डॉ मंजु गुप्ता

Inspirational

4.5  

डॉ मंजु गुप्ता

Inspirational

युग पुरुष स्व .प्रेमपाल वार्ष्णेय

युग पुरुष स्व .प्रेमपाल वार्ष्णेय

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युग पुरुष स्व. प्रेमपाल वार्ष्णेय का व्यक्तित्व - कृतित्व जीवनी

  शख्स तो हर कोई होता है , लेकिन शख्शियत इंसान को खुद बनानी पड़ती है ।ऐसे ही कामयाबी की मिसाल युग पुरुष हमारे पिताजी स्व .प्रेमपाल वार्ष्णेय जी हैं ,जिन्होंने अपने कृतित्व गुणों , कार्यों से अपना प्रभवशाली व्यक्तित्व को खुद गुना था। उन्होंने ऋषिकेश , उत्तराखण्ड में अपनी शिक्षा , योग्यता, कर्मठता , परिश्रम, पुरुषार्थ, देश - प्रेम , देश भक्ति औरराष्ट्रवाद से अपना मुकाम समाज में बनाया था । ऋषिकेश समाज उनका सदा ऋणी है, रहेगा।   हर इंसान का व्यक्तित्व सेल्फ मेड होता है। ऋषिकेश गंगा - जमुनी तहजीब , विविध संस्कृति , खान -पान , वेश -भूषा , भाषा आदि और आध्यात्मिक, दार्शनिक , पैराणिक , धार्मिक शक्तियों का केंद्र है, जहाँ पर विभिन्न वर्ग , जातियों , धर्म , संप्रदाय , सामाजिक समरसता , बुद्धिजीवियों , देश - विश्व की हस्तियों , संतों , महापुरुषों का समागम होता रहता है। ऐसे में हमारे पिताजी ने निराक्षर ऋषिकेश में शैक्षिकक्रांति करके सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहाड़ी, गढ़वाली , पंजाबी , मुस्लिम , बंगाली , हिंदू , सनातन भारतीय संस्कृति को जोड़ा। उन सबसे पारिवारिक जुड़ाव रखना ,समाज के चतुर्थ श्रेणी के दलित, कुचले , शोषित वर्गों ,हरिजनों को मुख्य धारा से जोड़ने , शिक्षित करने के लिए उन्हें गले लगाने का काम किया ।         

आज के हाइटेक जमाने में उनके ललाटेन वाले जमाने में सूरज जैसे तपते हुए कर्मठ योगी , परिश्रमी, अनुशासन प्रिय , प्रकाशमान, नैतिक आचरण से सराबोर, उन्नायक चरित्र , पुरुषार्थी, परोपकारी व्यक्तित्व को उनकी जीवनी में गुनने का गिलहरी जैसा प्रयास किया है, जिससे समाज , देश , विश्व के लोग , प्रबुद्ध वर्ग , नवांकुर साहित्य के साधक और पाठक प्रेरित हो , ऊर्जा , सकारात्मक सोच से भरें। आज के नव भारत के युवा सभी भारतवासी , संसार के बाल , बड़े राष्ट्र - प्रेम , राष्ट्र -भक्ति शिक्षा, ज्ञान के बल पर कुछ नया करने की क्षमता से अपना और देश का नवनिर्माण करके राष्ट्र को आगे बढ़ाएँ और भारत आध्यात्मिक गुरु के रूप में पुनः प्रतिष्ठित हो सके।     पराधीन भारत में जहाँ अंग्रेजों की हुकूमत चलती थी ।अधर्म ,अन्याय , अत्याचार , अशिक्षा , अनैतिकता , अंधविश्वास , क्रूरता, हिंसा , छुआछूत आदि सामाजिक बुराइयों का बोलबाला था और अँग्रेजी सत्ता भारतीय सभ्यता -संस्कृति , शोषण , उत्पीड़न , भाषाओं को नष्ट करने में लगे हुयी थी । ऐसे नाकारात्मक , निराशा , नैराश्य के घोर अंधकार में आशा , खुशियों की हवा अलीगढ़ के साखनी गाँव , उत्तरप्रदेश के जमींदार हमारे दादा जी लाला प्रसादी लाल के आँगन में बही । हमारी दादी चम्पा देवी की कोख से सुनहरी तारीख 21 सितम्बर 1918 को लाडली आठवीं अंतिम संतान प्रेमपाल जैसे लाल को जन्म दिया ,तब खुशियों की सुखद लहर पूरे गाँव में सोहर के गीतों को निमंत्रण दे रही थी । गुलाम भारत के आजाद मलय समीर में उनका मस्त बचपन शस्य - श्यामला , हरे भरे खेत , खलिहानों में , धूल भरी मिट्टी , टेढ़ी मेड़ी पथरीली पगडंडियों की तरह जीवन की कठिन राहों , संघर्षों के बीच , पसीना बहाते श्रमजीवियों , किसानों के बीच गुजरा । बाल्यकाल में नन्हें से बालक प्रेमपाल जी ने गाँव की पाठशाला में वृक्षों के नीचे बैठकर ओरकृति के सानिध्य में अपने गुरुओं से आरम्भिक शिक्षा ली ।  वे अपने माता -पिता के सानिध्य में मानव मूल्यों , अनुशासन , देश- भक्ति , देश - प्रेम , नैतिक मूल्यों , आदर्शों , सिद्धांतों , संस्कारों की नींव पर अपना व्यक्तित्व को गढ़ रहे थे, वहीं उन्होंने शोषित -गुलाम भारत की गरीबी , अशिक्षा , पिछड़ेपन , उत्पीड़न , सामाजिक अन्याय से पीड़ित समाज , राष्ट्र को देखा । ऐसी गुलाम भारत की विषम परिस्थितियों से जूझने के लिए , अशिक्षा को मिटाने के लिए शिक्षा को सशक्त अस्त्र मान कर यौवन के उत्साहित कदमों से अपना लक्ष्य साधने अलीगढ़ के डी. एस कॉलिज में उच्च शिक्षा के लिए प्रस्थान किया । वे व्यवहार कुशल , मृदुभाषी, मेधावी होने की वजह से सभी गुरुओं , दोस्तों के शीघ्र चहते बन गए । उनका आकर्षक लंबा चेहरा , शारीरिक तंदुरुस्ती , बलिष्ठ भुजाएँ , कमानदार भौंहे , बादाम -सी बड़ी - बड़ी आँखें , लम्बी नाक , लंबा कद , श्यामल रंग , दाड़िम -से जड़े श्वेत दाँत उनकी खूबसूरती के गवाह थे , वहीं उन्होंने फुटबॉल , वालीबॉल , क्रिकेट से नाता जोड़ा और बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में चर्चित हो के कई शील्ड , पुरस्कार प्राप्त किए।  वे अपने शैक्षिक प्रशिक्षण के सपनों को साकार करने झीलों के शहर उदयपुर , राजस्थान में कालू श्रीमाली जो सी.टी कॉलेज के हेड , प्रधानाचार्य थे । उन से प्रशिक्षण ले कर सी.टी की डिग्री हासिल की, जहाँ कैरियर की नई दिशा नया अनुभव ले वापस अपने पैतृक घर साखनी लौटे । उनके  माँ - पिता ने अतरौली , उत्तरप्रदेश घराने की खूबसूरत और उदार दिल की विदूषी , प्रतिभा की धनी, गौरी - चिट्टी लाडली बेटी शांति देवी वार्ष्णेय से विवाह बंधन में बाँध दिया । ऊर्जा से भरा यह नव युगल भारत छोड़ो आंदोलन के समय सन्1942 में महात्मा गांधी जी के विचारों से प्रभावित होकर अलीगढ़ से माँ गंगा की पावन देवनगरी ऋषिकेश, उत्तराखण्ड में आए और 'श्री भारत मन्दिर कॉलेज' में पिता प्रेमपाल जी ने प्रचार्य के पद पर कार्यरत हुए ।वे इतिहास , अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान थे । उन्हें अंग्रेजी, उर्दू , ब्रज भाषा , उर्दू और हिंदी भाषा में बोलने -लिखने में महारत हासिल थी। उनके हिंदी, अंग्रेजी के ड्राफ्ट की भाषा , शैली को पढ़कर विद्वानजन प्रभावित होते थे । उन्होंने विविध कार्यों जैसे श्रम -दान , स्वच्छता अभियान , वृक्षारोपण , पर्यावरण और शिक्षा आदि आयामों को विस्तार दे के ऋषिकेश , उत्तराखण्ड को अपनी कर्मस्थली बना के समाज विकास और राष्ट्र के नव निर्माण में जुट गए । उन्होंने अपनी रचनात्मक ऊर्जा , बहुआयामी सोच से नवांकुरित स्कूल को नयी दिशा दी । अच्छे वक्ता और लेखक होने के कारण विविध सामाजिक कार्यक्रमों में छात्र - छात्राएँ , समाज उनके भाषण सुनने को आता था । 1962 में भारत चीन युद्ध से पहले भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ऋषिजकेश मेंसामाजिक , राजनैतिक कारणों से गढ़वाल के उरई इलाकों जैसे तिहार , नरेंद्र नगर , बद्रीनाथ , केदारनाथ , जिशिमथ , रुद्रप्रयाग आदि स्थानों में आते थे , तब इन्होंने राष्ट्रपति जी की शान में अपना देशभक्ति से भरा ओजस्वी भाषण दिया था और मैंने तब स्वागत गान गाया था , जो इस प्रकार है

" स्वागत है श्रीमान आपका आए बनकर कृपा निधान युग - युग तक गाएँगे गान जय - जय राष्ट्रपति महान . "  उन्होंनें मुझे तब आशीर्वाद दिया था , जो मेरे जीवन में फल - फूल रहा है , जिसका प्रमाण मेरी तस्वीर है।आज यह भरत मंदिर कॉलिज डिग्री कॉलिज बन गया । हाल ही में 'भरत मंदिर कॉलिज ' की 'हीरक जयंती' भी मनायी गयी थी,वहाँ पर उनकी अनेक गणमान्य शख़्शियतों के साथ हॉल की दीवारों पर उनके व्यक्तित्व की तस्वीर राष्ट्र -प्रेम , राष्ट्र विकास ,अतीत की शैक्षिक क्रांति को दर्शाती है। यह सम्मान , आदर उनके सकारात्मक, रचनात्मक कार्यों को दर्शाता है।    ऋषिकेश में देश , विदेश की महान हस्तियों का ऋषिकेश में आना जाना लगा रहता था। उत्तराखण्ड में जाने के लिए उन हस्तियों का पड़ाव होता था , जहाँ पर भारत के प्रथम राष्ट्रपति मा.श्री राजेन्द्र प्रसाद जी , महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री निवास , उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री चन्द्रभान गुप्त आदि का उन्हें सान्निध्य मिला । स्कूल कॉलिज के विद्यार्थियों के द्वारा उन विभूतियों के स्वागत में उनकी अग्रणीय भूमिका रहती थी और उनके लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम में राज्य की सांस्कृतिक विशेषताओं की झलकियाँ दर्शायी जाती थी।   युग पुरुष हमारे पिताजी स्व प्रेमपाल वार्ष्णेय जी समाज , राष्ट्र हम सबके लिए आदर्श , प्रेरणास्रोत रहे हैं । माँ , पिता ने मिलकर ऋषिकेश , उत्तराखण्ड में 1942 में शैक्षिक क्रांति की थी, जहाँ अज्ञान , अंधविश्वास का घना अंधकार छाया हुआ था । हमारे तीन भाई , चार बहनों के साथ पूरे समाज को शिक्षा के आभूषण पहनाए । उस गुलाम भारत में 'बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ' , भ्रूण हत्या रोकने , स्वच्छता अभियान की नींव रखी । समाज की बेटियों को शिक्षित करने हेतु हम बहनों की शिक्षा की मिसाल से पिताजी ने समाज में लैंगिक भेद-भाव की खाई को पाटी थी ।  गुलामी के काले अज्ञान के दौर में साकारात्मक सोच , संकल्प , शैक्षिक गतिविधियों से विषम परिस्थितियों में सूरज की तरह तपकर साक्षरता के बीज बोए थे । समाज को जागरूक कर के अपना कर्तव्य निभाया। सु -मन संकल्प से जात -पाँत , भेदभव परम् ऊपर उठ कर मनावता के धर्म को परम सर्वोपरि माना। आज भी उनका जीवन -दर्शन , आदर्श समाज को प्रेरित करता है । यह बात मुझे तब पता लगी जब मैं अपने जन्मस्थान ऋषिकेश गयी और दुकानों से शॉपिंग कर रही थी उनके शिष्यों के बच्चों ने उनके कार्यों व्यक्तित्व के बारे में बताया । यह सुनकर सीना गर्वित हो गया। ऐसे ही मैं अपने पिता के ऊर्जावान संस्मरण फेसबुक , व्हाट्सएप पर डालती हूँ तो उनसे नयी पीढ़ी के लेखक तो उत्साहित, प्रेरित होते हैं , कलमकार उनके ईमानदारी , करुणा , मैत्री, प्यार जैसे वैदिक , दैवीय गुणों से भरे किस्से भी बताते हैं। मुझे खुशी होती है कि उनके वैकुंठ चले जाने पर भी उनके नैतिक बल , मूल्यों की दौलत को सामाज नहीं भूला है । किसी भी राष्ट्र का निर्माण चरित्र बल की शक्ति से होता है। मूल्यों के पतन से संसार के कितने देशों की सभ्यता , संस्कृति नष्ट हो गयी।आज भारत की व्यवस्था को , नव पीढ़ी को इन्हीं मूल्यों को धारने की जरूरत है। कहा भी है कि राष्ट्र का उत्थान , निर्माण वहाँ के रहने वाकई लोगों के चरित्र पर निर्भर है।  भारत माँ के इस बेटे ने समाज में मरी हुई चेतना को जाग्रत करने देश -भक्ति , देश -प्रेम से सराबोर हो कर छात्र -छात्राओं , शिक्षकगणों के साथ आज़ादी के गीत गाते हुए प्रभात फेरी निकाली थी । मेरे पास रखी फोटो इसका प्रमाण है । राष्ट्रीय पर्वों जैसे पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी यानी गणतंत्र दिवस पर पूरे स्कूल के छात्र -छात्राओं के संग देश भक्ति की उमंग, जोश से भरे जलूस सड़कों पर निकाले थे। , जिससे समाज में राष्ट्रीयता का भाव मुखर हो।

  वे हमारे पिता ही नहीं थे बल्कि वे पूरे समाज ,राष्ट्र के लिए ईश का आशीर्वाद थे।मंदिरों का नगर ऋषिकेश की पौराणिक , आध्यात्मिक , ऐतिहासिक तीर्थ स्थली में संत बिनोबा भावे जी के भूदान आंदोलन से प्रेरित हो के उनके जमींदार पिता ने साखनी की जमीन दान की थी । ऋषिकेश की गंगा घाट के लिए उबाड़ , खाबड़ चट्टानी जमीन पर अपने शिष्यों के साथ श्रम - दान करके ऋषिकेशवासियों के लिए पावन माँ गंगा के स्नान , दर्शन करने के लिए अपने शिष्यों के साथ पथरीली जमीन को फावड़े से खोद के विशालकाय पत्थरों से सीढ़ियाँ बनायी थी । आज भी उसका प्रमाण विद्यमान है , जब मैं ऋषिकेश जाती हूँ , उन्हीं सीढ़ियों से गंगा स्नान के लिए जाती हूँ । शिक्षकों के साथ विद्यालय के विद्यार्थियों को जब वे पिकनिक पर ले जाते थे , रास्ते में पेड़ों , पहाड़ों , पक्षियों के माध्यम से दृश्य , श्रव्य सामग्री की तरह प्रयोग करके अँग्रेजी और हिंदी की व्याकरण,कारक चिन्हों , संज्ञा , सर्वानाम आदि के पाठ को सरलता से सीखा देते थे। अनुशासन की वे घड़ी थे । समय का पालन करने में कोताही नहीं बरते थे। समय से पहले काम करना पसंद करते थे ।इलाहाबाद बोर्ड का दसवीं का रिजल्ट बनाने के लिए भोर में उठ के उनकी कड़ी मेहनत , पारदर्शिता टेबुलेशन वर्क के विशाल रजिस्टर में हर विषय के नम्बरों को लिखना फिर रिजल्ट बनाने में उनकी एकाग्रता , संयम , कुशाग्र बुद्धि, धैर्य का परिचय हमें मिला ।   छह दशक का कालखण्ड तक शिक्षा का भगीरथ बन आध्यात्मिक , निरक्षर ऋषिकेश में हमारे खादी धारक माता - पिता ने ज्ञान , चेतना , मूल्यों की शैक्षिक क्रांति की गंगा बहा करके कई पीढ़ियों को साक्षर किया ।   आप अस्पृश्यता के विकट विरोधी थे, गांधीवादी विचारधारा के महान समर्थक आप दोनों ने टीम बना कर पिछड़ा वर्ग , दलितों और हरिजनों की बस्तियों में जाके उनको पढ़ाते, सिखाते ,साफ - सुथरा रहना और बताते कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं तो फिर भेदभाव क्यों? होली पर उन्हें गुलाल लगाके , मां जे हाथों की बनी गुजिया को खिला के समरसता की धार बहाते थे ।        स्वच्छता , श्रमदान का आपके जीवन में बहुत महत्व था। आप छात्रों की टोलियाँ बना- बना कर हरिजन बस्तियों मे समय - समय पर जा कर वहाँ की सफाई करते, गंगा मैय्या के घाट पर जाकर स्वच्छता अभियान चलाया करते थे। वन महोत्सव पर हर छात्र - छात्राओं से वृक्षारोपण करा के भारतीय वन संस्कृति को पल्लवित , पोषित किया जाता था जिससे पर्यावरण संतुलित, सुरक्षित रखने का संदेश देते थे।   सन् 1952 में आप व हमारी प्यारी माँ विनोबा भावे जी के भूदान आंदोलन से जुड़ गए ।गांधी वादी विचारों पर चलते हुए चरखा संस्कृति जैसे रचनात्मक कार्यों को प्रयोग में ला कर समाज उत्थान में लगे रहे। स्वदेशी वस्त्रों को बनाने और पहनने का अलख जगाया । विदेशी कपड़ों होली जला क़रअसहयोग आंदोलन को हवा दी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनुयायी थे और एक कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में माँ -पिता दोनों ही ताउम्र समाज सेवक बने रहे। पिता जी की महिमा में दोहे में कहती हूँ -  उपकारों के तात का, नही, ओर औ’ छोर।पिता-पुत्र के बीच-सी, कहीं न मिलती डोर।।

खिला- खिला कर गोद में, करते हमको प्यार। .पूरी ख्वाहिश कर सभी , करते खूब दुलार ।

बनकर घोड़ा, खेलते, बच्चों से हर हाल ।भर के गागर, प्रेम की , बचपन करें निहाल ।

पालक जीवनक्रम के, करते सारे काम।पग चलना सीखा प्रथम, पिता- अँगुलिया थाम।  - डॉ .मंजु गुप्ता      हमारे पिता श्री स्वामी दयानंद सरस्वती जी के आर्यसमाज के समर्थक थे, वे कहा करते थे कि " वेदों का डंका बजा दिया जगत में, ऋषि दयानंद ने" , समय - समय पर कॉलेज , घर पर हवन कार्य संपन्न होते रहते थे, लेकिन ईश्वर पर गहरी आस्था थी । हमारी माता जी सनातन धर्म की उपासक थीं और मूर्ति पूजक थीं , लेकिन दोनों कि आपसी मानसिकता मे अपूर्व धार्मिक सामंजस्य था। हम सब पूरा परिवार मिलकर हवन भी करते थे ।   माता श्री के संग भोर में उठाकर गंगा स्नान करना , नवरात्रे उपवास रखना , सावन के सोमवार व्रत आदि की सभी पर्व को मनाने की संस्कृति को सिखाया । हमने उन पर्वों को माना, अमल किया और भारतीय संस्कृति को सहजा है । वे तो आज भी हम सब के , देश , समाज के सुख - दुःख में शामिल हैं । आज उनके आशीर्वादों की फुहारें मेरे लेखन में बरस रही हैं , उनकी असीम दुआओं आशीषों से ऋषिकेश समाज , हमारा पूरा ऋषिकेश परिवार बेहतर और सब बच्चे , नयी पीढ़ी खुशहाल ,संपन्न हैं । मुसीबतों की सुनामी , प्राकृतिक अपदाओं आदि में वे तो राम और कृष्ण की तरह समाज का ,हमारा मार्गदर्शन करते हैं। तन - मन - धन से सहयोग करते थे । वह तो खुद ही संस्कारों - आदर्शों के गतिशील संस्था थें । उनके कार्यों में मूल्यों मर्यादित जीवन जीने की छाप दिखायी देती है। आज भी समाज उनके आदर्शों को मानता है। हमारे पिताजी श्रद्धेय प्रेमपाल वार्ष्णेय जी के कृतित्व - व्यक्तित्व पर कविता के रूप में अभिव्यक्ति कर रही हूँ । उनको मेरा कोटि - कोटि नमन । वे ऋषिकेश में शैक्षिक क्रांति के जन्मदाता , सामाजिक कार्यकर्ता , समाज सुधारक, दार्शनिक , चिंतक , विचारक , उत्कृष्ट वक्ता, कुशल प्रशासक, शिक्षाविद थे ।भारतीय संस्कृति से परिवार , समाज जुड़े तो हमारे माता -पिता हर त्यौहार को मनाते थे ।अध्यात्मिक पर्व नवरात्रे पर हमारी माँ - पिताजी कलश स्थापित कर के पूरी ऊर्जा , श्रद्धा से नवरात्रे में दुर्गा सप्शती के पाठों को खुद पढ़कर अनुष्ठान करते थे और पावन मन्त्रों की गूँज से घर , परिवेश के संग आध्यात्म की नगरी ऋषिकेश की चारों दिशाएँ साकारत्मक ऊर्जा , शुद्धता, समरसता के मंगल भावों से गूँजती थी ।मंगला आरती करते थे । घण्टी की स्वरलहरियों , साकारत्मक ऊर्जा साथ जो सारी दुनिया, देश के कल्याण में सहायक होती हैं , समस्याओं , दुख , कष्टों का निवारण होता है । समूचे बिखरे हुए मायूस परिवारों , मजहबी लोगों में एकता भाईचारे प्रेम की ऊर्जा परोसती थीं , जो जीवन में नई उमंग , नयी ऊर्जा , नया उत्साह से भर देते थे । माँ देवी शारदा के दर्शन से भक्तों के पाप कट जाते हैं और जीवन में सफलता प्राप्त करते । हमारे माता - पिता ने आस्था की दुर्गा सप्शती के पाठों के मंत्रों का करोड़ों की संख्या में जपा है । पिता जी के द्वारा लिखी डायरी में उसका साक्ष्य है ।   माँ हमेशा उपवास में हम सब के लिए तरह , तरह के व्यंजन पोस्त , नारियल , मूंगफली की बर्फी , चौलाई के लड्डू , कुटु की पूरी पकोड़े आदि बना के खिलाती थी । ये सब मैं भी बनाती हूँ । जिससे नयी पीढ़ी भी स्वाद के साथ नवरात्रि यानी आदिशक्ति की आध्यात्म की ऊर्जा से सराबोर हो के समाज , देश , विश्व का देवी माँ की तरह कल्याण करें । माँ से लिये संस्कृति के संस्कारों को नवरात्रे पर उपवास करके मनाती हूँ , जिससे नयी पीढ़ी भी सीख के उत्साहित हो के मनाए। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता हैकी परंपरा को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित करना।देश , समाज में हमें कई अवसरों पर युवा शक्ति की असहिष्णुता हमें देखने को मिलती है , हाल ही मेंतारीख 26 जनवरी 2021 को गणतंत्र दिवस पर्व पर कुछ शरारती , असामाजिक तत्वों ने लाल किले पर देश के निशान का अपमान किया । ऐसे गद्दारों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए । हर माँको कोख से ही नैतिक संस्कार देन होंगे जैसे वैदिक कालीन नारियाँ कोख से ही वेदों के पाठ को पढ़ के आने वाले शिशु पर अच्छे मूल्य , संस्कारों का असर पड़ता था।

पिता जी से मुझे पर्यावरण के प्रति जागरूकता की प्रेरणा मिली । जब मैं स्कूल में शिक्षिका थी ,तब अन्तरशालीय वृक्षारोपण करवाती थी। हम सब शिक्षिकाएँ अपने स्कूल के छात्रों के साथ अन्य स्कूलों के विद्यार्थियों के संग आम , नारियल , जामुन , मेडिसिन पौधे आदि लगाते थे। पर्यावरण बचाने हेतु मैंने अपनी छत पर जैविक बगीचा भी बनाया है। मेरा पर्यावरण हेतु बगीचे का साक्षात्कार हुआ है अखबार में प्रकाशित हुआ।

 हमारे पिताजी कृषि के पीरियड में समूह में छात्रों को बाँटकर खाली जमीन पर क्यारियाँ बनाकर फूल – सब्जियाँ आदि के बीज , पौध लगाकर व्यावहारिक रूप से कृषि ज्ञान को जाने , इसे बढ़ावा देते थे , जिससे हर बच्चा प्रकृति से जुड़े और पर्यावरण के संरक्षित कर पर्यावरण के महत्त्व को जाने।

 गुलाम भारत में गोरों के शासन की क्रूर विषमताओं , प्रतिकूलताओं , विकृतियों में समाज में शिक्षा की ज्योत जलाकर हम सब भाई – बहनों के साथ पूरे समाज को शिक्षा के आभूषण पहनाए । उस गुलाम भारत में 'बेटी बचाओ - बेटी 

पढ़ाओ ' और ‘ भ्रूण हत्या पर रोक ’ लगाने की नींव रखी ।इस खाई को को हम बहनों , समाज की बेटियों से पिताजी ने पाटी थी । हम चार बहनें अब सेवा निवृत्त प्रोफेसर हैं और दो भाई आई.ए.एस और एक भाई वकील हैं । बहुमुखी प्रतिभावान बड़े भाई स्व विजय कुमार वार्ष्णेय जी , सेवा निवृत आई.ए.एस का देहांत तीन वर्ष पूर्व हो गया । उनकी सेवाओं से समाज , राष्ट्र ऋणी है । 

उनके द्वारा स्थापित प्रेरणात्मक रश्मियों के सदृश शैक्षणिक आलोक , मानवीय मूल्य छात्र – छात्रों , समाज , बाल - युवा , बड़े – बूढ़े हर व्यक्ति को प्रकाशित , ऊर्जस्वित करता है। उन्होंने घर और स्कूल की दीवारों पर मूल्यों , सुविचारों के पोस्टर खुद अपनी कलम से लिख के लगाए थे , वे इन पर अमल भी करते थे, उनकी कथनी – करनी में अंतर नहीं होता था । उनका चार दशक का कालखंड शैक्षिक गतिविधियों से ओत – प्रोत रहा था ।

इन्हीं सुविचारों से मैं प्रेरित हुयी ,मैं साहित्यकार होने के नाते विभिन्न मंचों जैसे स्टोरी मिरर, फेसबुक आदि पर स्वरचित सुविचार प्रेषित करती हूँ।

 

 छात्रों को इस तरह के ज्ञान के श्लोक सिखाते थे, जिससे उनमें नैतिक मूल्य बढ़ें जैसे – 

 विद्या ददाति विनयं , 

 विनयाद् याति पात्रताम्,

पात्रत्वात् धनमान्पोती ,

धनात् धर्मं ततः सुखम् ।।

वे हर कक्षा में जाकर छात्रों को दोनों हाथ जोड़कर हृदय के पास रख के यानी अनाहत चक्र पर नमस्ते करना सिखाते थे और नमस्ते की संधि विच्छेद करके कहते थे -

नमः + ते 

जिसका अर्थ वे कहते थे , सबको झुक कर नमस्ते करता हूँ । झुकने से इंसान का सारा अहं , कुंठा अहंकार , घमंड, दूर हो जाता है । यानी विनम्र हो जाना है ।

 सदियों से भारतीय संस्कृति में नमस्ते , प्रणाम नमन , अभिवादन का सांस्कृतिक आध्यात्मिक, सामाजिक , नैतिक महत्त्व है , यह भारतीय संस्ष्टाकृति के शिष्टाचार में आता है , हिंदू परिवार अपने बच्चों को संस्कारों में नमस्ते करना सिखाता है । आत्मीय जन आपस में कहीं भी मिलते हैं या विदा होते हैं तो एक दूसरे को नमन का संबोधन करके उनका ध्यान अपनी और आकृष्ट करके उनका सम्मान , आदर करते हैं , बच्चे अपने से बड़ों को नमस्ते करते हैं । पत्राचार में भी अपने से बड़ों को नमस्ते लिखते हैं । पूजा स्थल , मंदिरों में प्रभु के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं ।

स्कूल की प्रार्थनासभा में सभी छात्र , शिक्षक हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं । छात्र शिक्षकों को नमस्ते करते हैं । 

 नमस्ते का अध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्व है । बड़े लोगों को छोटे जब नमस्ते करते हैं तब उन्हें आशीषें मिलती हैं । नमस्ते का संस्कृत में नम शब्द है जिसका हिंदी अर्थ नमस्कार , समर्पण है , मेरा नहीं यानी सब कुछ संसार में ईश्वर का है , फिर घमंड किस बात का है ? अपने आप को प्रभु के समक्ष या किसी के प्रति झुक जाना , झुकना ही अहं विकार से कोसो दूर इंसान को रखता है । नमस्ते करने से इंसान अपने बिगड़े काम भी आसानी से करवा सकता है , संबंधों की दरारों को पाट सकता है । 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नमस्ते का महत्त्व व्यापक है । वैश्विक महामारी कोरोना काल में नमस्ते की महिमा वैश्विक हो के अपार हो गयी है , क्योंकि विश्व मंच पर पाश्चात्य संस्कृति के लोग पहले हाथ मिला के अभिवादन करते थे , लेकिन अब कोरोना संक्रमण के दौर में हाथ मिलाने से ख़तरा मोल नहीं ले रहे हैं बल्कि अपने हाथ जोड़ के अभिवादन करते हैं , भारतीय संस्कृति की नमस्ते को समाज राष्ट्र , विश्व के लोग पसंद कर रहे हैं , जिससे कोरोना वायरस सामाजिक दूरी होने से पास नहीं फटकता है । आपस में हाथ मिलाने से कोरोना वायरस का संपर्क हाथों में आसानी से हाथ को छू कर संक्रमण कर सकता है।वैश्विक मंच पर नमस्ते का महत्त्व हमारे प्रधानमंत्री महामहिम श्री नरेंद्र मोदी जी ने और बढ़ा दिया है , वे राष्ट्र – प्रमुख , अध्यक्षों से हाथ नहीं मिलाके हाथ जोड़कर नमस्ते करते हैं , तब से नमस्ते वैश्विक स्तर पर फेशन का रूप भी बन गया है । पाश्चात्य संस्कृति में पले अब सभी ये सितारे नमस्ते करने लगे हैं । 

 दूरदर्शन पर मैं देखती हूँ कि महामहिम प्रधानमंत्री मोदी जी विश्व के राष्ट्र प्रमुखों , भारत की जनता को विभिन्न कार्यक्रमों में नमस्ते करते हुए संबोधित करते हैं तो मुझे अपने पिता जी का स्मरण हो जाता है कि वे भी सामाजिक कार्यक्रमों में लोगों को नमस्ते करके अपनी मन की बात करते हैं और हर छात्र – छात्राओं को नमस्ते करके भारतीय संस्कृति की इस विरासत को नई पीढ़ी तक पहुँचाया । 

भारतीय योग शास्त्र में नमस्ते योग मुद्रा भी है, जिसे ‘अंजलि मुद्रा’ भी कहते हैं , हमारी हाथ की अंगुलियाँ – अंगूठा में पंच तत्व जैसे अग्नि , वायु , जल , धरती , आकाश तत्व होते हैं , हाथ जोड़ने से ये पाँचों तत्व ऊर्जास्वित होकर हमें ऊर्जा देते हैं , नमस्ते हमारे अनाहत चक्र की ग्रंथि को क्रियाशील करके सकारात्मक बनाता है, जो हमारे में शांति के भाव को जाग्रत करता है , तनावों को दूर करता है और नमस्ते कई बीमारियों की दवा भी है ।

 इस तरह से हमारे पिताजी समाज में , विद्यार्थियों को नमस्ते की महत्ता , गुणों के बारे में बताते थे । 

मैंने पिताजी के नमन करने का संस्कार पाया है । मैं आज भी सब आत्मीय जनों , बच्चों ,सोशल मीडिया के मंच पर नमस्कार से शुरुआत करके अपनी रचना प्रेषित करती हूँ।

पिता जी की शिक्षाएँ तो आज भी हम सब के , देश , समाज के सुख - दुःख में शामिल हैं । आज उनके आशीर्वादों की फुहारें समाज , परिवार , मेरे लेखन में बरस रही हैं , उनकी असीम दुआओं , आशीषों , संस्कारों की विरासत से हमारा पूरा ऋषिकेश नगर , हमारा ऋषिकेश परिवार की प्रगति , उन्नति में बेहतर और सब संपन्न हुए हैं । उन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’

की सनातन अवधारणा को अपने व्यवहार में लाकर के ऋषिकेश समाज में नयी चेतना जाग्रत कर के मानवता को साकार किया था ।

 समय – समय पर वे तो प्रभु राम और कृष्ण की तरह हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं । वह तो खुद ही संस्कारों - आदर्शों की गतिवान संस्था थे । 

  गीता के इस श्लोक को ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ’ को अपने जीवन का सूत्र माना था ।हम अपने पिताजी की सहृदयता , संस्कार , मूल्य , मानवीयता और कुशल नेतृत्व के परिणाम से ही हम सभी भाई – बहन ने समाज राष्ट्र की प्रगति , उन्नति में गिलहरी जैसा प्रयास किया है । मैं उनके कार्यों को , उनकी अनुशासनात्मक जीवन शैली को धरती हूँ। यही सकारात्मक गुणों को मैंने खुद अपनाकर स्कूल में विद्यार्थियों , अपने परिवार में दोनों डॉक्टर बेटियाँ डॉ हिमानी ,डॉ शुचि को संस्कार में दिये हैं ।अंत में मैं मील के पत्थर बने अपने स्व. पिता प्रेमपाल वार्ष्णेय जी को दोहों में कहती हूँ-

दोहे में मेरे पिता  उपकारों के तात का ,नहीं और औ छोर।पुत्री - पितु के बीच - सा,कहीं न मिलती डोर।।1

 खिला -खिला कर गोद में , करते हमको प्यार । पूरी ख्वाहिश कर सभी , करते खूब दुलार ।।2

बनकर घोड़ा खेलते , बच्चों से हर हाल। भर के गागर प्रेम की , बचपन करें निहाल।।3

पालक जीवनक्रम के  , करते सारे काम ।पग चलना सीखा प्रथम,पिता -अँगुलियों थाम।4

 नहीं ककहरा याद जब , रटवायें हर बार ।जीवन - गुरु बनकर सदा  , देते सीख हजार।।5

गीता , वेद पुराण सम , देय गूढ़ नित ज्ञान ।ठोस बनाया ' आज' को , फिर भावी सौपान ।।6

 भरी पिता की बात में,  मधु सम मधुर मिठास। प्रेम - कलश रीते नहीं , भरें खुशी ' औ ' हास।।7 

  इबादत , पिता की करो ! वे हमरे भगवान। धुरी - कुटम्बी आप हो , घर का चक्र महान।।8

लिए ईश के रूप वे , भू पर सद्गुण खान।स्वाभिमान घर -बार के , तुम से सकल जहान ।। 9

 चमके मुख पर तेज ज्यों  , हो पूर्णिमा - प्रकाश। शिक्षित कर संतान को , भरे ज्ञान आकाश ।।10

हमारे दिव्यमान पिताजी की 33 वीं पुण्यतिथि है । वे हमें 21 अप्रैल 1988 को ऋषिकेश के पावन गंगा भूमि के निवास स्थान शान्ति निकेतन में अकेला छोड़ पार्थिवता में विलीन हो गए।देश भक्त , सामाजिक, शैक्षणिक क्रान्ति , राष्ट्रीय चिंतन के अग्रदूत स्व. प्रेमपाल वार्ष्णेय जी , हमारे पिताजी की उत्कृष्ट सृजनात्मक सकारात्मक सोच के धनी थे। हमारे यादों के संसार में मार्गदर्शन करते हुए बसे हैं . दोहे में उन्हें मैं श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहती हूँ-


  शुक्ल वैशाख पंचमी , तज्यो प्रेम शरीर।

 गोद शांति की थी मिली , हरी ईश ने पीर।।

उनको मेरा कोटि नमन के साथ भावनाओं की काव्य निर्झरणी बह रही है । हमारे पिताजी के व्यक्तित्व - कृतित्व में सामाजिक , राष्ट्रीय ताने -बाने के साथ अध्यात्म भी जुड़ा था ।



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