प्रेम का विज्ञान

प्रेम का विज्ञान

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ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म रहस्य को
स्थूल रूप में खोजने वाले,
अपने ह्रदय के गहनतम में छुपी बात भी
नहीं जान पाऐ तुम
कि अगोचर अणुओं पर सवार होकर
आई तुम्हारे प्रेम की अदृश्य तरंगें
मुझ पर जब दृष्टिपात करती हैं
तो वही तरंगें मेरे देह के उजास से मिलकर
प्रकाश किरण में परिवर्तित हो जाती हैं…

 

मेरी आँखों के प्रिज़्म से गुज़रकर
जब वह तुम्हारी देह से परावर्तित होकर लौट आती हैं..
तब क्या तुम्हें सच में दिखाई नहीं देता
एक अकेली किरण का
मेरी सतरंगी देह में बदल जाना
जिसका हर रंग प्रकृति के भव्य दृश्यों
में विस्तारित होकर
एक ही सन्देश देता है…
कि किसी रंग का अपना कोई अस्तित्व नहीं
जिस रंग को वो परावर्तित करता है
उसी में ढल जाता है…

 

 

तुमसे लौट कर आती मेरी हर बात का
रहस्य तुम जान लो
कि इन सात रंगों पर सवार होकर ही
प्रेम के आठवें रंग का जो अर्थ
मेरी सूक्ष्म आत्मा में प्रवेश कर खो जाता है
वो तुम्हारी स्थूल देह को शब्द रूप में पाकर
उजागर भी हो जाऐगा…

 

 

तब तक तुम अपनी तथाकथित स्वतंत्रता को
भले पलकों के किनारे बाँधकर
आँखों के पीछे के उस रहस्यमय तिमिर में
डूबने से बचाते रहो…
फिर भी सत्य के प्रकाश की अंतिम किरण
जब मेरी नाभि पर टिके ब्रह्मा की सृष्टि
से होकर गुज़रेगी
तब समझ पाओगे ब्रह्माण्ड का वो अबूझ रहस्य
और प्रकृति की निरंतरता का समीकरण
जो जीवन के मूल से उठकर
मस्तिष्क के फूल तक आने की अपनी यात्रा को
पूरा किये बिना उजागर नहीं होता.

 

 


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