Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Deepak Kaushik

Others

4  

Deepak Kaushik

Others

अति सर्वत्र वर्जयेत

अति सर्वत्र वर्जयेत

12 mins
421


आज की तारीख में सुबोध कांत एक सफल व्यापारी है। परंतु उसका विद्यार्थी जीवन सामान्य ही था। अध्ययन के दौरान उसकी बहुत जरूरी आवश्यकताओं की ही पूर्ति हो पाती थी। वो कभी भूखा भले ही न सोया हो। मगर साल में दो जोड़ी कपड़ों के अलावा कपड़े की तीसरी जोड़ी नहीं जानता था। कई बार तो उसके पास पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे। कई बार फीस भरने के लिए भी पैसे को दांतों से पकड़ना पड़ता था। हालांकि कोई भी काम कभी नहीं रुके। पुस्तकें मित्रों की सहायता से या पुस्तकालयों से मिल जाया करती थीं। फीस ट्यूशन आदि करके समय पर भर जाया करती थीं। मगर आज ईश्वर ने उसे सब कुछ सौंप रखा है। उसकी संतानों को न ट्यूशन करने की जरूरत है, न फीस भरने की चिंता करने की, न पुस्तकों के लिए धन की कमी है और न वस्त्रों की कमी है। उसके दिन-रात के परिश्रम, बुद्धि चातुर्य एवं ईश्वर की कृपा ने आज उसे शहर के टाप फाइव व्यापारियों में ला खड़ा किया है। इलेक्ट्रॉनिक में बी. टेक. करने के बाद उसने नौकरी ढ़ूंढ़ने में समय बर्बाद करने की अपेक्षा अपनी थोड़ी-बहुत जो भी जमा-पूंजी थी, उसे लगाकर एक छोटी सी इलेक्ट्रॉनिक सामानों के रिपेयरिंग की दुकान खोल ली। वाजिब शुल्क, अच्छे व्यवहार और कुशल कारीगरी की बदौलत सुबोधकांत ने बहुत जल्दी ही समाज में अपनी अच्छी पहचान बना ली। जो दुकान उसने लकड़ी की एक छोटी सी गुमटी से शुरू की थी बहुत जल्दी ही पक्की दुकान में परिवर्तित हो गई। पहले वो अकेले ही दुकान में बैठकर रिपेयरिंग का काम करता था। फिर उसने अपने बेकार घूम रहे सहपाठियों को अपने साथ लगाया। फिर उनके नीचे भी कारीगरों को लगाया। बिगड़े हुए इलेक्ट्रॉनिक सामान उसके सामने आते ही जैसे उसे खुद बताते थे कि उनमें क्या खराबी है। अपने इस गुण के चलते उसका कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। वो अपने साथ काम करने वाले कारीगरों को कोई वेतन नहीं देता था। बल्कि उन्हें उनके काम का कमीशन देता था। इस तरह उसके कारीगर न केवल मन लगाकर काम करते थे अपितु अधिक से अधिक काम करने का प्रयास करते थे। सुबोधकांत के पास पैसा आना शुरू हुआ तो बुद्धि भी आनी शुरू हो गई। रिपेयरिंग की दुकान बहुत जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक सामानों की दुकान में बदल गई। धीरे-धीरे वो दुकान भी छोटी से बड़ी होती गई। इसी क्रम में आगे चलते हुए दुकान की शाखाएं भी खुलने लगीं। आज उसके प्रतिष्ठान में काम करने वाले कर्मचारी मामूली वेतन मगर अच्छे कमीशन पर खुशी-खुशी काम करते थे। उसके प्रतिष्ठान में न कभी कोई घपला हुआ और न ही कभी कर्मचारियों की तरफ से किसी तरह की हड़ताल या असंतोष की बात सुनाई दी। आज उसकी मुख्य दुकान के अतिरिक्त पांच अन्य शाखाएं हैं। 


यहां तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा। परेशानी तब शुरू हुई जब सुबोधकांत के पिता शशिकांत गांव से शहर आ गए। शशिकांत के पास गांव में बहुत छोटी सी पुस्तैनी जमीन थी। वो उसी में खेती-बाड़ी का काम किया करते थे। सुबोधकांत ने कई बार चाहा कि उसके पिता गांव छोड़ उसके पास रहने शहर आ जाएं। मगर शशिकांत ने गांव में ही रहना पसंद किया। परंतु जब सुबोधकांत की माता इस असार संसार से विदा हुईं तब शशिकांत बिल्कुल अकेले पड़ गए। तब उन्हें बेटे के साथ रहना ही ठीक लगा। और वो शहर आ गए। शहर आने के बाद सुबोधकांत के परिवार ने उनका ह्रदय खोलकर स्वागत किया। सुबोधकांत उन्हें अपने साथ अपने प्रतिष्ठान में ले आया। जिस कुर्सी पर वह स्वयं बैठता था उस पर अपने पिता को बैठा दिया। अपनी तिजोरी की चाबी अपने पिता के हाथों सौंपकर उनके हाथों लेन-देन करवाया। हालांकि शशिकांत की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी और वो ये भी जानते थे कि ये जो कुछ भी हो रहा है वो प्रतीकात्मक है। अन्यथा दुकान का मालिक सुबोधकांत ही है और सुबोधकांत ही रहेगा। मगर बेटा इतना सम्मान दे रहा है, ये क्या कम बड़ी बात है। 


गांव से शहर आने के कुछ ही समय बाद शशिकांत का परिचय अपने मुहल्ले में रहने वाले समवयसों से हुआ। उनमें से कुछ लोग एक गुरूजी के शिष्य थे। उन्हीं के माध्यम से शशिकांत भी उन गुरूजी के संपर्क में आए। गुरूजी शहर से बाहर कहीं आश्रम बना रहे थे। गुरूजी अपने शिष्यों से यथाशक्ति सहयोग मांग रहे थे। शशिकांत ने भी उन्हें सहयोग का वचन दे दिया। अपने वचन के पालन के लिए उन्होंने अपने बेटे से कहा-

"बेटा! मैंने गुरूजी को दस हजार रुपए देने का वचन दे दिया है।"

"तो ठीक है। आपका वचन पूरा हो जाएगा। आप बस आज्ञा दीजिए। वैसे भी ये सब धन-दौलत आपकी ही है। जैसे चाहिए खर्च कीजिए।"

मगर सुबोधकांत ने बहुत बड़ी भूल कर दी। वस्तुत: सुबोधकांत स्वयं भी समाज सेवा का कार्य करता रहता था। अनाथालयों, नारीशालाओं, स्कूलों, चिकित्सालयों आदि के लिए नियमित चंदा देता रहता था। इसलिए धर्म का कार्य समझकर आश्रम निर्माण के लिए दस हजार का चंदा देना स्वीकार कर लिया। मगर इसके बाद चंदा देने के लिए जैसे शशिकांत ने होड़ सी कर ली। कोई दे या ना दे। शशिकांत चंदा देने में सबसे आगे रहने लगे। दस हजार रुपए से शुरू हुई राशि लाखों में पहुंच गई। एक बार सुबोधकांत ने उन्हें समझाया भी-

"पापा! इस तरह चंदा देने से तो हमारा कारोबार ही ठप हो जाएगा।"

"बेटे! धर्म कार्यों में खर्च किया गया धन जाया नहीं जाता। वो कई गुना होकर वापस लौटता है।" 

इस तरह सुबोधकांत निरुत्तर हो गया। सुबोधकांत के प्रतिष्ठान में काम करने वाले कर्मचारियों के बीच सुगबुगाहट फैलनी शुरू हो गई। कर्मचारियों को अपना भविष्य अंधकारमय लगना शुरू हो गया। सुबोधकांत ने जो विश्वास अपने कर्मचारियों के बीच अभी तक बना रखा था, वो विश्वास टूटने लगा। एक दिन की बात है, सुबोधकांत को अपनी किसी पार्टी को अर्जेंट पेमेंट करना था। पार्टी कैश में पेमेंट चाहती थी। भुगतान राशि बीस लाख थी। सुबोधकांत ने धन की व्यवस्था कर दी। मगर! इससे पहले कि पार्टी अपना पैसा उठाती, सुबोधकांत को किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा। पैसे अपने मैनेजर को सौंप सुबोधकांत अपने काम पर निकल गये। इधर शशिकांत ने पुनः किसी आश्रम के निर्माण के लिए दस लाख रुपए के चंदे का वचन दे दिया। शशिकांत प्रतिष्ठान में आए। मैनेजर के मना करने के बावजूद भी तिजोरी से रूपए निकाल कर लें गए। पार्टी का प्रतिनिधि जब पेमेंट लेने आया तब उसके लिए मात्र दस लाख रुपए ही बचे थे। प्रतिनिधि बिना पैसे लिए वापस लौट गया। सुबोधकांत ने वापस लौट कर मैनेजर से भुगतान के बारे में पूछा तो मैनेजर ने सारी बात बता दी। सुबोधकांत ने अपना सर पकड़ लिया। 

"तुमने उन्हें रोका नहीं।" 

कुछ उग्र स्वर में सुबोधकांत ने मैनेजर से पूछा।

"मैंने उन्हें मना किया था। उन्हें पेमेंट की अर्जेंसी के बारे में भी बताया था। फिर भी वे रूपए ले गए। हम इससे ज्यादा करते भी क्या। वो मालिक हैं। जो चाहे कर सकते हैं।" 

सुबोधकांत ने मैनेजर से आगे कुछ नहीं कहा। मैनेजर की कोई गलती नहीं थी- सुबोधकांत जानता था। लेकिन इस घटना से वह दुखी हुआ‌। पिता को दी गई छूट आज उस पर, उसके व्यवसाय पर, उसके कर्मचारियों पर, उसकी साख, सभी कुछ पर भारी पड़ रही थी। उधर पार्टी ने भी फोन पर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी। पार्टी को पैसा न पहुंचने का अर्थ था- उसके यहां से व्यापारिक संबंध का समाप्त हो जाना। आनन-फानन में सुबोधकांत ने बाजार से भारी ब्याज पर पैसे उठाकर पार्टी को पेमेंट किया। लेकिन इससे सुबोधकांत की समस्या का समाधान निकलने वाला नहीं था। अब ये आए दिन की घटना हो जानी थी। सुबोधकांत की भूख-प्यास मर गई। घर से आया टिफिन बॉक्स ज्यों का त्यों घर वापस पहुंच गया। रात में भी सुबोधकांत बिना खाए ही उठ गया। शयन-कक्ष में खोया-खोया सा बैठा रहा। यह देख उसकी पत्नी सुलेखा ने पूछा-

"क्या बात है? आज इतने परेशान क्यों हो? दिन का खाना वापस लौट आया। इस समय भी खाना नहीं खाया। कौन सी चिंता तुम्हें परेशान कर रही है?"

"मैं पापा को लेकर परेशान हूं।" 

"क्या किया उन्होंने?"

सुबोधकांत ने सारी बात बताकर कहा-

"ऐसा ही चलता रहा तो सारा व्यापार खत्म हो जाएगा। और यदि मैं उन्हें पैसे देने से मना करता हूं तो वो दुनिया भर में बदनाम करना शुरू कर देंगे। पिता होने के कारण उन्हें लोगों की सहानुभूति मिलेगी और मेरी बात भी कोई नहीं सुनेगा।"

"फिर भी एक बार उसने बात तो करनी ही पड़ेगी। उन्हें शांति से समझाना पड़ेगा।" 

"फिर भी वे न माने तो?"

"अभी से ऐसा क्यों सोच रहे हो। हो सकता है उनकी समझ में आ ही जाय।" 

"मैं उन्हें समझाने की कोशिश कर चुका हूं।"

"फिर से कोशिश करो। चलो; इस बार मैं भी तुम्हारे साथ कोशिश करूंगी।"

"तो चलो, पापा से बात करते हैं।" 

"नहीं! अभी नहीं। अभी तो वो सो गए हैं। कल सुबह बात करेंगे।" 

"ठीक है। सुबह ही सही।" 

सुबह नाश्ते के समय सुबोधकांत ने अपने पिता से कहा-

"पापा! मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूं।"

"हां... हां... बेटा बोलो।"

"पापा! मैं आपको किसी बात के लिए रोकता नहीं। जो कुछ भी है, आपका ही है। मगर अपनी आवश्यकताओं का ध्यान रखना भी बहुत जरूरी होता है। हम लोगों के पास कोई कुबेर का खजाना नहीं है। बिना सोचे समझे खर्च करने से तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है। फिर हमारी क्या बिसात है?"

"तुम कहना क्या चाहते हो? खुल कर कहो।"

"पापा! कल आप दुकान की तिजोरी से दस लाख रुपए निकाल लाए थे। वो रुपए किसी पार्टी के लिए रखे थे। अर्जेंट थे। उस पार्टी को पेमेंट करने के लिए मुझे बाजार से भारी ब्याज दर पर पैसे उठाने पड़े। इससे व्यापार का नुकसान तो होता ही है, साख भी खराब होती है। और व्यापार में साख बहुत मायने रखती है।"

"तुम्हारा काम रुका...?"

"नहीं।" 

सुबोधकांत ने प्रश्नसूचक दृष्टि से पिता की ओर देखा। उसकी समझ में नहीं आया कि पिता के कथन का आशय क्या है?

"धर्म का कार्य करने से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है। एक तरफ से पैसा जाता है तो दूसरी तरफ से पैसा आ जाता है। ईश्वर कोई भी काम रोकता नहीं।"

"पर पापा! मुझे सरकार को टैक्स भी देना होता है।"

" तो दो। रोका किसने है?"

"पापा! सरकार को हमें एक-एक रूपए का हिसाब देना पड़ता है। सरकार हमें अनाप-शनाप खर्च की अनुमति नहीं देती।" 

"तुम्हारे हिसाब से ये जो मैं चंदा देता हूं, वो अनाप-शनाप खर्च है।"

"मेरे कहने का वो अर्थ नही है।" 

सुबोधकांत ने जैसे हथियार डाल दिए।

"मैं एक सलाह दूं।"

पहली बार सुलेखा ने विवाद में हस्तक्षेप किया। सुबोधकांत और शशिकांत दोनों ने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुलेखा की तरफ देखा। 

"आप दोनों लोग समझौता करिए। कुछ आप झुकिए और कुछ पापाजी आप झुकिए। आप अपने व्यापार की वित्तीय स्थिति को देखते हुए पापाजी के लिए महीने की राशि निर्धारित कर दीजिए। और पापाजी आप उस राशि के अनुसार ही दान-धरम करिए। इस तरह दोनों का काम चल जाएगा।"

"ठीक है बेटा! मुझे स्वीकार है।"

"मुझे भी।"

शशिकांत और सुबोधकांत दोनों ने सहमति जताई। 

"मैं अपने एकाउंट्स को देखकर कल राशि बता दूंगा।"

अगले दिन सुबोधकांत ने राशि बताई- पचास हजार रुपए महीना। यह भी स्पष्ट किया कि चूंकि इस माह उन्होंने दस लाख जैसी भारी-भरकम राशि पहले ही वे ली है तो उन्हें अगली राशि अगले माह ही मिलेगी। ये सुनकर शशिकांत ने नाक-भौंह सिकोड़ी। मगर मुंह से कुछ नहीं कहा। 


शशिकांत ने बेटे और बहू से वायदा तो किया मगर निभाया नहीं। उन्हें जैसे नशा सा छा गया था। दान-धर्म करने का। उनका ये नशा अतिरंजित रूप ले चुका था। सप्ताह भर भी नहीं बीता था कि वो फिर तिजोरी से एक लाख रुपए निकाल ले गए। इस बार सुबोधकांत को अपने कर्मचारियों को भुगतान करना था। भुगतान करने का काम मैनेजर के जिम्मे था। जब वो भुगतान करने बैठा तब उसे पता चला कि तिजोरी में एक लाख रुपए कम हैं। मैनेजर ने तत्काल इस बात की सूचना सुबोधकांत को दी। छूटते ही सुबोधकांत ने पूछा-

"पापा आए थे क्या?"

"जी हां।"

सुबोधकांत पुनः परेशान हुए। इस बार भले ही उतनी बड़ी राशि न हो। भले ही वो अपने कर्मचारियों को बहला-फुसला कर एक-दो दिन बाद भुगतान कर दें और उनके कर्मचारी भी एक-दो दिन के लिए संतोष कर लें। लेकिन वर्षों से चली आ रही परंपरा आज टूट रही थी। आगे नहीं टूटेगी इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी। 

"कितने लोग बाकी हैं?"

सुबोधकांत ने मैनेजर से प्रश्न किया।

"ज्यादा नहीं हैं। सिर्फ तीन लोग बचे हैं।"

"ठीक है। उन्हें कल पेमेंट करने के लिए मना लो। न माने तो मेरे पास भेजना।"

"ठीक है।"

सुबोधकांत ने तुरंत अपनी पत्नी को फोन मिलाया।

"सुलेखा! आज फिर पापा एक लाख रुपए तिजोरी से निकाल कर ले गए हैं।"

"क्यों? अभी चार-पांच दिन पहले ही तो उन्होंने वायदा किया था।" 

"हां! उन्होंने अपना वायदा तोड़ दिया है।"

"खैर! तुम धैर्य मत खोना। शांति से अपना काम करो। रात में इस समस्या पर विचार करेंगे।"

"अच्छी बात है।"

सुबोधकांत ने फोन रख दिया।

रात आई। सबने भोजन किया। शशिकांत सभी से आंखें चुरा रहे थे। मगर किसी ने उनसे कुछ भी नहीं कहा। शयन-कक्ष में पहुंच कर सुबोधकांत और सुलेखा के बीच बातचीत हुई।

"मेरी तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि क्या करूं। पापा के राज में हमने कोई सुख-सुविधा नहीं पाई। आज ईश्वर की कृपा और मेरे दिन-रात के परिश्रम से यदि अच्छे दिन देखना नसीब हुआ है तो वो भी पापा की सनक नष्ट कर देना चाहती है। इनकी हरकतें देख कर तो इच्छा होती है कि सब कुछ छोड़कर संन्यास ले लूं।"

"समस्याओं से भागने से तो समाधान नहीं मिलेगा। उसके लिए तो ठंडे दिमाग से सोचना पड़ेगा।"

"तुम ठीक कह रही हो।"

कुछ देर शांति रही। फिर सुलेखा बोली-

"एक बार फिर पापाजी से बात की जाए।"

"पापा को समझाने से तो स्थितियां नहीं बदलेंगी। उन्हें समझाने की कोशिश तो हमने की थी। क्या नतीजा निकला। एक सप्ताह में ही उन्होंने अपना वायदा तोड़ दिया।"

फिर कुछ देर शांति रही। सुलेखा ने पूछा-

"पापाजी तिजोरी से ही तो पैसे निकाल ले जाते हैं।"

"हां।"

"तो यदि पैसे रखने की जगह ही बदल दी जाए; तो!"

"तो क्या होगा। जहां भी तिजोरी रखी जाएगी वो वहां पहुंच कर पैसे निकाल लेंगे।"

" मैं तिजोरी की बात नहीं कर रही हूं। मेरे कहने का मतलब है कि किसी नई जगह पर नई तिजोरी रखी जाए। नई तिजोरी में पैसे। और इस बात का पता सिर्फ दो-तीन खास-खास लोगों को ही रहे तो?"

"हां ये हो सकता है। नई तिजोरी खरीदनी होगी। नई जगह भी लेनी होगी। मगर इस तरह की रोज-रोज की झंझट से मुक्ति मिल जाएगी।"

"तो यही करो। पुरानी तिजोरी में सिर्फ उतने ही पैसे रखो जितने उन्हें देने हों। तुमने जो वायदा किया है उसे कभी मत तोड़ना। बाकी ईश्वर पर छोड़ दो। वो सब कुछ देख रहा है।"

सुबोधकांत ने वैसा ही किया जैसा उसकी पत्नी ने सुझाया था। अगले ही दिन एक छोटा मगर अच्छा और मजबूत कमरा किराए पर लिया। उसी दिन एक अच्छी इलेक्ट्रॉनिक लॉक वाली तिजोरी खरीदी गई और उसे नए लिए गए कमरे में रखा गया। इस काम को इतने गोपनीय ढंग से किया गया कि सुबोधकांत और उनके मैनेजर के अतिरिक्त किसी को भी पता नहीं चला। तिजोरी का कोड भी इन्हीं दोनों को पता था। पुरानी तिजोरी में अब हजार- दो हजार से अधिक रुपए नहीं रखे जाते। इस तरह शशिकांत की अति का समाधान निकला।



Rate this content
Log in