गुरू दक्षिणा
गुरू दक्षिणा
कृष्ण-बलराम दोनों भाईयों की शिक्षा-दीक्षा ‘संदीपनी ऋषि’ के देख-रेख में सम्पन्न हुई। अब गुरु के आश्रम से विदा होने का वक्त हो गया था। दोनों भाईयों ने अपने गृह निवास ‘मथुरा’ की ओर प्रस्थान करने का मन बना लिया ।विदा होते समय उन्होंने पहले गुरु को साष्टांग प्रणाम किया। गुरु ने शिष्यों के मस्तक पर हाथ रख कर उन्हें मनः पूर्वक आशीर्वाद दिया और उनके स्वर्णिम भविष्य के लिए मंगलाचरण का पाठ किया।तब कृष्ण ने सकुचाते हुए गुरु से गुरु दक्षिणा मांगने के लिए कहा।
द्वापरयुग के संदीपनी ऋषि ... भला गुरु दक्षिणा कैसे मांगते ! असंभव ! गुरु ने हँस कर बातें टाल दीं।
अब दोनों ने गुरुमाता के चरण सपर्श किये। अचानक गुरुमाता की आँखों से निकले गर्म आँसू कृष्ण के कंधे पर जा गिरे। कृष्ण जैसे अन्तर्यामी मानव को... गुरुमाता की पीड़ा का भान हो गया।
उसने गुरुमाता से मुखातिब हो व्याकुल होकर पूछा ,” माते, इस पुत्र को अपने दुःख का कारण बताने की कृपा करें। कृष्ण के लाख मनुहार करने के बाद गहरे जख्म पर मलहम लगाने वाले , पुत्र सामान कृष्ण को गुरुमाता ने आखिर सुबकते हुए बता ही दिया , ”कृष्ण, यदि मेरा पुत्र समुद्र में डूब गया नहीं होता तो... वह भी आज तुम्हारे ही उम्र का रहता !”
अपने युग के सर्वोतम शिष्य और महानतम योद्धा ‘कृष्ण’ ने तब व्याकुल हो गुरुमाता को वचन दिया , “ माते, मैं वादा करता हूँ, आपके पुत्र को यमलोक से जीवित वापस लाऊंगा।”
आखिरकर कृष्ण के योग बल के समक्ष यमराज भी पराजित हो गये और उस बालक को जीवित कर कृष्ण के हवाले कर दिया। अविलंब कृष्ण बालक को लेकर संदीपनी आश्रम पहुँचे और गुरुमाता के हाथों उसे सुपुर्द कर उनकी खुशियाँ वापस लौटायी।
वर्षों से बिछड़े अपने पुत्र को माता ने उर से लगाया। चारों आँखें अब एक साथ बरसने लगीं।वहीँ पास खड़े संदीपनी ऋषि मन्त्र मुग्ध हो बेटे को देखते रहे। उन्हें मन ही मन अपने शिष्य पर बहुत अधिक गर्व हो रहा था।
कृष्ण ने इस तरह गुरु दक्षिणा देकर न केवल अपने कर्तव्य का पालन किया बल्कि गुरु का मान भी बढाया।