सदुपयोग
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रसोईघर से खटर-पटर की तेज आवाज सुन मैं घबरा गई ।
"सभी दरवाजे बंद हैं, फिर .. कौन है ... ? सिक्यूरिटी गार्ड होने के बावजूद भी फ्लैट अब सुरक्षित नहीं रहा ! कभी ग्रील काटकर तो कभी शीशे तोड़ कर, चोर, बदमाश अंदर आ ही जाते हैं ! आये दिन यह खबर अखबार में छपती रहती है ! पता नहीं क्यों , चोर का दिमाग इन्जीनियर के दिमाग से अधिक तेज चलता है ! "
... मन में उठ रहे अनगिनत विचार मुझे भयभीत कर रहे थे ।हनुमान जी का स्मरण कर मैंने डाइनिंग-स्पेस की खिड़की से रसोईघर में झांक कर देखा, वहाँ कोई नहीं दिखा !लेकिन एक कोने में बंद पड़े शीशे की आलमारी से खटर-पटर की तेज आवाज आ रही थी।
हहह ...! चोर नहीं घुसा है , यह तो पक्का हो गया ! दीर्घ श्वास खींच कर मैं आलमारी के समीप पहुँची । शीशे से अंदर दिख रहे क्राॅकरी के समूह से मुखातिब हो, मालिकाना हक जताते हुए मैंने पूछा , ” अरे! क्या हुआ ? रात के दस बज गये और तुमलोग शोर मचा रहे हो !ओह! तुम्हें अपने सभ्य पड़ोसियों का जरा भी ख्याल नहीं रहता! ”
" मलकिनी जी! सुनिये ,अच्छा हुआ जो आज आपके दर्शन हुए ! हम तंग आ चुके हैं इस काल-कोठरी में रहकर ! रात के घुप अंधेरे में तिलचटे की आवाज से हम भयभीत रहते हैं ।आठ महीने हो गये बाहर निकले बहुत घुटन महसूस हो रही है ! इस कैदखाने से बढ़िया, भले हम पहले दुकान में थे! कम से कम, वहाँ बाहर की हवा तो लगती थी , दस-बीस लोग हमें उठाकर देखते भी थे ! अब जल्द से जल्द हमें आजाद कीजिए ।"
आलमारी के अंदर पड़े कीमती बर्तनों ने एक साथ करबद्ध होकर मुझसे विनती करने लगा।
" सुनो ...! बीस सालों की मेरी गृहस्थी है । पति की गाढ़ी कमाई से पैसे बचा कर, मैंने तुझे गोद में बिठाकर बाजार से घर लाया था और ये बेशकीमती शीशे की आलमारी भी मैंने बड़े शौक से बनवाया था , ताकि तुम्हें सजाकर मैं अमीर की तरह इतराऊँ ।
हमारी पड़ोसन घर में घुस कर जब कभी मुझसे चीनी -चायपत्ती मांगने आतीं हैं , वो ...आँखें फारकर मुझसे अधिक तुम्हें देखतीं है ! सच पूछो तो पड़ोसन का यह अंदाज मुझे बहुत भाता है । परन्तु , तुमलोग तो उल्टे आज ! हहह...!” बड़बड़ाते हुए मैं बत्ती बंद करके सीधे अपने शयनकक्ष में घुस गई |
लेकिन ,आँखों में नींद कहाँ ! बर्तन की फटकार, " हमें कैदखाने से आजाद कीजिए ... " मुझे बेचैन कर रही थी । ओह! पति को आज ही टूर पर जाना था !अपनी दुखड़ा अब किसे सुनाऊँ ?! कछमच करके मैं रात गुजारी !पौ फटते ही, सबसे पहले मैंने ट्रंक खोला। उसमें पड़े पुराने जैकेट, चादर, कम्बल, स्वेटर आदि को निकाल कर मैंने फटाफट एक बैग में ठूंसा । फिर रसोईघर जाकर, शीशे की आलमारी में वर्षो से पड़े क्राॅकरीज सहित महंगे बर्तनों को निकाला । उन्हें भी एक बड़े बैग में यही सोचकर भरने लगी कि आज इन सभी को आजाद कर ही देती हूँ । आखिर, मुझे इनका काम ही कितना पड़ता है !
" घर में जब विशिष्ट मेहमान आते हैं, तभी आलमारी से दो-चार कटोरे , प्लेट, चम्मच आदि मैं निकालती हूँ ! बाकी का काम डेली के बर्तनों से ही तो हो जाता है। हाँ, जब तक सास- ससुर जीवित थे , उनसे मिलने सगे-संबंधियों का तांता लगा रहता था । अब संबंधी नहीं के बराबर आते हैं! सभी मंहगे बर्तनें ... आलमारी में शोपीस बन कर पड़ा रहता है ! ओह! मेरी मति मारी गई थी जो दिखावे के चक्कर में पति की गाढ़ी कमाई को चूना लगाया ! "
रास्ते भर यही सब सोचते- सोचते मैं कैब से अनाथालय कब आ पहुँची कुछ पता ही नहीं चला ।
यहाँ की संचालिका मेरी जानी -पहचानी हैं । सालों पहले अपनी इकलौती बेटी को जब मैं बोर्डिंग स्कूल में छोड़ कर आई थी, तब मेरा मन अक्सर उदास रहता था ।तब मैं कॉपी, पेंसिल, कलर लेकर यहाँ पहुँच जाती थी । घंटों बच्चों के साथ खेलती और उन्हें पेटिंग सिखलाती ।अनाथालय के प्रांगण में प्रवेश करते ही संचालिका पर नजर पड़ी । हाथ हिला कर मैंने उनका अभिवादन किया और झट समीप पहुँच कर साथ लाये दोनों बैग को उनके हवाले कर दिया ।
संचालिका ने रसोइये को तुरंत बुला कर उसे बैग ले जाने का आदेश दिया एवं विनम्र भाव से मेरी ओर देख कर कहा , “ हार्दिक धन्यवाद बहन।आप जैसे उदार लोगों से ही तो अनाथालय चलता है !
प्रांगण में बैठकर, उनसे बातें करने के दौरान अपने साथ लाये बर्तनों को मैं दूर से निहारने लगी । नये रसोईघर में जाकर सारे बर्तन खिलखिला रहे थे ।मानो कैदखाने से उन्हें आज़ादी मिल गई हो !
बर्तनों को अति प्रसन्न देख, मेरे मन में हठात् एक विचार कौंधा ...'सामान का असली महत्व संग्रह करने से नहीं ,अपितु उपयोग करने से ही होता है ।'
घर का फ़ालतू सामान, सही जगह पर पहुंचकर मुझे उपयोगी लग रहा था।
सुकून का भाव लिए मैं वापस घर लौट आई।