपा मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी। उसका मुर्दा चेहरा मैं देख नहीं पाया। मैं एक बार मूर्छित होकर जो गिरा तो दुबारा नहीं उठा। कुछ समय तक तो मैं समझ ही नहीं सका कि मैं मर चुका हूं। मगर अपने मृत शरीर को मैं अपनी आंखों से देख रहा था। जब अपने मरने का विश्वास हुआ तो इसका विश्वास नहीं हुआ कि मैं प्रेत योनि में आ गया हूं। जब ये विश्वास हुआ कि मैं मरकर ब्रह्मराक्षस बन गया हूं तब भी मुझे अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं था। जब शक्ति पर विश्वास हुआ तब मैंने दुनिया भर की बेटियों की रक्षा का प्रण लिया और अब मैं जहां किसी बेटी को संकट में देखता हूं, उसकी रक्षा करने लगता हूं। आज तुम्हारे साथ हूं।"

"लेकिन!" ... "मैं आपको बाबा कह सकती हूं?"

"अवश्य कह सकती हो। मैं तुममें अपनी कृपा को ही देखता हूं।"

"लेकिन बाबा! मैं अपनी सास या पति को कष्ट में देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। आप उन्हें कष्ट न दिया करें।"

"मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ सकता हूं। मगर बेटे! भय के बिना प्रीति नहीं होती। कमजोर की क्षमा का कोई महत्व नहीं होता। तुम्हें क्या लगता है ये जो बाबा और तांत्रिक आ रहे हैं इनसे तुम्हारा कोई उपकार हो सकता है? नहीं! आज तुम भावना में बहकर ऐसी बात कह रही हो। मगर सत्य ये है कि तुम्हारी सास या पति ऐसा नहीं सोचते। इन्हें जैसे ही अवसर मिलेगा ये तुम्हारी हत्या भी करने से नहीं चूकेंगे।... ठीक है! तुम अपनी सास और पति का भला चाहती हो, तुम अपना धर्म निभाओ। मैं अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता हूं। अभी तक मैं तुम्हारी सास, पति और उनके लाए गए बाबाओं और तांत्रिकों से खेल कर रहा था। अब इन बाबाओं और तांत्रिकों की खैर नहीं। मैं तुमसे एक बार और मिलूंगा। तुमसे विदा लेने के लिए। लेकिन उससे पहले तुम्हारा जीवन संवार दूंगा।"

कहकर वो ब्रह्मराक्षस अदृश्य हो गया।


इस घटना के बाद जब भी कोई बाबा या तांत्रिक उस घर में आता, पहला मंत्र पढ़ते ही ब्रह्मराक्षस उस पर अपना वार कर देता। किसी बाबा को उठाकर फेंक देता तो किसी तांत्रिक का हाथ-पैर तोड़ देता। किसी की थप्पड़ से सेवा करता तो किसी को पैरों की ठोकरों से लहूलुहान कर देता। बाबा डरकर भाग खड़ा होता। छः महीने तक ये सिलसिला चला। धीरे-धीरे बाबाओं और तांत्रिकों के समाज में इस घर की ख्याति फैल गई। अब कोई भी बाबा या तांत्रिक इस घर का नाम सुनते ही हाथ जोड़ लेता। धीरे-धीरे सुषमा की सास और पति भी सुषमा से डरने लगे। अब दो में से कोई भी सुषमा से ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता। मार-पीट या प्रताड़ना तो दूर की बात हो गई। 


छः महीने बाद ब्रह्मराक्षस पुनः सुषमा के सामने प्रकट हुआ। 

"बेटा सुषमा! तुम्हारे घर का काम पूरा हुआ। अब तुम्हारी सास या पति तुम्हारे साथ कोई दुर्व्यवहार करने की सोचेंगे भी नहीं। फिर भी यदि कभी मेरी आवश्यकता हो तो अपने घर की छत पर कोई भी लाल कपड़ा लटका देना। मैं तुरंत तुम्हारी सहायता के लिए आ जाऊंगा। अब मैं जाता हूं। अपनी किसी और बेटी के जीवन की रक्षा करने के लिए। अलविदा।"

कहकर ब्रह्मराक्षस अदृश्य हो गया।


आज सुषमा एक भरी-पूरी गृहस्थी की स्वामिनी है। उसकी दो बेटियां और एक बेटा है। उसकी तीनों संतानें उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। सास एक अर्सा हुआ-इस असार संसार से विदा हो चुकी हैं। दोनों ननदें अपने-अपने घर की हो गई हैं। देवर भी सेटल हो कर अपनी दुनिया में रम चुका है। अजीत भूलकर भी उस पर हाथ उठाना तो छोड़ो गुस्से से देखता भी नहीं। 


काश! कुछ ऐसे ब्रह्मराक्षस और होते, जो इस पवित्र भारत भूमि से ही नहीं अपितु पूरे संसार में फैले अत्याचारों से जीव मात्र को मुक्ति दिलाते। काश, ऐसा हो सकता। काश!



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