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Arunima Thakur

Inspirational

4  

Arunima Thakur

Inspirational

अनजान

अनजान

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आज मालती जी सुबह से परेशान है। और क्यों ना हो ? आज उन्हें यह घर छोड़कर जाना है । बेटी बेटे ने तो फोन करके बोल दिया है माँ इन सब चीजों का मोह मत करना। अपनी जरूरत भर का सामान ले लो बाकी छोड़ जाओ । अब वह लोग क्या समझे अब इस उम्र में जरूरत किसी भी चीज की नहीं होती और मोह हर चीज से होता है । यह बात बच्चे नहीं समझते । मालती जी ने ड्राइंग रूम में करीने से सजाए गए सजावटी सामानों पर नजर डाली। ना जाने कहां कहां से वह और उनके पति लाए थे I कितने चाव से घर को सजाया था । उन्होंने नौकरों को, माली को, कामवाली को सबको बोल दिया है जिसको जो मन हो ले जाओ I बर्तन साड़ियां पाकर कामवाली खुश हो गई । आप सोच रहे होगे मालती जी जा कहाँ रही हैं ? अपने बेटी बेटे के पास ? नहीं वहां मालती जी को अच्छा नहीं लगता। बेटे- बहू, बेटी - जमाई सब अच्छे हैं, बहुत अच्छे। पर उनकी मशीनी जिंदगी में मालती जी अपने आप को अनुपयुक्त पाती है I पूरे हफ्ते काम करने के बाद वह सब सप्ताहांत अपने हिसाब से बिताना चाहते हैं l मालती जी को बुरा नहीं लगता है। पर उन्हें लगता है जैसे वह भी शोकेस का एक पीस है । जिसे रोज सुबह शाम पोंछ कर रख दिया जाता है । अपने देश में तो अकेले रहने पर भी कम से कम आस-पड़ोस के लोग आकर हाल-चाल पूछ लेते हैं, बातें कर लेते हैं तो इसीलिए वापस आ गई। बहुत सालों से वह अपने पति के साथ एक वृद्धाश्रम में समय बिताने और उन लोगों की मदद करने जाती रहती थी I तो आज उसी आश्रम में रहने की अर्जी दे आई है । अकेली रहने से तो अच्छा है, अपने हम उम्र वालों के साथ रहना । ऐसा नहीं है कि उनका परिवार नहीं है। ससुराल और मायका दोनों ही समृद्ध है । धन धान्य से भी और लोगों से भी । पर वहां जाकर सब को बच्चों के साथ खेलते सेवा लेते देखती हैं तो एक हूक उठती है उनके दिल में I इन्हीं बच्चों से तुलना करके वह कितना इठलाती थी कि मेरे बच्चे इन से कितना आगे है । आज सच में मेरे बच्चे इतना आगे चले गए हैं पर यह तो मां-बाप के साथ है । तो उनको ससुराल और मायके में भी एक अजीब सी उलझन होती रहती है । उनको वास्तव में उनके पति के जाने के बाद से कहीं भी, कुछ भी अच्छा नहीं लगता हैं। इतने बरसों से वह जिस धुरी के इर्दगिर्द नाच रही थी अब वह धुरी ही नहीं रही पर मन थमने का नाम ही नहीं लेता है I इसीलिए हर वक्त व्याकुल रहता है।

एक एक कमरा एक एक वस्तु टटोलते टटोलते वह स्टोर रूम तक आ पहुंची। दो-चार पुराने जमाने के बक्से जिनमें शायद उनके सास-ससुर और उनके मम्मी पापा की यादें होंगी I उनके बच्चों के पहले कपड़े, पहला खिलौना, पहला कजरौटा सब पड़ा है। दोनों की नाल भी वही रखी है कपड़े में लपेटकर । पहले जमाने में बोलते थे की नाल को घर पर रखो तो लोगों का घर से, जमीन से, गांव से जुड़ाव रहता है। पर कहां . . . . ? नाल यहाँ होने के बावजूद भी तो दोनों ऑस्ट्रेलिया में है। और वह . , . ? उनकी नाल तो यहां नहीं गड़ी है । फिर भी उन्हें यहां की एक एक चीज से मोह हो रहा है। वह जानती हैं इनमें से साथ ले जाने लायक कुछ भी नहीं है। यहां तक कि बरसों से उन्होंने इसे खोल कर भी नहीं देखा है। पर हमेशा के लिए छोड़ना . . . दुखद तो हैं ना | उन्होंने बच्चों के छोटे कपड़े रखे थे, चांदी का कजरौटा छोटी-छोटी पायल कि जब बच्चों के बच्चे होंगे तो उन्हें पहनाऊंगी । पर दोनों के बच्चे विदेश में ही हुए। हिम्मत ही नहीं पड़ी. . . और पति ने भी मना भी किया, कि जाने दो। एक बक्से में तो सारे एल्बम पड़े हैं। उनके बचपन के, उनके पति के बचपन के, उनकी शादी का, बच्चों के बचपन का शायद कभी साथ बैठकर देखने का मौका ही नहीं मिला। फिर इन सब से मोह क्यों .. . . ? तभी उनकी नजर एक छोटी सी अटैची पर पड़ी यह अटैची पिछले तीस सालों से बंद पड़ी है। इसमें उनकी यादें हैं । उनकी पहली शादी, पहले पति, पहले प्यार की । वह यादें कभी उनके वर्तमान जीवन पर हावी ना हो जाए इसलिए कभी इस अटैची को खोलने की उनकी हिम्मत ही नहीं हुई। मालती जी ने कांपते हाथों से उस अटैची को खोला। अंदर कुछ फोटो थी, एक मंगलसूत्र, एक सुखा हुआ गुलाब, कुछ पत्र और कुछ कागजात I पत्र जो उन के पहले पति ने उनके लिए लिखे थे। फूल जो उनको पहली बार दिया था । फोटो उनकी यादों जितनी ही धुंधली हो गई थी । मालती जी सोचने लगी जिसके साथ जीने मरने की कसमें खाई थी। जिसने उन्हें कली से फूल बनाया। जिसका हाथ पकड़कर वह पहली बार देह सुख के सोपान पर चढ़ी थी । उसकी शक्ल भी उन्हें ठीक से याद नहीं आ रही l उनकी गलती भी तो नहीं थी। समय भी तो सिर्फ साथ में तीन वर्ष ही बिताए थे। और यह कागजात . , .. ? बस याद आ रहा है तो इतना ही की शादी के बाद जब वह विवाह कर आई थी तो कुछ महीनों बाद ही उनके पति राघव उनको अपने साथ अल्मोड़ा लिवा ले गए थे I मैदानी भागों में रहने वाली ने पहली बार पहाड़ देखे थे । प्रकृति का सौंदर्य अपने चरम पर था I कलकल बहती नदी काली सर्पीली सड़कें, छत पर वाहन की पार्किंग, ढलान वाले खेत, एकदम अलग एहसास I राघव किराए के घर में रहते थे । पति से पहली फरमाइश यही की थी उन्होंने "यहां तो अपना घर होना चाहिए था"। नया नवेला पति मान गया । आखिर बात भी सही थी । जब नौकरी यहां है , रहना यहां है तो फिर किराए का घर क्यों . . ? क्यों ना घर बनवा ही लिया जाए । तब जमीन सच में मिट्टी के मोल ही मिलती थी। यह तय हुआ अभी घर वालों को नहीं बताएंगे I एक बार घर बन कर तैयार हो जाने दो फिर उन सबको अचंभित कर देंगे । जमीन पर चारदिवारी करवा दी गई । दो कमरे और रसोई बहुत है I बाद में जरूरत होगी तो बनवा लेंगे। घर बन ही रहा था पर मालती जी ने जा जाकर वहां का बगीचा तैयार कर दिया था I पागलों की तरह गुलाब की कलम से पूरा बगीचा भर दिया था। पर यह घर शायद उनके नसीब में ही नहीं था। गृह प्रवेश का शुभ मुहूर्त बनता उससे पहले ही एक एक्सीडेंट में राघव की मृत्यु हो गई। मायके और ससुराल वाले आकर सब विधि करके उन्हें लिवा ले गए। उन्हें याद आया सालों पहले ऐसे ही वे एक बार अपना सामान बाँध चुकी है I हां बस फर्क यह था कि तब तो उन्हें कुछ होश ही नहीं था कि उनके आसपास क्या हो रहा है I तो सारा सामान मायके व ससुराल वालों ने मिलकर समेटा था। राघव का सामान सारे कागजात कागज पत्र उनकी ससुराल वालों ने और मालती जी का सामान मायके वालों नेI वह तो किराए का घर था तो इतना सामान भी नहीं था। पर यह कागज राघव ने एक दिन उनको देते हुए बोला था इसे संभाल कर अपने पास रखोI उन्होंने पूछा भी यह क्या है तो उन्होंने बोला वक्त आने पर बता दूंगा। पर वह वक्त कभी आया ही नहीं। तो यह कागजात मालती जी के सामान के साथ ही आ गए। काफी समय बाद जब उनके दूसरे विवाह की तैयारियां चल रही थी तो जब उन्होंने अपना सामान खोल कर देखा I तो उसमें पाया कि वह तो घर की जमीन के कागजात थे जो कि उनके नाम पर थी। आज की तरह फोन तो थे नहीं। ससुराल वालों से उनका संपर्क बिल्कुल टूट चुका था| उन्होंने मान लिया कि जिस तरह से ससुराल वालों ने उन्हें आक्षेप लगाकर निकाला थाI अब तक इस घर पर अपना कब्जा जमा चुके होंगे। कागज फाड़कर फेंकने जा ही रही थी कि लगा जैसे राघव बोल रहे हैं तूम मेरी इतनी बात भी नहीं मान सकती। संभाल कर रखने को बोला था ना। तो बस यह कागज वहां से उनके साथ ही यहां आ गए। राघव की यादों के साथ इतने सालों से यह भी दफन थे। यादें लौटी तो एक हुक उठी, एक बार तो जाना चाहिए था। इतने अरमानों से जो घर बनवाया था पता नहीं अब कैसा है I किसके कब्जे में है . . ? पता नहीं क्या प्रेरणा जगी l वृद्धाश्रम जाने की जगह उन्होंने अल्मोड़ा का टिकट ले लियाI

अपने चार जोड़ी कपड़े, कुछ पुरानी यादें और उस घर के कागजात को साथ लेकर वह अल्मोड़ा पहुंच गयी। कितना बदल गया है। वह छोटा सा गांव आज पूरा बड़ा शहर है। यह क्या पागलपन किया है उन्होंने ? यहां तो सड़कें गलियां सब अपरिचित है। पूछे भी तो क्या .. ? और किससे . . ? सामने एक बोर्ड लगा था "राघव विश्राम गृह" मालती जी के चेहरे पर मुस्कान आ गयी I कोई और नाम भी हो सकता था पर लगा जैसे राघव उनका स्वागत कर रहे हो । दिमाग पर जोर डालने पर और घर के कागजात पढ़ने पर जो पता उन्होंने रिक्शा वाले को बताया तो वह उन्हें "राघव विश्राम गृह" के सामने छोड़ गया। वह सोच रही थी इतने सालों में एक बार भी नहीं और आज यह नाम बार-बार उनके सामने आ रहा है I उन्हें लग रहा था क्या उनके बनायें हुए मकान पर ससुराल वालों ने कब्जा किया होगा या उनको तो पता भी नहीं होगा उस घर के बारे में I मालती जी को लग रहा था दो कमरों का एक खंडहर दिखेगा उनके अरमानों की तरह सूखे हुए गुलाब की क्यारियों के साथI काफी देर तक वह असमंजस में खड़ी होकर देखती रहीं क्या करें ? अब कहां जाएं ? क्या यह उनका पागलपन नहीं था कि वह अकेले इतनी दूर चली आई ? यह सोचकर सामने ही विश्राम गृह है आज रूक कर कल वापस चली जाऊंगी। वह आगे बढ़ी। अंदर का पूरा बगीचा गुलाब के फूलों से भरा था। अंदर एक बड़ी सी तस्वीर लटक रही थी। उन्हें लगा यह तस्वीर तो शायद राघव की है l उनके राघव की I पर यहां कैसे? वह आश्चर्य से इधर-उधर देख ही रही थी कि सामने केबिन से 40 - 42 साल का एक दाढ़ी मूँछ वाला शायद मुस्लिम युवक उठकर आया और पूछा, "मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं I" फिर उसने मालती जी को गौर से देखते हुए पूछा, "दीदा क्या यह तुम हो ? तुमने इतने साल लगा दिए वापस आने में?"

"दीदा" शब्द ! यह तो सिर्फ वह बोलता था । उनकी आंखों के आगे आठ दस साल के बच्चे का चेहरा घूम गया। उन्हें याद आया जब वह शादी करके नई नई आई थी तो उनका मकान मालिक एक मुस्लिम परिवार था। युसूफ भाई उनकी बेगम आस्मॉ और उनका बेटा अरसलान। युसूफ भाई राघव के साथ ही काम करते थे । राघव की युसूफ भाई से बहुत पटती थी। पर वह यानी मालती जी थोड़ा संकोच करती । उनका ब्राह्मण होना, उनके संस्कार उन्हें आस्मां से ज्यादा मिलने जुलने में बाधा बनते। आस्मा भी जानती थी कि उनके घर में मांसाहार पकता है l इसीलिए मालती जी उनके घर का खाना नहीं खाती हैं। पर दोनों को एक दूसरे के घर आने जाने, गप्पे मारने में कोई परेशानी नहीं थी। अरसलान तब छोटा सा था। वह उन्हें चाची कहने को तैयार ही नहीं था। वह थी भी कमसिन छोटी उम्र की I वह हमेशा उन्हें दीदा ही कहता और राघव को अंकल। वह अरसलान के साथ खेलती उसकी पढ़ाई में मदद करती । उनको भी अरसलान में अपना छोटा भाई दिखता। अरसलान सारा दिन उनके घर पर ही रहता , खेलता, खाना खाता l दोस्ती के बीच मजहब आड़े तो आ रहा था पर बाधा नहीं बन रहा था । एक दिन की बात है । आस्मा जर्दा लेकर आई और बोली मुझे मालूम है कि तुम मेरे बर्तनों में खाना नहीं खा सकती पर मैं आज ही नया कुकर खरीद कर लाई हूं और सब सामान भी। मैंने चौका साफ करके यह बनाया है और आज चौके में मांसाहार भी नहीं पकाया है । आज तो तुम खा सकती हो । आज अरसलान की वर्षगांठ है । मालती जी को भी क्या एतराज होता । अब खाने का लेनदेन भी होने लगा था । और वही अरसलान आज देखो तो इतना बड़ा हो गया है। वह उनके गले लग गया और बोला अम्मी अब्बू तो आपको देखकर बहुत खुश होंगे। फिर बोला आपका सामान तो आपके विश्राम गृह में ही रख देता हूं । कुछ चाय पी लो, नाश्ता कर लो क्योंकि हमारे घर का तो आप खाओगी नहीं। आप का विश्राम गृह . . . ? उसने मालती जी का सब सामान ले जा कर के एक कमरे में रखा वहां पर एक छोटा सा मंदिर भी था। मंदिर में दीया जल रहा था। उसने बोला यह कमरा इतने सालों से आपका इंतजार कर रहा था l उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। कुछ पूछ भी नहीं पायीं। चाय नाश्ता करने के बाद वह उन्हें लेकर थोड़ी दूरी पर बने साधारण से घर में ले गया। मालती जी को याद आया हां यही तो वह रहा करती थी । यह तो आज भी वैसे ही है। अरसलान ने दरवाजे से ही आवाज लगाई अम्मी अब्बू देखे तो कौन आया है ? आस्मा आपा वही ड्राइंग रूम में बैठी थी । उन्हें देखते ही, मालती कहकर गले से लगा लिया I युसूफ भाई ने भी सलाम किया कुशल पूछी I तबसे अरसलान की बेगम थोड़ी मिठाई और दो गिलास में पानी लेकर आयी। अस्मा आपा कुछ बोलती उससे पहले ही वह बोल पड़ी, "पानी व मिठाई और ग्लास प्लेट यह सब अभी बाजार से लेकर आ रहे हैं । यह जानते हैं ना कि इनकी दीदा पंडित है और वह हमारे मांसाहार के बर्तनों में नहीं खा सकती । फिर उसने ही बोला दीदा आज तो आप खाना खाकर ही जाना। अम्मी ने आज भी वह कुकर संभाल कर रखा है कि आप जब कभी भी आओगे तब के लिए । मालती जी सोच रही थी कि एक यह लोग हैं आज भी उनके धर्म उनके संस्कारों की कद्र करते हैं। वहीं उनके खुद के बेटा बहू का कहना हैं कि बरतनों में चिपका थोड़े ही रहता हैं। बरतन धो दिये हो गया I क्या बिना मतलब के अलग से बरतन रखना । मालती जी ने बोला भी एक तो मैं तुमको मांसाहार खाने से रोक नहीं रहीं हूँ । और तुम अपने बरतन मत अलग करों मेरे चार बरतन अलग रहने दो। पर सुनता कौन हैं ? अब तो झींक पटक कर मालती जी की भी आदत पड़ गयी हैं। मालती जी की आंखों से आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

फिर आस्मा आपा और युसूफ भाई ने जो बताया उसके अनुसार उन लोगों को भी यह पता नहीं था की राघव के घर वालों को घर बनाने की बात नहीं मालूम है। तो उनको यही लगा कि बाद में आकर वह लोग घर का जो भी करना होगा सब व्यवस्था कर के जाएंगे। पर आठ दस महीने तक कोई नहीं आया तो उन्हें लगा उनसे गलती हो गई है । शायद उन्हें परिवार वालों को घर के बारे में बताना चाहिए था। तो फोन का जमाना तो था नहीं। ऑफिस से स्थाई पता निकलवा कर वह राघव के घर भी गए। राघव ने जमीन खरीदते वक्त उनसे कहा था कि यह जमीन मैं मालती के नाम पर खरीद रहा हूं । तो उन्होंने जाकर राघव के घर वालों को बताया कि मैं अल्मोड़ा से आया हूं। मालती जी की अमानत का क्या करना है। मालती का नाम सुनते ही वह लोग भड़क गए और यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आखिर वह अमानत है क्या ?' उन लोगों से मालती का पता लेने की कोशिश की । मालती का पता लेकर वह उसके घर भी गए थे । उसके पिता से बात भी हुई । पर उसके पिता को नहीं मालूम था कि कागजात मालती के पास ही है । तो उन्होंने बोला उनके बेटे ने खरीदा था अब उनको जो करना होगा वह लोग ही करेंगे । साल भर तक तो आस्मां वहाँ पर जाकर के पौधों में पानी वगैरह डालती रही। पर एक दिन हमें लगा कुछ लोग वहीं घर के आसपास घूम रहे हैं। शायद घर पर कब्जा जमाना चाहते हैं। तो हमने सोचा कि ऐसे ही पड़ा रहेगा तो जरूर कोई ना कोई कब्जा जमा लेगा । तो हमने जो दरवाजा खिड़की का काम बाकी था वह करवा कर गेस्ट हाउस का बोर्ड लगा दिया और सबको यहीं बोला कि तुमसे बात हो गई है तुमने अपनी मंजूरी दे दी है l तब से आज तक उसकी जो भी कमाई होती है उसमें ही लगाते जाते हैं । एक कमरा जो आपका व राघव का था I उससे कभी किराए पर नहीं उठाया । वह हमेशा आपके लिए ही तैयार रहता है । घर का गृह प्रवेश भी एक पंडित जी को बुलाकर करवाया था। उन्होंने ही आपके कमरे में मंदिर की स्थापना की और रोज आ कर पूजा भी करते हैं । मालती जी तो समझ ही नहीं पा रही थी कि क्या बोले I बस हाथ जोड़कर इतना ही बोली, "अच्छा हुआ मैं आ गई अब यह घर के कागज आप को सौंपकर मैं निश्चिंत हो कर चली जाऊंगी । आस्मा आपा बोली "चली जाओगी . . . ? क्यों चली जाओगी . . . ? तुम्हारा घर है। तुम्हारा होटल है । अब आ गई हो तो तुम ही संभालो I मालती जी ने बताया कि नहीं उन्होंने अपनी सारी व्यवस्था वृद्धाश्रम में कर दी है।तो अरसलान ने उनके हाथ पकड़ लिए, "नहीं दीदा, आप कहीं नहीं जाओगे। मुझे याद है कितने अरमानों से आपने यह घर बनवाया था। एक एक पेड़ लगाया था I अब आप आए हो तो यहीं रुक जाओI राघव अंकल को भी अच्छा लगेगा। आखिर यह सब बनवाया भी तो उन्होंने आपके लिए ही था।

मालती जी ने अंसमजस में भरकर कहा कि नहीं नहीं मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैंने अपना सारा पैसा जो भी था वह वृद्ध आश्रम को दान कर दिया है। यहाँ मैं किसके सहारे रहूंगी I अरसलान रो पड़ा। अभी भी आप सहारे की बात कर रही हो। हम हैं ना, अम्मी है, अब्बू हैं, हमारे बच्चे हैं। आपका मन बहल जाएगा। और जहां तक पैसे की बात है। इस विश्राम गृह से आने वाला एक-एक पैसा अब्बू ने आप के नाम पर जमा करके रखा है। दस बारह लाख तो होगा ही I आपको चिंता करने की कोई जरूरत ही नहीं है ।

मालती को अल्मोड़ा में रहते हुए चार महीने से ऊपर हो गए हैं। वृद्धाश्रम वालों को फोन करके उन्होंने बोल दिया है। बच्चों को फोन पर सब बताया तो भारत आने के नाम पर मुँह बिचकाने वाले बच्चे तुरंत भारत आने के लिए तैयार हो गए। और अगले दस दिनों में तो वह सब अल्मोड़ा में थे। बेटा आश्चर्य से बोला मां इतनी प्रॉपर्टी हमारे पास यहां भी है आपने कभी बताया नहीं। इसको तोड़कर यहां बड़ा सा होटल बनाएंगे। मालती जी उन लोगों का मुंह देखते हुए सोच रही थी यह मेरी कोख जाया हैI इसे मेरी भावनाओं की कोई कदर नहीं है। यह बताने के बाद भी कि यह मेरे सपनों का घर था। यह इसे तोड़ना चाहता है I इससे और उम्मीद भी क्या रखना ? पिछला घर भी तो उसी के कहने पर ही छोड़ा था कि मां आप अकेली रहती हो हमें चिंता होती है। पर अब नहीं अब और नहीं। उन्होंने ठंडे स्वर में कहा , " नहीं यह जमीन और बैंक के सारे पैसे मैं पहले ही अरसलान के नाम कर चुकी हूँ। बेटी ने आश्चर्य से पूछा एक अनजान के नाम ? मालती जी बोली अनजान कैसे जो मेरे सपने को संजो रहा था वह अनजान कैसे ? भले ही उसका मेरा खून का रिश्ता ना हो, धर्म का रिश्ता ना हो पर वह मेरे लिए सगे से बढ़कर है ।



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