डॉ मंजु गुप्ता

Classics Fantasy Inspirational

4  

डॉ मंजु गुप्ता

Classics Fantasy Inspirational

शैक्षिक क्रांति की जनिका माँ शांति

शैक्षिक क्रांति की जनिका माँ शांति

7 mins
316


हमारीप्यारी माँ शांति देवी वार्ष्णेय 16 अप्रैल 2012 को ऋषिकेश, उतराखण्ड की पावन गंगा माँ कीदेवभूमि में स्थितनिवास ' शांतिनिकेतन ' को छोड़ कर अपार शांति लिए पार्थिवतामें विलीन हो गयी।

उनको श्रद्धांजलि देने हेतु प्रतीक्षारत तारीख 16 अप्रैल 2023 को 11वीं पुण्यतिथि है। उनके बारे में दोहों मेरे भाव -


जाना माँ क्या होय है, बनी ' मंजु ' जब मात।

हिना तरह पीसी सदा, लाली दे सौगात।।

 

कथ्य, तथ्य अरु छंद में, सभी मात केरंग।

चली प्रेरणारूप में, सदा हमारेसंग।।

 

ममता का आँचल सजा, करती सब को प्यार।

रिश्तों की डोरी बनी, जोड़े है संसार।।


 माँ का व्यक्तित्व - कृतित्व का बखान कर रही हूँ,

जिससे भावी पीढ़ी, हर जन -मन को प्रेरणा मिले।


बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी हमारी माँ, मिलनसार, उदारता प्रेम, दया, त्याग, मूल्यों की प्रतिमूर्ति थी। वह जो संकल्प लेती थीं, वे कर दिखाती थी।

हमारी माँ श्रीस्व शांतिदेवी वार्ष्णेय कार्यों की आभासे ऋषिकेश परिवार के साथसमाज - देश भी जगमगा रहा है। उनका व्यक्तित्व समाज के लिए, हमारे लिये प्रेरणादायक है।

भारतीय परंपरा संस्कृति की दस्तावेज की अनमोल धरोहर हमारी माँ हैं, जोहमारे पिता प्रेमपाल वार्ष्णेय के संग अनसुइया, सावित्री - सी सहचरी बन के पतिव्रता, सेवा धर्म को निभाया।पिताजी के साथहमेशा कदम से कदम मिला के शिक्षिका बन के समाज में ज्ञान की रोशनी गुलाम भारत के समाज में फैलायी।

भारत की महान विभूतियाँ जैसेराष्ट्रपति स्व मा डॉ राजेन्द्र प्रसाद, महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री प्रकाश आदि के साथ मुलाकातों की फोटो साक्ष्य के रूप में अलबम में विद्यमान हैं।

पिता जी हमारे कल्याणपुर गाँव, अलीगढ़में पढ़े -लिखे युवकथे। शादी की उम्र होने से होनहारनवयुवक के लिए विवाह के प्रस्ताव आने लगे। कल्याणपुर गाँव के जमींदार हमारे दादा जी प्रसादी लाल जी कोअतरौली घराने,अतरौली तहसील के ही एक व्यापारी परिवार सेठ श्री लखमी चंद माता गेंदादेवी जी की लाड़ली सुपुत्री शांति देवी वार्ष्णेय, जिनका जन्म 29 जुलाई सन् 1926 में हुआ। उनकी बेटी शांति का प्रस्ताव शादी हेतु आया।

दादा जी ने अपने पुत्र की जीवनसंगिनी हेतु खूबसूरत नवयौवनाशांति को बहू के रूप में पसंद किया और माँ का विवाह 4 फरवरी सन् 1939 को बड़ी धूमधाम से हमारे पिता जी, जो बहुमुखी प्रतिभा संपन्न, स्वतंत्र विचारों से पुष्ट महत्वाकांक्षी युवक थे, उनकेसाथ संपन्न हुआ था। 

1942में भारत छोड़ो आंदोलन के समय खूबसूरत युवादंपति कुछ करने की चाह लिए गांधी जी की विचारधारा से प्रेरितहो कर कल्याणपुर, अलीगढ़ से देवभूमि ऋषिकेश, उत्तराखण्ड (तब उत्तरप्रदेश था)की तपोभूमि को अपनी कर्मस्थली बनाने के लिए पावनगंगा माँ के तट पर अपनेसपनों को साकार करने आए।

पिताजी नेअध्यापन-कार्य को ही समाज सेवा का माध्यम चयन किया। वह भरतमन्दिर कॉलिज, ऋषिकेश के प्रधानाचार्य पद पर आसीन थे। पिताजीके मन में देश भक्ति, देश -प्रेम बंधुत्व, सांप्रादायिक सौहार्द, शिक्षा से समाज को मूल्यों कोदेना के गहन भाव सेसमाज को शिक्षित करना, सामाजिक कुरीतियाँ कोदूर करने का बीड़ा उठाया।

उस गुलाम भारत के काले पानी के काले अंधकारमें स्त्री सशक्तिकरण, बेटी पढ़ाओ - बेटी बचाओ, सामाजिक समानता, नस्लीय, लैंगिक भेदभाव से नफरत मिटाना, स्वस्थ पर्यावरण हेतु वृक्षारोपण करना, श्रमदान, छुआछूत दूर करने, हरिजन बस्ती में जाकर सफाई, स्वच्छता के लिए जागरूक करने का काम किया। यही कामआध्यात्मिक, सामाजिक मानवता की रोशनी हैं। 

 पूरा देश रूढ़ियोंअंधविश्वास, अंग्रजों के अत्याचारों से जकड़ा हुआ था। तब हमारी माँ ने पिता जी के साथ कंधे से कंधा मिला समाजोत्थान के कार्यों में लग गयीं। स्वतंत्रता संग्राम में आंदोलनकारियों के लिए एक सेर गेहूँ, आटे, दाल, घी का एक महीने का राशन हर घर से इकट्ठा करके बोरेभर कर मानवता की सेवा हेतु उन क्रांतिकारियों को देते थे। जो भारत माँ को आजाद कराने में लगे थे। इन संस्कारों में हम सात भाई बहन पले, बढ़े हुए।

 हमारी माँ चली गयी लेकिन वह हमारे संग में रहती है। उनकी सोच, मूल्यों की ज्योत, संकल्पों विचारों की ऊँचाई हमारा मागदर्शन करती है। हमारी माँ सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा का साक्षात रूप थी। उनकी कथनी -करनी में अंतर नहीं था।ऋषिकेश समाज में नमस्ते हमारी माँ की देन है। नमस्ते करना माँ ने हमें सिखाया था। नमस्ते करने से हमारे में विनम्रता का का भाव जाग्रत होता है। अहम दूर होता है। रात में सोते समय, सुबह उठते समय हम सब आपस में नमस्ते किया करते थे।बचपन में बिस्तर से उठने पर माँ हाथों को देखते हुए नित्य सुबह का आगाज हम सब के संग इस श्लोक से करवाती थी - ॐ कराग्रे बसते लक्ष्मी कर मध्ये सरस्वती।करमूले च गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।श्लोक से हमारी सुबह की शुरूआत होती थी फिर हरि, भू माता की कृपा पाने के लिए पैर जमीन पर रखने पर यह श्लोक का मैं ताउम्र वाचन करती हूँ।समुद्र वसने देवी पर्वत स्तन मंडिते।विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमश्र्वमेव।।आज इन्हीं संस्कारो को मैंने अपनी दोनों डाक्टर बेटियों के संस्कारों में घोला है। मैं भारतीय संस्कृति संवाहिका बन नयी पीढ़ी को मूल्यों से जोड़ रही हूँ क्योंकि हमें विरासत से भारतीय संस्कार, संस्कृति मिली है।हम किसी को जबरदस्ती मूल्यों को थोप नहीं सकते हैं। बचपन के परिवेश से, संस्कारों से अर्जित किये जाते हैं।ताउम्र हमारे जीवन सफर में चलते हैं।मुझे खुशी है ये श्लोक जब मैं स्कूल में शिक्षिका थी तब छात्रों के दिलों में भी घर कर पाए।इन मूल्यों से गढ़ा चरित्र से निर्मित चेतना ही भारत को आध्यात्मिक ऊर्जा,  ऊँचाई के साथ, विकसित देश बना सकती है। राष्ट्र की पहचान वहाँ के रहने वाले नागरिकों के चरित्र से होती है।न समाज में हम सब भाई - बहनों को साक्षरदेख पिता जी से वहाँ के गणमान्य लोगों ने कहा कि आप गुरु जी अपने बच्चों को पढ़ा रहे हो, हमारे बच्चे, बेटियों को भी पढ़ाओ।

यह सुनकर पिताजी जी जयहिंद जूनियर स्कूल की स्थापना की। हमारी शिक्षिका माँ ने दलित, हरिजन बस्तियों में जाकर इन गरीब बच्चों को स्कूल में दाखिला देकर साक्षर किया। उस गुलामी के काल खंड में यह काम संघर्ष, चुनौती से भरा था।कर्मठ इन दम्पति ने छः दशक के कालखण्ड तक संकल्पों का भगीरथ बनआध्यात्मिक, निरक्षरऋषिकेश में ज्ञान, चेतना, मूल्यों की शैक्षिकक्रांति की गंगा बहाकरके कई पीढ़ियों को साक्षर किया।

आज उन का समाज ऋणी है। आज हमारी माता साक्षरता, भूदान आंदोलन, बेटी - बचाओ बेटी पढ़ाओ शैक्षिक क्रांति के लिए याद की जाती हैं। 

हमारीमाँसत्यम् का सूरज - चाँद, शिवम् - सी संघर्षों के विष पी के मानवीयता का अमृत बरसाने वालीऔर माँ के रूप में ममता, प्रेम की धारा बहाने वाली 

सुंदरम् -सी बन समाज के संग हमारेसातों भाई, बहनों के दिलों में ईश मूरत -सी विराजमान हैं। अगर विश्व की कोई अद्वितीय सकती है तो वह हमारी माँ। उसके आगे जग के अन्य रिश्तेतौले तो माँ कापलड़ा भारीरहेगा। हमारी माँ तो हमारीप्रारंभिक पाठशाला है, जिसने वेद, संस्कारों, ज्ञान की शिक्षिका बन देश - भक्ति, राष्ट्र भक्ति,देश - प्रेम जैसेविराट चेतना काअलख समाज में जगाया।सद्संस्कारों, वेद- पुराण और नैतिक मूल्यों की रामायण - गीता - महाभारत की हमें शिक्षादे केऔर सोच की पैरोकार बनहमारेव्यापक भविष्य कानिर्माण कियाहै।

उन्हीं के योगदान से हम सातों भाई, बहन देश - सेवा, समाज - सेवा कररहे हैं। हमारे दो भाई आईएएस, एक भाई वकील हैं, हम चारबहनेंसेवानिवृत प्रोफेसर हैं मैं लेखन से हिंदी साहित्य की सेवा कर रही हूँ । अब हमारे बड़े भाई विजय कुमार वार्ष्णेय, आईएएस स्वर्ग में हैं।

हमारी माँ पावन गंगा - सी कार्यों में गतिशील, प्रवाहमान, सागर -सी विचारों में गहराई पर्वत - सी अटल इरादोंवाली, धरा -सी सहिष्णुता, सृजनशीलता, धैय, दया, प्रेम, दानशीलता की महिमाके परिमार्थी नारी रूप थीं। 

 माँ के प्यार की बात ही अलग है।

जब मैं मुसीबत में होती हूँ तब माँ शब्द ही निकलता है . बीमारी में नर्स बन वह हमारीदेखभाल - सेवा में रात - दिन एक कर देती थीं . जीवन की समस्याओं कोअच्छी सलाहकार बन सुलझा देती थीं . मैं अपनी माँ के अतुलनीय, अद्वितीय योगदान की ऋणी हूँ . मेरे लिए उनकी यादें, व्यक्तित्व मुझे प्रेरणा, ऊर्जा देता है। हर दिन गंगाकी लहरों -सी है जो बाधाओं का सामना करके सदागतिशील रहती हैं। कभी रुकती नहीं हैं . हमारी महायोगिनी माँविलक्षण प्रतिभा की धनी माँअनगिनत कार्यों को कर अपने को व्यस्त रखती थीं।उन्हें बकरी, गाय का दूध दोहना भी आता था। उन कोमल, गोरवर्ण हाथों ने अथक काम किए हैं। शिक्षा की ज्योत जलाकर शैक्षणिक क्रांति समाज में की थी। शिक्षिका, समाज सेविका होने के नाते देश, विदेश की गण मान्य हस्तियों सेमुलाकात की फोटो अलबम आज भी गवाह हैं।लोगो से मिलना, अतिथियों को हमारे घर में ठहरना, उनके लिए खाना बनाकेखिलाना, चार धाम की यात्रा में आए मेहमानों के लिए सफर के लिएपूड़ी, सब्जी बना कर देना। चारों धाम की यात्रा का पड़ाव ऋषिकेश होता है। अतिथि देवो भव का सूत्र आँचल में बाँध के मेहमानों का आत्मीयता से स्वागत करती थीं। आज के जमाने की हमारी माँ मिसाल है।उनका हर काम उनका शौक था।

 बचपन में हम सबको लोक - कथाओं को सुनाना, गाना सिखाना, स्वादिष्ट व्यंजन बनाके खिलाना, बुनाई करना, कसदाकारी करना, क्रोशिया की चादरें, मेजपोश, स्वेटर व हुनर से भरपूर खूबसूरत रंग बिरंगे गलीचे बनाके निशानी के तौर पर उपहार स्वरूप देना। इन सब कला का हुनर हमने माँ से सीखा।हिंदी के मुहावरों, कहावतों का खजाना बातोंही बातों में निकलता था। वे लगन, दृढ़ निश्चय, मेहनती, समर्पण, धैर्य, त्याग, सहनशीलताकी चलती फिरती मूरत थीं।उन्हें प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल देना आता था।प्रकृति - सी हमारीनिःस्वार्थ माँपरहित में सेवा करने मेंप्रसन्नता का अनुभव करती थी।सब धर्मोंमें उनकी आस्था थीं। संत, महात्माओं का प्रवचन सुनना हम सबको साथ ले जाना और उन परअमल भीकरती थी। हर पर्व पर चाहे शीत लहरें चलती हो, चाहे तो गर्मी का आग बबूला ताप हो हमेंगंगा - स्नान केलिए तड़के में ले जाती थी। अभी तो पावन गंगा में डुबकी लगा लो, फिर तुम्हारी शादी के बाद तुम्हें गंगा मिले नहीं। ऐसा ही हुआ। हमारी शादी महानगरों में होने से गंगा मैया हम से दूर हो गयी। उनके उदात्त व्यक्तित्व को लिखने पर महाकाव्य, उपन्यास ही बन जाए। थोड़ा, बहुत आज कलम ने उनका चरित्र मुखर कर दिया। रामलीला, कृष्ण कीरासलीला उनके संगदेखनेजाते थे। हमें इन प्रभु राम -सीता, कृष्ण - राधा, बुद्ध के महान चरित्रों को कविता, गीत, कहानी, लोरियों में सुनाती थी, जिससे हमारे चरित्र भी ऐसे ही उदात्त बने।

आज मैंउन्ही का अनुसरण कर उनके लक्ष्य बेटी बचाओ -बेटी पढ़ाओ, पर्यावरण के प्रति जागरूकता, स्वच्छता अभियान के लिए गिलहरी बन के प्रयास कर रही हूँ।

अंत में -माँ से बड़ी दुनिया की कोई दौलत नहीं है।

 माँ की गरिमा जहाँ, भूमि से भारी है।

वहीं पिता का स्थान, आकाश से भारी है।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics