जब बाढ़ ने बचाया परी का जीवन

जब बाढ़ ने बचाया परी का जीवन

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(1)
कुछ रिश्ते खून के होते हैं, कुछ रिश्ते समाज में रहते हुए संबोधन के होते हैं और कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो ज़हन में उगते रहते हैं उनका कोई नाम नहीं होता लेकिन उसकी खुशबू आपकी आँखों से बरसकर मुस्कान में मिलकर हाथों के ज़रिये किसी के माथे को छूती है तो बरसों से दबी कोई ख्वाहिश पाँव पसारने लगती है।

बारह साल से सूनी पड़ी मेरी गोद भी उस समय अपनी किस्मत के आगे हाथ फैला देती है जब उस बिन माँ की बच्ची की आँखें दरवाज़े की ओट से रोज़ मुझे हसरत भरी निगाहों से तकती रहती है।

मेरे पैरों की थाप में उसके घर के दरवाज़े की चीं की आवाज़ का घुलना जैसे रोज़ एक नई सुबह का दरवाज़ा खुल जाता है। उसे पता नहीं कैसे मेरे सीढ़ी उतरने की आवाज़ महसूस हो जाती है और वो दरवाजे की कनखियों से झांकते हुए एक मुस्कराहट की पुड़िया मेरे हैंडबैग में डाल देती है जिसके बदले में रोज़ एक टॉफ़ी उसमें से निकलकर उसकी हथेली पर आ जाती है।

“तुमने इसकी आदत बिगाड़ दी है रोशनी बेटा…।रोज़ रोज़ मत दिया करो टॉफ़ी…।”– उसके दादाजी ने दरवाजे पर खड़ी परी के सर पर हाथ रखते हुए मुझसे कहा।

“आदत ही तो है, बिगड़ती है तो कोई बात नहीं बदले में रिश्ते सुधर जाते हैं तो ऐसी आदतों का बिगड़ना अच्छा ही है”। हर बार की तरह दादा पोती मुस्कुराकर रह गए और मैं अपनी गाड़ी से ऑफिस के लिए निकल गयी।

शाम को लौटी तो परी के घर के बाहर मैंने मज़मा जमा देखा। लोगों की भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि मुझे अपने फ्लेट तक जाने वाली सीढ़ी दिखाई नहीं दे रही थी। एक बार तो मुझे लगा दादाजी की तबीयत ठीक नहीं इसलिए शायद…… लेकिन जैसे जैसे मैं उनके दरवाज़े की ओर बढ़ती गयी दादाजी के रोने की आवाज़ और तेज़ होती गयी। यूं लगा मेरी छाती में कोई भारी पत्थर बंध गया है। मैं भीड़ को ज़ोर से धकेल कर दादाजी के पास पहुँची और उनके घुटने पर हाथ रखकर फर्श पर बैठ गई।

दादाजी ने अपने दोनों हाथ अपने माथे से हटाकर मेरे माथे पर रखे और रोते हुए ही जो कहा वो मुझे बिलकुल सुनाई नहीं दिया। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्होंने अपने सर से कोई चीज़ उठाकर मेरे सर पर रख दी हो। पीछे से और भी आवाजें आ रही थी जो मेरे कानों से गुज़रकर छाती पर पड़े पत्थर से टकराकर लौट लौट जा रही थी।

मेरी आँखों के सामने दुनिया अंधेरी गलियों में गुज़रती हुई रोशनी का गुच्छा हो रही थी, जिसे पकड़ने के लिए मैं बेतहाशा भाग रही थी लेकिन छाती पर पड़े पत्थर का वज़न लगातार बढ़ता ही जा रहा था, अब एक एक कदम आगे बढ़ाना मुश्किल होता जा रहा था। तभी मुझे अपने माथे पर आलोक के हाथ का स्पर्श महसूस हुआ।

मैं झट से उठकर बैठने की कोशिश करने लगी तभी लगा जैसे सीने का पत्थर अब भी उतना ही भारी लग रहा है। मैंने लेटे लेटे ही आलोक से पूछा- 'आलोक, परी कहाँ है?'

आलोक ने मेरा हाथ थामते हुए कहा- “पुलिस उसे ढूंढ रही है, हम लोगों ने थाने में रिपोर्ट लिखवा दी है, अखबार में भी उसकी फोटो दे दी है, चिंता मत करो दिल्ली की पुलिस बहुत एक्टिव है जल्दी मिल जाएगी…”

मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था। मुझे उस भीड़ की आवाज़ें स्पष्ट हो गयी थी। कोई कह रहा था…“मैं समझा कोई परिचित होगा दादाजी का, कर रहा होगा बातें… मैंने ध्यान ही नहीं दिया।”,

किसी ने कहा- “अन्धेरा होने लगा था तो उस आदमी का चेहरा भी पहचानना मुश्किल था मेरे लिए…। हाँ परी को हंसते हुए देखकर मैं भी यही समझा था कि कोई परिचित है।”

कोई पूछ रहा था– “जब उठाकर ले जा रहा था तो चिल्लाई क्यों नहीं।”

बोल पाती होती तो ये नौबत ही न आती। ले जाने वाला जानता था कि परी बोल सुन नहीं सकती। आज तो उसका जन्मदिन भी है तभी तो दादाजी उसके लिए घर में गुब्बारे और फीते सजा रहे थे…।

मुझे लगा जैसे मेरी देह बिस्तर पर लेटे लेटे ही पत्थर से रेत का ढेर हो गयी है।

(2)
देखो बेटी, हमारे खानदान में पहला बच्चा लड़का ही हुआ है, लड़की के जन्म पर हमें कोई ऐतराज़ नहीं। दूसरी बार में लड़की हुई तो हम उसे नाजों से पालेंगे लेकिन इस बार हमारी बात मान लो। कुछ कहने सुनने का मौक़ा नहीं दिया गया था परी की माँ को।

पति ने दोनों हाथ पकड़ लिए थे और ससुर ने नाक बंद कर बोतल उसके मुंह में उड़ेल दी थी। उसने मुंह में उंगली डालकर उल्टी करने की कोशिश की तो पति ने उसके हाथ पकड़ कर बिस्तर पर लेटा दिया और सर पर हाथ फेर कर पुचकारने लगा- देखो हमने कभी तुम पर कोई ज़ुल्म नहीं किया, हमेशा प्रेम से रखा है, तुम्हें सारी खुशियाँ और आराम दिया है… तुम हमारी खुशी के लिए एक बात नहीं मान सकती?

ताऊ के घर दोनों बेटे हैं, पुश्तैनी जायदाद में बराबर का हिस्सा चाहिए तो हमें बेटे को जन्म देना ही होगा। वसीयत में यही लिखा गया है। सोचो यदि हमारे पास करोड़ों की जायदाद आ जाएगी तो तुम्हारे बेटे को जीवन में नौकरी के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ेगा।

वो कुछ कह पाती उससे पहले ही बेहोश हो चुकी थी।अस्पताल से लौट कर आई थी वो परी की माँ नहीं थी, सिर्फ एक जिंदा लाश थी जिसकी ज़िंदगी आज कोख में पल रही उसी बच्ची ने बचा ली थी जिसे ये लोग मार डालना चाहते थे।

न जाने किस बाबा से दवाई लेकर आए थे जिसने बच्ची तक पहुँचने से पहले ही अपना काम शुरू कर दिया था और ज़हर माँ के शरीर में फैलने लगा था। डॉक्टर ने जैसे तैसे माँ की जान बचाई और कहा, उसकी प्रेगनेंसी की वजह से दवा गर्भाशय तक नहीं पहुँच पाई और ऐसे में गर्भपात करने से माँ की जान जा सकती है।

जो पैसे कोख गिराने के लिए डॉक्टर ने लिए थे वो माँ की जान बचाने और मामला रफा दफा करने के एवज़ में डॉक्टर ने रख लिए। किस्मत ने परी की माँ के शरीर का ज़हर चूस लिया था। परी को बचा लिया… परी को बचाए रखने के लिए माँ को जिंदा रखा लेकिन परी को जन्म देते हुए माँ हिम्मत हार गई, बेटी का मुंह देखने से पहले ही मौत का मुंह देख लिया।

परी टकटकी लगाए पिता को देखती रही… रोई नहीं, जन्म के समय भी नहीं। माँ की मौत का सदमा कह लो या उस दवाई का असर। जान तो बच गई थी लेकिन एक ऐसी जान जो सिर्फ़ साँस लेती थी और खुद को सांस लेते देख सकती थी। न बोल सकती थी न सुन सकती थी।

(3)
आज आठ दिन हो गए मैं ऑफिस नहीं गई सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं उस सीढ़ी से उतरना नहीं चाहती थी जिस पर परी की आँखें दरवाज़े की ओर से एकटक मुझे देखती रहती है… मुस्कुराती नहीं…। आँखों में बस एक ही सवाल, उस दिन तुम छुट्टी लेकर मेरे लिए एक नई ड्रेस खरीदने अपने साथ बाज़ार ले जाने वाली थी। तुम मुझे उस दिन बाज़ार ले जाती तो मेरे साथ ये सब न हुआ होता।

टीवी पर खबरें  सुन सुन कर मेरे कान पक गए थे। 6 महीने की बच्ची के साथ हुई दरिन्दगी। 6 साल की बच्ची का यौन शोषण, 16 साल की बच्ची के साथ गैंग रेप… लग रहा था पूरी दुनिया वहशी हो गई है और इस वहशी दुनिया में परी अकेली न जाने क्या हुआ होगा उसके साथ। कौन ले गया होगा?

जायदाद को लेकर जिन लोगों पर शक था उनका इंसानियत का इम्तिहान हो चुका था। ताउजी ने पुश्तैनी जायदाद को अपने दोनों बेटों और परी के नाम बराबर हिस्सों में पहले ही बाँट दिया था और फिर परी के दादाजी का जायदाद से मोह उसी दिन ख़त्म हो गया था जिस दिन परी को उनकी गोद में छोड़कर माँ जा चुकी थी।

मामूली सी दवाई माँ की जान ले लेगी ये उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। उस पाप का प्रायश्चित वो कर रहे थे ये परी की परवरिश और उनका परी के लिए प्यार देखकर कोई भी कह सकता था। लेकिन ये प्रायश्चित परी की आवाज़ नहीं लौटा सकता था।

“रोशनी इतना दिमाग पर ज़ोर दोगी तो तबीयत फिर बिगड़ जाएगी।”- मेरी आँखों में भर आई लालिमा को देखकर आलोक ने कहा- मैं कुछ कह ही नहीं पाती हूँ। मुंह से बोल निकलने से पहले आँखों से आंसू छलक पड़ते हैं … “आलोक उस दिन मैं उसे साथ ले गई होती तो।”

“क्यों विधाता की करनी को अपने कर्मों से जोड़ रही हो, जो होना होता है वो होकर रहता है। तुम उस दिन परी को साथ ले गई होती और बाज़ार में ये घटना हुई होती तो सोचो तुम खुद को माफ़ कर पाती?

आलोक की बातों ने घटना को एक नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया। घटनाएं हमारे वश में नहीं होती हमारे ज़रिये होती है। मैं इस दुर्घटना में शामिल न होकर भी शामिल हूँ  और प्रायश्चित में भी।

आलोक ने चाय मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- “चलो उठो ऑफिस का टाइम हो गया है, आज मैं तुम्हें छोड़ आता हूँ ऑफिस, शाम को लेने भी आ जाऊंगा, कल से खुद ही चले जाया करना”

मैंने चाय ख़त्म की और जैसे ही हैण्ड बैग उठाया मेरे मुंह से चीख निकल गई। मेरे पूरे हाथ पर लाल चींटियाँ चल रही थी।
आलोक ने झट से मेरे हाथ से बैग ले लिया और ज़मीन पर पलट दिया। परी के जन्मदिन के लिए मैंने कुछ चॉकलेट्स खरीदी थीं उसे देने के लिए और उस दिन की घटना के बाद बैग का कुछ काम ही नहीं पड़ा तो कोने वाली टेबल पर पड़ा रह गया। इन 8-10 दिनों में चींटियों ने सारी चॉकलेट्स को कुतर कुतर कर खा लिया था और अब भी उसके रैपर से चिपकी हुईं थीं।

मेरे हाथ से चींटियाँ धीरे धीरे परी के हाथ पर चढ़ने लगी थी। मैं एक एक करके चींटियों को उसके हाथ से निकाल रही हूँ लेकिन वो उसकी त्वचा को कुतर कर उसके हाथ में छेद कर उसमें घुसने लगती है। परी के हाथों से खून निकल रहा है। लेकिन वो चीख नहीं पा रही है। अचानक चींटियाँ छोटे छोटे हाथों में बदल जाती है फिर हाथ धीरे धीरे बड़े होने लगते हैं।

मेरे सपने मुझे जीने नहीं दे रहे थे। और मैं अपने इस विश्वास को मरने नहीं दे रही थी कि परी को कुछ नहीं हुआ है वो जहां भी है सही सलामत है।

(4)
परी अँधेरे कमरे में डरी सहमी सी पड़ी है उसे नहीं पता वो कहाँ है, दो महीने हो चुके हैं वो घर से बाहर नहीं निकली है। खाना पानी दे दिया जाता है लेकिन वो दो महीनों से नहाई नहीं है बालों में कंघी न होने से जुएँ पड़ गई हैं, दोनों हाथ से खुजा-खुजा कर बाल जटा हो चुके हैं।

बाजू में संडास की बदबू जब बर्दाश्त के बाहर हो गई तो परी ने उस आदमी को उस बात के लिए हाँ कर दिया जिसके लिए पिछले दो महीनों से वो मना करती आई थी। उस साहसी लड़की का साहस पूरे कमरे में बदबू बनकर घुल चुका था। उसके कपड़े इन दो महिनों में वैसे भी इतने गंदे हो चुके थे और चेहरे के हाल इतने बदतर कि कोई भी उसे गरीब पागल लड़की समझकर भीख दे देता। उसकी हामी के बाद उसे हाथ में एक कटोरा पकड़ा दिया गया था वो सुबह से भूखी प्यासी भीख माँगने निकल जाती जो कोई भी पैसे के अलावा कुछ देता तो खाकर शाम को पैसे उस आदमी के हवाले कर देती।

बदले में आदमी उसे रात का खाना दे देता। चार दिन हो गए थे उसे भीख माँगते हुए लेकिन अब भी उसे नहाने के लिए कपड़े और साबुन नहीं दिया गया था। कुछ दिन तक तो उसने गौर किया था कि कोई एक आदमी हमेशा उसके पीछे रहता है लेकिन जब उन लोगों को यकीन हो गया कि अब लड़की भागकर कहीं नहीं जाएगी तो उसका पीछा करना बंद कर दिया था। इस बात का फायदा उठाकर परी भीख में कहीं से एक साबुन का टुकड़ा और पुरानी फ्रॉक ले आई थी।

उस पुरानी फ्रॉक को हाथ में ली तो उसे अपना पुराना घर याद आ गया और याद आई वो फूलों वाली फ्रॉक जो रोशनी ने उसे पिछले जन्मदिन पर दी थी। फ्रॉक हाथ में लेकर वो फूट फूट कर रो दी।

इंसान चीख कर रो ले तो उसका दुःख आधा रह जाए लेकिन परी की किस्मत तो जैसे उसके गले की गाँठ हो गई थी। ना वो चीख सकती थी ना खुद को चीखते हुए सुन सकती थी।

पूरे 75 दिन बाद वो नहाई थी, सर उसने पहली बार अपने आप धोया था तो साबुन आँखों में चला गया था। देखने वाले को पता भी न चले कि उसकी आँखें लाल क्यों हो रही है वैसे भी उसे देखने वाला यहाँ था ही कौन।

रात में चुपके से ठन्डे पानी से नहाने और खूब देर तक गीले रहने से उसे ठण्ड लग गई थी रात भर बुखार में तपती रही तो अगले दिन भीख माँगने नहीं जा सकी। यूं भी दिन भर से बारिश होने के कारण उसे भीख माँगने भेजने का कोई फायदा नहीं था।

बाहर बरसते तेज़ पानी के आगे उसकी आँखों के आंसू कुछ नहीं थे। वो ज़मीन पर अपने लिए बिछाई जाने वाली दरी पर पड़े पड़े घरवालों को याद कर रही थी कि उसे अपने पैरों पर कुछ गीला सा लगा।

उसने बड़ी मुश्किल से आँखें खोली तो देखा दरवाजे से पानी बहकर अन्दर आ रहा है और दरी भीग रही है। पानी का बहाव धीरे धीरे बढ़ रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। दरवाज़ा अधिकतर बाहर से बंद रहता है तो वो खोल कर भी नहीं देख सकती थी।

पानी अब उसके टखनों तक आ चुका था, वो दौड़कर बाथरूम में गई और वहां पड़ी प्लास्टिक की चौकी को कमरे में लाकर उस पर खड़ी हो गई। उसने अपनी इकलौती गुलाबी फ्रॉक को खूंटी से उतार लिया और उसे अपने सर पर बाँध लिया।

उसे थोड़ी गरमाहट मिली लेकिन बुखार में तप रहे शरीर पर जैसे जैसे पानी चढ़ता गया उसके बदन का ताप उतरता गया लेकिन उसे महसूस हो रहा था जैसे शरीर के अन्दर आग सी लगी है।

इतने में दरवाज़े जोर जोर से हिलते हुए दिखाई दिए उसे जैसे कोई बाहर से उसे धकेल रहा हो। उसकी आँखें चढ़ने लगी थी और आँखें बंद होने से पहले वो सिर्फ इतना देख पाई थी कि दरवाज़ा टूट गया है और पानी का सैलाब कमरे में दाखिल हो रहा है।

(5)

चारों ओर से पानी जैसे क्रोध में आग बरसा रहा था। कहीं कोई जानवर ऊपर पानी में तैर आया था तो कोई घर उसकी आगोश में समा गया था। जगह जगह राहत के लिए भेजी गई नाव लोगों को बचाने के लिए जी जान से जुटी थी।

चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था पानी का क्रोध कम हुआ तो लोग अपने अपने घर वालों को ढूँढने निकल पड़े। कहीं निराशा हाथ में आती तो कहीं आशा किसी बच्चे की किलकारी बन कर गूँज जाती। और मां की निगाहें बच्चे को खोजती हुई पूरी की पूरी पानी में डूब जाती। लेकिन परी, उसे खोजने कोई नहीं आया तो किस्मत उसे खोजने निकल पड़ी।

कहीं दूर दरवाज़े नुमा पटिये पर सर पर गुलाबी कपड़ा बांधे कोई छोटा सा शरीर नज़र आ रहा था, लोगों ने खूब आवाजें दीं लेकिन इतना करीब होते हुए भी वो आवाजें उसके कानों में नहीं पड़ रही थी।

राहत सेना का एक नौजवान फ़ौजी पानी में कूद पड़ा, सबने उसे सावधान किया आगे ढलान है ज़रा सी चूक हुई  तो उसका खुद का शरीर इतने गहरे पानी में कहाँ खो जाएगा उसे पता नहीं चलेगा।

वो फ़ौजी अल्लाह ओ अकबर कहता हुआ पानी में आगे बढ़ता रहा और उस पटिये को एक हाथ से पकड़कर धीरे से किनारे तक खींच लाया, कमरे का जो दरवाज़ा परी के लिए बंद रहता था वही उसकी किस्मत का दरवाज़ा बनकर उसे बचाने आया था।। परी को राहत शिविर तक पहुँचाया गया। 2014 की कश्मीर बाढ़ का प्रलय किसी के लिए वरदान साबित होने वाला है, ये कोई नहीं जानता था।

बुखार में तपते परी के शरीर को जब प्राथमिक चिकित्सा दी गई तो वो धीरे धीरे सामान्य स्थिति में आ गई, उसे बार बार उसका नाम पूछा जा रहा था, उसके माता-पिता का नाम पूछा जा रहा था लेकिन परी भला बोलती भी तो कैसे।

हफ्ते भर तक वहीं शिविर में रहते हुए वहां पर अपने बच्चों को ढूँढने आए माता-पिता को परी से मिलवाया गया लेकिन उनमें से कोई भी परी को अपने बेटी बोलकर घर नहीं ले गया।

शिविर ख़त्म होने लगे सब लोग ठिकाने लग गए। लेकिन परी कहाँ जाती। जिस फ़ौजी ने उसे बचाया था वो भी रोज़ मिलने आता था। उसे ये तो समझ आ गया था कि ये लड़की बोल सुन नहीं सकती। सरकारी कार्यवाही करते हुए ये कहकर वो परी को अपने घर ले आया कि जब तक उसके माता पिता नहीं मिल जाते वो परी को अपने साथ ही रखेगा और व्यक्तिगत रूप से भी उसके माता पिता को खोजने की कोशिश करेगा।

परी फ़ौजी के घर आ गई थी, फ़ौजी की पत्नी ने बड़े प्यार से उसकी देखभाल की, उसके शरीर को ही नहीं मन को भी स्वस्थ होने के लिए प्यार भरा वातावरण दिया। अपने घर से उस अपहरणकर्ता के घर और वहाँ से इस फ़ौजी के घर। 8 साल की बच्ची साथ किस्मत ना जाने कौन सा खेल खेल रही थी।

(6)
रोशनी ने ऑफिस जाना शुरू तो कर दिया था लेकिन परी का चेहरा रह रह कर उसकी आँखों के सामने घूमने लगता और आंसुओं में घुलकर उसके सीने में उतरता रहता।

उसके सीने का पत्थर रेत ही नहीं आंसुओं से भीग भीग कर दलदल बन चुका था जिसमें धीरे धीरे वो खुद धंसती जा रही थी। घर से निकलना और घर पहुँचने के बीच का समय तो वो ऑफिस में काट लेती थी लेकिन इस बीच के समय के दोनों ओर जैसे दो पहाड़ खड़े थे जिसे रोज़ दोनों समय उलान्घना उसके लिए बहुत मुश्किल होता था।

आज भी कम्प्युटर में आँखे गढ़ाए ऑफिस का काम कर रही थी, अचानक उसकी कलीग ने कहा– “ये गुमशुदा बच्चों की ना जाने कब की फोटो लोग फेसबुक पर शेयर करते रहते हैं, सच की होती भी है या यूं ही लोग लाइक्स और शेयर  के नाम पर कोई धंधा चलाते हैं कुछ समझ नहीं आता। रोशनी जी आप क्या करती हैं ऐसे स्टेटस को? ”

रोशनी ने कहा- “सच कहूं तो पहले मैं भी बकवास समझकर इग्नोर कर देती थी अब लगता है यदि सौ में से कोई एक किस्सा भी सही है और अपने शेयर करने से बच्चे को खोजने में कोई मदद मिलती है तो केवल एक शेयर करने से हमारा कौन सा समय या पैसा नष्ट हो रहा है… मैं तो कर देती हूँ ”

कलीग रोशनी की हालत जानती थी तो उसने हँसते हुए कहा- “चलो एक काम करती हूँ ऐसे स्टेटस मैं आपको भेज दिया करूंगी आप लोगों को शेयर करते रहा कीजिए… ”

“श्योर” इतना कहकर रोशनी अपने काम में लग गई। शाम को ऑफिस का टाइम ख़त्म होने लगा तो अपनी ऑफिस की साईट के साथ उसने फेसबुक से लॉगआउट करने के लिए हाथ बढ़ाया। उसकी नज़र कलीग द्वारा शेयर की हुई पोस्ट पर अटक गई। पहले तो उसे लगा परी का चेहरा इस कदर उसकी आँखों में बस गया है कि हर बच्ची उसे परी जैसी ही दिखाई देती है।

लेकिन जब उसका शक यकीन में बदल गया कि नहीं, ये फोटो तो परी की ही है तो उसने तुरंत फोटो के साथ दिए फोन नंबर पर कॉल किया। उधर फौजी के मोबाइल की रिंग बज रही थी और इधर रोशनी के दिल की धड़कन इतनी तेज़ हो गई थी कि उसे लग रहा था कि कोई उसके सीने के दलदल से बाहर निकलने के लिए आवाज़ लगा रहा है।

रोशनी उस दलदल में फंसी बच्ची का हाथ पकड़कर उसे खींचने की कोशिश कर रही है लेकिन बच्ची का हाथ बार बार उसके हाथ से फिसल फिसल जा रहा था। रोशनी जोर से घबराकर उठ बैठती है और जल्दी से लाइट जलाती है। आलोक उसे खींचकर अपनी बाहों में भर लेता है। “रोशनी अब तो यकीन कर लो परी लौट आई है।”

आलोक रोशनी के बाजू में सो रही परी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं – “वो बोल नहीं सकती तो क्या हुआ लेकिन उसके चेहरे के सुकून से साफ़ झलक रहा है जैसे कह रही हो, मैं परियों के शहजादी मैं आसमान से आई हूँ”।


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