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Ranjana Jaiswal

Inspirational

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Ranjana Jaiswal

Inspirational

दीदी तुम भी

दीदी तुम भी

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सहोदरा होते हुए भी दो बहनें रूप -रंग, स्वभाव संस्कार, सोच -विचार के स्तर पर अलग हो सकती हैं। पर लाख अंतर्विरोधों के बाद भी स्नेह का सूत्र उन्हें एक दूसरे से जोड़े रखता है।


भाग एक 

दीदी , घर की सबसे बड़ी थी तुम। माँ के बाद तुम्हीं एकमात्र ऐसी थी जो मेरी सारी खूबियों और कमियों को जानती थी। जिससे मैं अपना सारा सुख-दुःख कह सकती थी, बाकी सात भाई -बहन तो मुझसे छोटे हैं और वे सहोदर होते हुए भी उतने करीब नहीं हैं जितनी तुम थी। अभी माँ के जाने का दुःख ही कम नहीं हुआ था कि तुम भी चली गयी दीदी।

हमने बचपन एक साथ जीया था । तुम दस साल ही तो बड़ी थी मुझसे। बचपन से तुम पर जिम्मेदारियां थीं। अपने से छोटे भाई-बहनों को नहलाना -धुलाना, बहनों की चोटी बनाना और घर के कामों में हाथ बंटाना सब तुम्हीं तो करती थी। मैं तो बस किताबों में ही उलझी रहती थी और बहुत हुआ तो छोटे भाई- -बहन को बाहर खिलाने के बहाने खुद खेलती थी। तुम इसी कारण मुझसे चिढ़ती थी कि मैं घर का कोई काम नहीं करती थी। यहां तक कि मुझे नहलाना , मेरी चोटी करना भी तुम्हारी जिम्मेदारी थी। इसी कारण कभी- कभी तुम मुझे नोंच देती या मार देती। एक बार तो मेरे सिर पर गर्म पानी ही डाल दिया। हुआ यों कि मैं सिर धुलाते समय ठंड -ठंड चिल्ला रही थी। मेरे कारण कई बार तुम्हें माँ से डाँट -मार पड़ जाती थी। इससे तुम और चिढ़ जाती। तुम्हें मेरी कोई बात पसन्द नहीं थी। मेरा पढ़ना -लिखना और लड़कों के साथ गोली- गोटी खेलना, पेड़ों पर चढ़कर फल- फूल तोड़ना तुम्हें नहीं भाता था। शायद इसलिए कि तुम्हें यह सब नहीं आता था या यूं कहें तुम्हें इन सबका अवसर नहीं मिलता था ।

हम दोनों बहनें सिर्फ रूप -रंग में ही नहीं स्वभाव से भी अलग थे। तुम बिल्कुल गोरी चिट्टी और मैं पक्के पानी की। मेरे नाक- नक्श तीखे थे तुम्हारे सामान्य। मैं किताबी कीड़ा थी और तुम्हें पढ़ना बिल्कुल नहीं भाता था। तुम बिना सींगों वाली गाय थी पर मेरे पास सींग थे। मैं लड़ने -भिड़ने , गाली बकने, बाहर घूमने -खेलने, पढ़ने-लिखने सब में तेज थी और तुम दबी- कुचली लड़की थी। मैं शरीर से दुबली- पतली थी पर तुम शरीर से हृष्ट -पुष्ट थी , इसी कारण बारह साल में ही बड़ी दिखने लगी थी।

घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अभावों में जीवन गुजर रहा था। परिवार बड़ा और आमदनी कम। पिताजी की छोटी- सी मिठाई की दुकान थी। जिस पर स्कूल के बाद हम भाई -बहन काम करते। तुम दुकान नहीं जाती थी क्योंकि बड़ी लगती थी। वैसे भी रूप -रंग और अच्छी सेहत के चलते तुम किसी राजकुमारी से कम नहीं लगती थी और लड़के हमारे मोहल्ले के चक्कर लगाने लगे थे। अक्सर रात को घर के बरामदे में प्रेम -पत्र फेंक जाते। माँ सुबह झाडू लगाते समय पत्र पाती और फाड़कर बाहर की नाली में डाल देती। किसी को कानों-कान इस बात की खबर नहीं थी। पिताजी के गुस्से वाले स्वभाव से माँ परिचित थी इसीलिए बहुत समझदारी से काम लेती। नहीं तो पिताजी लड़कियों को पढ़ने के लिए भी बाहर नहीं निकलने देते। तुम्हें गरीबी से नफ़रत थी । मोटा खाना तुम्हें पसन्द नहीं था। बच्चों से भी तुम्हें चिढ़ हो गयी थी। होश संभालते ही तुमने यही सब तो देखा था। यही कारण है कि जब तुम्हारे लिए अमीर घर से रिश्ता आया , तुमने तुरत ब्याह के लिए हामी भर दी। मैं हैरान थी क्योंकि तुम्हें तो हीरो जैसा लड़का पसन्द था, सांवले रंग से नफरत थी फिर तुमने सांवले रंग के, अपने से डेढ़ गुने उम्र के , धोती -कुर्ता वाले बिजनेसमैन जीजा जी को कैसे पसन्द कर लिया !मैं तो कदापि नहीं करती। पर तुम गरीबी से मुक्त होना चाहतों थी। माँ की भी मजबूरी थी बिना दहेज का विवाह हो रहा था । ऊपर से तुम मंगली थी और मान्यता के अनुसार मंगली लड़के से ही ब्याह सम्भव था और जीजा जी मंगली थे। तुम अपनी शादी से बहुत खुश थी। तुम्हारा ससुराल धन- धान्य से परिपूर्ण था और तुम ही मालकिन थी। शादी के बाद तुम मायके नहीं आना चाहती थी। धीरे -धीरे तुम पूरी तरह अपने घर रम गयी और मायके के परिवार से तुम्हारा लगाव भी कम हो गया।


भाग दो

दीदी तुम अंतर्मुखी थी और मैं बहिर्मुखी। तुम्हारी विद्रोह की आग भीतर की ओर मुड़ी थी और मेरी बाहर की तरफ। यही कारण था कि मैं जिद्दी , विद्रोही , तेज और बिगड़ी कहलाई और तुम सहनशील, शांत, शालीन और अच्छी। तुम जीवन से समझौता करके खुश रही और मैं विद्रोह करके परेशान। भौतिक चीजों की तुम्हें कभी कमी नहीं रही और बाकी चीजों को तुम फिजूल समझती थी। तुम्हारी अपनी कोई विचारधारा नहीं थी। अधिक सोच-विचार करना तुम्हें पसंद नहीं था। जहां जैसा देखती वैसे ही ढल जाती।

सुंदरता से तुम्हें विशेष लगाव था और काले रंग व बदसूरती से नफरत। तुम थी भी तो जरूरत से ज्यादा गोरी और सुंदर। लंबे, घने, काले बाल, पाँच ’छह' की ऊंचाई और सुगठित शरीर। मैं हमेशा तुम्हारे आगे फीकी पड़ जाती थी। मेरा गेहूंआ रंग तुम्हारे अतिरिक्त गोरे रंग के आगे काला ही लगता , इसलिए बचपन में तुमने मुझे हमेशा कलूटी कहकर ही पुकारा। तुम मुझसे नाराज रहती थी क्योंकि मैं घर का कोई काम नहीं करती थी और तुम्हें ही सारा काम करना पड़ता था। मुझ पर छोटे भाई-बहनों को बाहर ले जाकर खिलाने और बाहर से सौदा आदि लाने की ज़िम्मेदारी थी। इस जिम्मेदारी के बहाने मुझे खेलने का मौका भी मिल जाता था । तुम्हें घर से बाहर निकलने की मनाही थी क्योंकि भरी देह के कारण तुम उम्र से बड़ी लगती थी और सुंदर भी बहुत थी। मुझे दुबली-पतली व साँवली होने का लाभ मिल जाता था।

तुम्हें पढ़ना-लिखना पसंद नहीं था और मैं हमेशा किताबें लेकर बैठी रहती थी। कविता लिखना भी शुरू कर दिया था, जिसे सुनकर तुम चिढ़ जाती।  तुम हमेशा अपनी सुंदरता को निखारने में लगी रहती। कई बार माँ गुस्सा जाती कि क्यों अत्याचार कर रही हो ?भगवान ने पहले से ही इतना सुंदर बनाया है, फिर प्रयोग करने की क्या जरूरत है ?

तुम्हें अच्छा खाना ही चाहिए था जबकि मैं मोटा-झोटा, आसी-बासी, रूखा-सूखा कुछ भी खा लेती थी। तुम्हें अच्छे कपड़े चाहिए होता था और मैं तुम्हारी उतरन से भी खुश थी। तुम्हें सजने-सँवरने का शौक था और मैं इस मामले में बिलकुल लदधड़ थी। मुझे चोटी भी बनाने नहीं आती थी। जब तक तुम माँ के घर रही , तुम ही मेरी चोटी बनाती रही। मूड अच्छा होता तो मुझे काजल भी लगा देती और काजल की ही छोटी -सी बिंदी और फिर दुलार से कहती -कलूटी का नाक-नक्श कितना सुंदर है। मैं कलूटी कहे जाने से चिढ़ जाती और तुम्हें गाली देकर भाग जाती। मुझे तुम्हारे प्यार का अहसास नहीं था। घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। किसी तरह परिवार के खाने-पीने का इंतजाम हो पाता था। इसलिए आठवीं पास करते ही तुम्हारी शादी कर दी गयी। बिना दहेज का एक बढ़िया रिश्ता खुद चलकर आया था। बस लड़के की उम्र ज्यादा थी पर वह अपने घर का खुद मालिक और बड़ा बिजनेस मैन था। तुम भी अभावों से मुक्त होना चाहती थी , इसलिए शादी के लिए 'हाँ ' कर दिया। तुम्हारा हीरो जैसे पति का सपना टूट गया, इस बात का मुझे दुख हुआ था , पर तुमने समझौता कर लिया था। राजकुमारी को राजकुमार की जगह राजा मिला था , पर राज-सुख तो था ही।

अपनी शादी के बाद तुम मेरे लिए लाल और नीले रंग का दो सेलेक्स और कुर्ता ले आई। कहने लगी -तुम्हारी पिंडलियाँ मुझसे ज्यादा सुडौल हैं इसलिए सेलेक्स तुम पर ज्यादा जमता है। वे कपड़े तब तक के मेरे जीवन के सबसे बढ़िया और फैशनेबुल कपड़े थे , जिसे पहनकर पहली बार मुझे लगा कि मैं भी सुंदर हूँ।


भाग तीन

तुम्हारे बारे में आज सोचती हूँ तो बड़ा दुःख होता है। तुम हीरो जैसा दूल्हा चाहती थी , जो तुम्हें उसी तरह प्यार करे जैसे फिल्मों में हीरो हीरोइन को करता है। तुम बहुत शौकीन थी पर जीजा जी को कोई शौक ही नहीं था। वे ठेठ बनिया की तरह पैसे कमाने में ही लगे रहते। तुमने उन्हें हीरो बनाने की बहुत कोशिश की। पैंट -शर्ट पहनाया , उनके साथ रोमांटिक फोटो खिंचवाए , पर वे बार -बार अपने पुराने चोले में लौट जाते। धोती -कुर्ता ही उन्हें भाता। शादी के बाद जब तुम पहली बार ससुराल से लौटकर आई तो तुम्हारे पास मुंह-दिखाई की खासी रकम थी। तुमने अपने लिए मार्डन कपड़े खरीदे और स्टूडियों जाकर हीरोइनों के अंदाज वाले फोटो निकलवाए । तुम मुझे भी साथ ले जाती थी। मेरी पहली फोटो वही है , जो तुमने मेरे साथ खिंचवाई थी , वरना उस समय कम ही लड़कियां स्टूडियो जाती थीं।

तुम कुछ दिन हमारे साथ रही। माँ तुम्हारी कम उम्र के कारण तुम्हें तत्काल ससुराल नहीं भेजना चाहती थी। शादी के बाद तो विदाई मजबूरी थी। गौने का कोरम पूरा करना था। पाँच दिन ही तुम जीजा के घर रही। माँ ने साथ में एक छोटी बहन को भी भेजा था। बहन को सीखा दिया था कि दीदी को जीजा के साथ अकेले न रहने देना। वह नहीं चाहती थी कि फूल -सी तुम अभी से दाम्पत्य के कष्ट झेलो , पर लाख कोशिशों के बावजूद जीजा से तुम्हारा मिलन हो गया था, इसका पता तब चला , जब तुम्हारा मन माँ के घर न लगा। तुम हमेशा खोई -खोई रहती। एक कॉपी में रोमांटिक गाने लिखती। जब हम टहलने जाते तो सूनसान सड़कों पर तुम अपने भावनाओं में डूबी उन गीतों को गाते चलती । मैं अनजाने में तुम्हारे सुर में सुर मिलाने लगती तो तुम्हारा सपना टूट जाता और तुम मुझे मारने दौड़ती। जब तुम घर के बरामदे में बैठती तो मैं तुम्हारे केश खोल देती और जूँ देखने लगती , तुम खूब नाराज होती। मेरी आदतें तुम्हें बचकानी लगतीं। तुम उम्र से पहले ही काफी बड़ी हो गयी थी।

जीजा जब तुम्हें विदा कराने के लिए आए , तो माँ ने उन्हें मना करने के बारे में सोचा। उसने जीजा को अलग कमरे में सुलाया और तुम्हें अपने पास , पर दूसरे दिन माँ ने तुम्हें विदा कर दिया। माँ ने बाद में इस रहस्य से पर्दा उठाया कि तुम रात को चुपके से उठकर जीजा के कमरे में गयी थी। माँ को पता चल गया कि पति -पत्नी को अलग रखना अन्याय है। तुम जीजा के बिना खुश नहीं थी। फिर तुम गयी तो दसवीं की परीक्षा के समय आई। किसी तरह नकल के सहारे तुमने परीक्षा दी। शादी के बाद पढ़ाई तुम्हें और भी बोझिल लगने लगी थी , जबकि जीजा जी चाहते थे कि तुम खूब पढ़ो । वे कहते -तुम डॉक्टर की तरह दिखती हो। अगर पढ़ने को तैयार हो तो मैं डॉक्टरी पढ़ाऊंगा, पर तुम तैयार नहीं हुई। उसके बाद तुम डिलीवरी के समय ही आई। माँ तब भी बहुत परेशान थी क्योंकि तुम्हारी उम्र सोलह -सत्रह के बीच ही थी। काफी कष्ट के बाद तुम्हें बेटा हुआ। मैं उस समय हॉस्पिटल में ही थी और तुम्हें तकलीफ में देखकर रोये जा रही थी। बेटे का मुँह देखते ही तुम सब कुछ भूल गई ।

फिर तुम कभी-कभार ही मायके आई। जीजा जी को तुम्हारा मायके में रहना पसंद नहीं था और तुम भी सुख-सुविधाओं की आदी हो चुकी थी।

पच्चीस साल की उम्र तक तुम्हें तीन बेटियाँ और हो चुकी थीं और तुम अपनी गृहस्थी में रम चुकी थी।


भाग चार

गर्मी की छुट्टियों में छोटी बहन के साथ मैं तुम्हारे घर गयी तो जीजा जी को करीब से जानने का मौका मिला। वे हमारे परिवार को बहुत हीन -दृष्टि से देखते थे और खुद को बहुत उच्च और खानदानी समझते थे। मैंने देखा कि वे तुम्हें बात -बात पर नीचा दिखाने की कोशिश इसलिए करते हैं कि तुम गरीब परिवार से हो। वे माँ- बाबूजी के बारे में बहुत कुछ गलत कहते पर तुम इसका बिल्कुल भी बुरा नहीं मानती थी। कहती-'कुछ गलत भी तो नहीं कहते उनके बारे में। फिर मुझे तो अच्छा मानते हैं न, मेरी सब जरूरतें तो पूरी करते हैं । बाकी मर्द हैं कुछ न कुछ तो कहेंगे ही। ' मुझे तुम्हारी ये बातें अच्छी नहीं लगती थी । मैं तो अपने माँ -बाबूजी के बारे में कुछ भी गलत नहीं सुन सकती। अगर मेरी शादी किसी ऐसे पुरुष से हुई तो मैं तो उसे छोड़कर भाग जाऊंगी।

कौन जानता था कि बचपन की वह बात एक दिन सच हो जाएगी।

तुम्हें हीरो नहीं मिला तो तुमने मेरे लिए हीरो पसन्द कर लिया। पर मैं दीखने में हीरो नहीं सच्चे हीरो के सपने देखती थी, जिसके अच्छे विचार हों, जो स्त्री जाति का सम्मान करता हो। जो स्त्री को दासी नहीं साथी समझता हो। जाने क्यों यह हीरो मुझे ठीक नहीं लगा था। वैसे भी मैं पढ़ना -लिखना चाहती थी। अभी दसवीं में थी। पर न तुम मानी न माँ। तुम लोगों ने ये भी नहीं सोचा कि जो लड़का दसवीं फेल होने के कारण घर से भाग कर यहां रिश्तेदारी में आया है, उसका भविष्य क्या होगा? अपनी बिरादरी का है । हीरो जैसा दिखता है और सबसे बड़ी बात बिना दहेज शादी के लिए राजी है। अपने घर वालों को मना लेने का दावा कर रहा है और क्या चाहिए ? हीरो मुझ पर लट्टू था। उसने बॉबी फ़िल्म पच्चीस बार देखी थी और उन दिनों मैं बॉबी -सी दिखती थी। किसी ने हीरो का घर -द्वार देखने की जरूरत भी नहीं समझी। मुझे जबरन उसके गले बांध दिया गया। हीरो सचमुच जीरो था, जिसका परिणाम यह हुआ कि अभावों में भी हंसती -खेलती रहने वाली मैं उसके घर के अभावों से घबरा उठी। यानी उसके घर के हालात मेरे घर से भी बदतर थे। जिस पर पर्दा डालने के लिए वह माँ और बाबूजी के बारे में उल्टी -सीधी बातें करने लगा। तुम्हारे बारे में कहता कि तुम्हें बेचा गया था पैसे के लिए। मैंने उसे लाख समझाया कि इस तरह की बातें मैं नहीं सह सकती , पर वह मानता ही न था। जब मैंने तुम्हें यह सब बताया तो तुमने उल्टे मुझे ही समझाना शुरू किया कि तुम्हें तो कुछ नहीं कहता। माँ बाबूजी की गाली बर्दाश्त कर लो। तुम क्या समझती हो, मैंने यह सब नहीं सहा है! तुम्हारे जीजा भी मुझे माँ के घर नहीं छोड़ते थे, उन्हें वहाँ के वातावरण पर भरोसा नहीं था।

मैंने जवाब दिया था --पर ये तो गलत है न दीदी, हमारे घर के वातावरण में कुछ भी तो आपत्तिजनक नहीं है फिर क्यों ? मैं नहीं सहूँगी यह सब।

गलत को सहना मेरा स्वभाव न था। मैंने हीरो का विरोध करना शुरू किया तो वह मुझे शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएं देने लगा। वह मुझसे जबरन मूर्खता पूर्ण रीति -रिवाजों का पालन करने को कहता। दूसरी स्त्रियों में दिलचस्पी लेता। मैं पढ़ना चाहती थी और वह मेरे पढ़ने के ख़िलाफ़ था। सबसे बड़ी बात वह मेरे स्वाभिमान को कुचलकर अपने पुरुषत्व का झंडा गाड़ना चाहता था। वह मुझसे मेरा 'मैं 'छीन लेना चाहता था , वह भी प्रेम से नहीं ताकत से। वह खुद को मेरा परमेश्वर मानता था। शुरू में मैं भी उसे परमेश्वर ही मानती थी। सती -धर्म का पालन करती थी, पर उसके अत्याचारों ने उसे मेरी नज़र से गिरा दिया। हमारा रिश्ता टूट गया।

मैं तुम्हारी तरह की सती नहीं हो सकती थी दीदी कि ज़हर पीकर भी मुस्कुराती रहूं। मैं ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन नहीं गुजार सकती थी , जो स्त्री को सिर्फ मादा समझता हो, उसे कुछ भी सोचने, निर्णय लेने का अधिकार नहीं देना चाहता हो। मैं प्रेम की गुलामी बर्दाश्त कर सकती थी, दबाव की नहीं ।

माफ करना दीदी मैं तुम्हारा कहना न मान सकी। मैं माँ के घर लौट आई। अपनी पढ़ाई पूरी की और आत्मनिर्भरता हासिल की। यह सब आसान नहीं था मेरे लिए । मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा। परिवार और समाज के विरोधों को सामना करना पड़ा।

मेरा यह निर्णय तुम्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था। तुम वर्षों मुझसे नाराज रही। अपने बच्चों की शादियों तक में मुझे नहीं बुलाया । जीजा जी ने सख्ती से मुझसे सम्बन्ध रखने के लिए मना कर दिया था। तुम हमेशा मुझे ही दोष देती थी कि मैं बचपन से जिद्दी हूँ। मुझमें सहनशक्ति नहीं।


भाग पाँच

जीवन के चौथे पहर में एक पारिवारिक वैवाहिक समारोह में हम फिर मिले। मैं तुमसे बचपन की ललक से मिली और तुम्हारे गले लग गयी। तुम बस मुस्कुराई। तुमने आश्चर्य से मुझे देखा क्योंकि मेरे मुक़ाबले तुम बूढ़ी लग रही थी।  कई तरह की बीमारियों ने तुम्हें घेर लिया था। मैं अब न तो काली दिखती थी, न तुम्हारी तरह उम्रदराज। मेरे कपड़े भी आधुनिक थे। तुम्हें आश्चर्य हुआ था कि मैं इतनी बदल कैसे गयी हूँ। फिर तुमने मेरे कपड़ों को छूकर देखा कि वे कितने कीमती हैं। मेरी देह पर जेवर न देखकर तुम्हें मन ही मन प्रसन्नता हुई कि अभी तक तुमसे हैसियत में कमतर हूँ। मैं हर हालत में खुश कैसे रहती हूँ ?क्यों मुझे किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता , यह तुम समझ नहीं पा रही थी। तुमने कहा-तुम बहुत बहादुर हो । तुम्हारी जगह मैं होती तो आत्मघात कर लेती।

मैंने प्रतिवाद किया-क्यों दीदी, मैं क्यों मरूँ? जो समाज मुझे मृत देखना चाहता हो , उसकी परवाह मैं बिलकुल नहीं करती।

फिर तुमने हीरों के बारे में पूछा। मैंने बताया कि उसने तो तभी शादी कर ली थी। अब तो उसके बच्चे भी जवान हो गए हैं। वह एक सरकारी स्कूल का मास्टर हो गया है। खुश है अपनी जिंदगी में।

तुमने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा-आखिर वह भी तो औरत है , जो उसका साथ निभा रही है। तुम भी सहकर साथ रह ली होती, तो समाज में इज्जत होती।

मैं तुमसे इतने दिनों बाद मिली थी , इसलिए तुम्हें कोई कड़ा जवाब नहीं देना चाहती थी। मैं तुम्हारी सोच तो नहीं बदल सकती थी। इस तरह की सोच का सामना मैं हमेशा करती आई थी । पर तुम मेरी दीदी थी , तुम भी मुझे नहीं समझ पाई इस बात का दुख हो रहा था। कितनी बड़ी विडम्बना है कि मैं एक स्कूल में पढ़ाती हूँ । अपने लेखन की वजह से देश -भर में जानी जाती हूँ। कई सम्मान मिल चुके हैं। कई किताबें लिख चुकी हूँ। क्या ये उपलब्धियां इसलिए निरर्थक हैं कि मैंने अपने पति को छोड़ दिया था। क्या बिना पुरुष वाली स्त्री की समाज में कोई इज्जत नहीं होती? कितना अन्याय है ये ?

फिर हमारे मिलने का सिलसिला चलता रहा। तुम्हारे शहर में दो और बहनें भी ब्याही थीं। मैं छुट्टियों में उनके घर जाती, तो तुमसे मिलने के लिए छटपटाने लगती। मैं यह जानती थी कि जीजा मुझे पसंद नहीं करते , इसलिए छोटी बहन के साथ तुमसे मिलने तब जाती , जब जीजा घर पर नहीं होते थे। तुम नार्मल व्यवहार करती। ऊपरी मन से अपने घर रुकने का आग्रह भी करती , पर मैं तुम्हें किसी धर्म-संकट में नहीं डालती थी। फिर हममें फोन पर बातचीत होने लगी। मैं तुमसे दिल खोलकर बात करती , कुछ भी नहीं छिपाती थी, पर तुम अपने घर-परिवार की कमियों के बारे में कुछ भी नहीं बताती थी । छोटी बहनों के माध्यम से मुझे तुम्हारे बारे में सारी जानकारी मिलती रहती थी। बहनें कहाँ एक-दूसरे से एक-दूसरे की बात छिपा पाती हैं ?तुम्हारी एकमात्र बहू न केवल साँवली थी, बल्कि बदसूरत भी थी। साथ ही उसका स्वभाव भी अच्छा नहीं था।  उसके होते हुए भी तुम अलग पकाती-खाती थी। वह तुम्हारे सामने बिलकुल नौकरानी सरीखी लगती। जब पहली बार मैंने उसे देखा तो चौक गयी कि कैसे तुमने राजकुमार जैसे बेटे की शादी उससे करा दी। पता चला कि जीजा ने लड़की देखा था , तुमने नहीं। जीजा ने दहेज के लालच में शादी करा दी। बहू को देख-देखकर तुम कुढ़ती रहती थी। मुझे याद आया कि तुम्हें मेरे रंग से कितनी परेशानी थी। जब तुम्हारे देवर से मेरे रिश्ते की बात माँ ने की थी , तो तुमने यह कहकर साफ मना कर दिया था कि साँवली देवरानी नहीं चाहिए। यह कुदरत का दंड ही था कि तुम्हारी बेटियाँ भी मेरे ही रंग की थीं।  तुम्हारी तीनों बेटियों की शादियाँ भी जीजा जी की मर्जी से हुईं और तुम उनसे संतुष्ट नहीं थी। छोटी बेटी जब एक बेटी के जन्म के बाद ही विधवा हो गयी तो तुम टूट गयी। दामाद की दोनों किडनियाँ खराब हो गयी थीं। बेटी एक किडनी देने को तैयार थी , पर तुमने मना कर दिया क्योंकि उसके बाद भी दामाद के बचने की उम्मीद कम ही थी।  बाद में तुमने एक ऐसे व्यक्ति से बेटी की शादी करा दी, जिसकी पहली पत्नी से कोई संतान नहीं हो रही थी। मैंने उस शादी के लिए तुम्हें मना किया कि बिना पहली पत्नी को तलाक दिए वह शादी करेगा तो यह कानून के खिलाफ होगा , पर तुम कानून को नहीं मानती थी। गनीमत यह हुई कि बेटी को जल्द ही बेटा हो गया और उसकी शादी चल निकली। इधर सबसे बड़ा झटका तुम्हें अपनी इकलौती पोती को लेकर लगा था। पोती प्रेम में पड़ गयी थी , जो तुम्हारे लिए दुनिया का सबसे बड़ा अपराध था , इसलिए तुमने जल्द ही उसके लिए एक हीरो ढूंढा और उसकी शादी करा दी। यह हीरो भी मेरे हीरो जैसा ही निकला। पोती गोद में एक बच्ची लेकर लौट आई। तुम्हें इस बात का बहुत दुख था , यह बात तुम्हारे न रहने पर पोती ने बताया। तुमसे घंटों मेरी बात होती थी पर तुमने एक बार भी मुझे इन सबके बारे में नहीं बताया। मैंने भी कभी इन सबके बारे में नहीं पूछा । मैं तुम्हारे अपराध-बोध को नहीं बढ़ाना चाहती थी।


भाग छह

जब मैंने तुम्हें बताया कि हीरो मुझसे फिर जुड़ना चाहता है और इसके लिए बहुत प्रयास कर रहा है , तो तुम खुश हो गयी और मुझे सलाह दी-तुम उसे 'हाँ' कह दो।

-पर दीदी उसकी बीबी है बच्चे हैं।

--तो क्या हुआ ? वह तुम्हें अपने घर तो ले नहीं जाएगा। तुम्हारे घर आता-जाता रहेगा। समाज में तुम्हारी भी इज्जत बनी रहेगी कि पति आता रहता है।

-यानी मैं उसकी रखैल बन जाऊँ ?

--ऐसे क्यों सोचती हो, आखिर तुम्हारा तलाक भी तो नहीं हुआ है, फिर ब्याहता तो तुम ही हो न।

-तो फिर मेरे पूरे जीवन का संघर्ष तो व्यर्थ हो गया।

--क्या मिला तुम्हें बगावत करके ?अकेले तो पड़ गयी हो ।कोई पूछता है तुम्हें? भाई-बहन सब ऊपर से ही हँसते –बोलते हैं। अच्छा तो तुम्हें कोई नहीं कहता ।

मैं हैरान थी कि किस तरह की सोच है दीदी की ?इनसे भली तो माँ ही थी जिसने कम से कम मुझे नैतिक सपोर्ट तो दिया था।

उसने मुझसे कहा था कि हीरो से फिर जुड़ने की मत सोचना ।वह तुम्हारी काबिलियत , सुंदरता और पैसे से प्रभावित होकर तुमसे जुड़ना चाहेगा , पर जान लो चोटिल सर्प बहुत खतरनाक होता है ।वह तुम्हें बर्बाद करने के उद्देश्य से ही जुड़ना चाहेगा ।फिर अब तो उसका परिवार है , उसे तो वह छोड़ेगा नहीं फिर क्या फायदा ?

पर दीदी तुम, दूसरे भाई-बहन और रिश्तेदार सभी यही चाहते थे कि मैं हीरो की दूसरी औरत बन जाऊँ। मेरे अकेले रहने से सबकी प्रतिष्ठा पर आंच आ रही थी। सबका तर्क था कि मर्द की एक से अधिक पत्नियाँ हमेशा मान्य रही हैं , पर स्त्री का बिना पुरूष के रहना न मान्य है न स्वीकार्य ।

ये समाज स्त्री के प्रति कितना निर्मम है दीदी! तो

मैं भी ऐसे समाज की परवाह क्यों करूँ? जिस आदमी ने मुझे पढ़ने से रोकने के लिए पूरे समाज में मुझे यह कहकर बदनाम किया कि मैं अपनी महत्वाकांक्षा के कारण उसे छोड़ रही हूँ। जो तेजाब की शीशी लेकर घूमा कि मौका मिलते ही मुझे बदसूरत बना दे। जो मेरे हाथ- पैर तोड़कर घर में बैठा देने की सोचता था। जो मेरी माँ -बहनों को बदचलन और पिता -भाई को नामर्द कहता था, उससे मैं समझौता इसलिए कर लूं कि समाज अकेली स्त्री को अच्छा नहीं कहता, यह मुझसे नहीं हो सकता।

तुम मुझ पर दया दिखाती थी कि हारी- बीमारी में कोई देखभाल नहीं करेगा। मरने के बाद लाश सड़ती रहेगी । कोई दाह -संस्कार करने नहीं आएगा। दुनिया बिना स्वार्थ किसी की मदद नहीं करती।

तुम्हारी बातें अपनी जगह सही थी दीदी , पर आपात -काल की आशंका में आफ़त को आमंत्रित करना मुझे बुद्धिमानी नहीं लगती है।

तुम्हारे पास तो सब कुछ था। पति -परिवार, रिश्तेदार, समाज, फिर भी तुम बीमार पड़ी। कितना कष्ट झेलना पड़ा। एक- एक कर सारे अंगों ने काम करना बंद कर दिया। तुम्हारी यादाश्त लुप्त हो गयी और फिर तुमने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। असामान्य व असामयिक मौत नसीब हुई तुम्हें। तुम्हारा सब कुछ यहीं रह गया। कीमती जेवर -कपड़े, पति परिवार, समाज- संसार कोई तो नहीं गया तुम्हारे साथ। तुम्हारा अस्तित्व एक निर्जीव तस्वीर में सिमट कर रह गया। पति ने कहा--जैसी ईश्वर की मर्जी। बहू ने राहत की सांस ली। बेटियां रो -धोकर अपने घर वापस चली गयीं। भाई -बहनों ने यह कहकर शिकायत ही की --'बहुत कंजूस थी । बीमारी में हमने इतनी सेवा की , पर बदले में हमें कुछ देकर नहीं गयी। '

इसी दुनिया की परवाह करने की बात तुम करती थी दीदी। पूरा जीवन होम करके भी तुम्हें क्या मिला तुम्हें?जानलेवा बीमारी!समय से पहले मृत्यु !साठ साल क्या मरने की उम्र होती है ?माँ तो अस्सी पूरा करके और पूरी स्वस्थ अवस्था में मरी।

तुम्हारी मौत ने मुझे भीतर तक हिला दिया है दीदी। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद मैं तुम्हें बहुत प्यार करती थी दीदी।


भाग सात

जीजा जी को नीम -हकीमों पर ज्यादा विश्वास था। वे तुम्हारी गंभीर बीमारियों का इलाज भी उन्हीं से कराते रहे। अपने आगे वह किसी की भी बात नहीं सुनते थे। मर्द इगो उन पर हमेशा हावी रहा क्योंकि तुमने उस इगो को जीवन पर सहलाया था दीदी। हमेशा उनके अनुसार चली और ढली थी। तुम सती परम्परा का अनुसरण करने वाली स्त्री थी। पति ही परमेश्वर था तुम्हारे लिए। पर उसी परमेश्वर की झक का शिकार हो गयी तुम। अगर उन्होंने तुम्हें किसी बड़े डॉक्टर को दिखाया होता , ठीक से इलाज कराया होता तो तुम्हारी बीमारी इतनी बढ़ नहीं जाती। आजकल तो कैंसर का इलाज भी संभव है, फिर तुम ठीक क्यों नहीं हो पाई?किसी दूसरे बड़े शहर या विदेश तक जाने की तुम्हारी हैसियत थी, फिर भी तुम्हें भाग्य और लोकल इलाज के भरोसे छोड़ देना और तुम्हारी मौत का इंतजार करना कितनी बुध्दिमानी थी! खुद तुमसे पंद्रह साल बड़े थे जीजा और कहते थे कि तुम्हारी उम्र हो गयी है ऊपर जाने की।

भाई ने उन्हें सलाह दी थी कि किसी बड़े अस्पताल ले चलते हैं पर जीजा नहीं माने। तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो भाई जबरन ले गया अस्पताल। वहां तुम ठीक होने लगी थी , पर एक दिन तुमने घर लौटने की जिद की और जीजा तुम्हें वापस घर लेते आए। तुम्हारी हालत बिगड़ गई और फिर तुमने सबको अलविदा कह दिया।

मैं इसे स्वाभाविक मौत नहीं मानती। तुम्हारी मौत का जिम्मेदार तुम्हारा पति -परमेश्वर ही है।

तुम बचपन में खेल -कूद नहीं पाई। किशोरावस्था में ब्याह दी गयी। यौवन में अधेड़ पति का साथ मिला। तुम न देश -विदेश घूमी , न अपनी मर्जी से जी पाई। न प्यार किया न दोस्ती। एकमात्र पति ही पहला और आखिरी पुरुष था तुम्हारे जीवन में। तुम्हारे सारे शौक अधूरे रह गए। तुम अपने जीवन से कितना खुश थी, मैं नहीं जान पाई, पर मैं तुम्हारी जगह होती तो खुश नहीं रह पाती। मैं अकेली हूँ फिर भी जिंदगी को अपने ढंग से जीया तो है। अपनी मर्जी से खा -पी सकती हूँ , घूम -फिर सकती हूँ। मैंने दोस्ती की , प्यार किया और भी अपनी मर्जी से बहुत -कुछ किया। तुम तो फोन के बैलेंस के लिए भी जीजा की मोहताज रही। अपनी मर्जी से किसी को न कुछ दे सकती थी, न किसी से मिल सकती थी। तुम कुएँ की मेढकी बनकर जीती रही। नहीं दीदी, मैं इस तरह की जिन्दगी को बेहतर नहीं मानती। यह सच है कि तुममें संघर्ष का माद्दा नहीं था। तुम सुकुमार थी, सुविधाओं की आदी थी। पढ़ी -लिखी भी कम थी, अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कोई हुनर नहीं था तुममें । तुम्हारा दिमाग भी सोच -विचार का प्रेशर नहीं ले पाता था, शायद इसलिए भी तुम समझौता कर लेती थी और कोई रास्ता तुम्हें नज़र नहीं आता था। पर रास्ता निकल आता है दीदी, जब इंसान चाह लेता है। खैर अब क्या, अब तो सब खत्म हो गया। सिर्फ बातें रह गयीं ..यादें रह गयीं ।

तुम माँ की पहली संतान थी इसलिए उन्हें विशेष प्यारी थी। पिता माँ को तुम्हारे नाम से (बेबी की मां )कहकर पुकारते थे। तुम समाज को प्यारी थी क्योंकि तुमने पिता और पति दोनों कुलों की लाज रखी थी। हमेशा लीक पर चली । परम्पराओं का पालन किया। तुम वास्तव में सती थी दीदी, पर तुमने अपनी स्त्री के लिए क्या किया?काश तुम समझ सकती कि तुमने अपने साथ कितना अन्याय किया है!

तुम मेरी प्रेरणा थी, पर पारम्परिक अर्थ में नहीं। बचपन में तुम रूप -रंग के कारण मेरी उपेक्षा करती थी, इसलिए मैंने पढ़ाई से तुमसे ऊपर उठने का प्रयास किया। तुमने बच्चे पैदा किए, मैंने किताबें लिखीं। तुमने अपना छोटा समाज बनाया , मैंने एक वृहत्तर समाज। तुम सती बनी मैं स्वतन्त्र स्त्री । पता नहीं दीदी तुम जीती या मैं हारी। पर तुम्हारा इतनी जल्दी जाना मेरी सबसे बड़ी हार है क्योंकि मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाई दीदी। मुझे माफ कर देना दीदी । मेरी इस कहानी को अपनी श्रद्धान्जलि समझना और अपनी अलौकिक दुनिया से मुझे प्रेरणा देती रहना।

अलविदा दीदी।



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