संध्या बेला
संध्या बेला
शाम का धुंधलका छा गया था। लेकिन इनर्जी पार्क जगमगा रहा था। उसमें कुछ लोग टहल रहे थे ,कुछ मेडीटेशन करने में लगे थे तथा एक छोड़ पर कुछ युवक खेल रहे थे। मैं भी अपनी सहेली वंदना के साथ रोज की तरह टहलने पहुँच गई। काफी देर टहलने के बाद हम दोनों बेंचनुमा कुर्सी पर बैठ गए।
पार्क का यह बेंच मुझे सबसे अधिक पसंद है ,मैं इसी पर बैठा करती हूँ। क्योंकि बेंच के पीछे आम का एक विशाल पेड़ है। आम के समय में इस पर कोयल की कूक सुनाई पड़ती है और आम के मंजर और टिकोले लटके हुए दिखते हैं , जो मुझे बहुत सुकून पहुँचाती है। हलांकि अभी पतझड़ का समय है , इसलिए पेड़ पत्रविहीन उदास लग रहे हैं। खैर! यह तो प्रकृति का नियम है। तभी बच्चों की टोली आ धमकी , सभी बच्चे फुटबाल खेलने लगे।
मैंने सहेली से कहा, "असली खुशहाल जीवन तो इन बच्चों का ही होता है , देखो ,ये खेलने में कितने मस्त हैं। ” इतना सुनते ही वंदना का चेहरा उदास हो गया। उसने दीर्घ श्वास लिया। मैं उसे देखकर चकित रह गई। बात को बदलते हुए मैंने कहा, "कल तुम्हारे बेटे-बहू विदेश जा रहे हैं न ?”
"हाँ, मेरा दुलारा पोता भी चला जाएगा। मैं उससे बहुत बातें किया करती थी और उसके साथ खेलती भी थी। एक महीना कैसे बीत गया, कुछ पता ही नहीं चला! उन लोगों की छुट्टी समाप्त हो गई। तुम्हारा क्या है, तुम्हारे बेटे- बहू सब भारत में ही रहते हैं।" वंदना ने भावुक होकर कहा।
" उनलोगों के साथ तुम भी क्यों नहीं विदेश चली जाती हो ? यहाँ बड़े से घर में तुमको अकेले अच्छा नहीं लगेगा। वहाँ सब लोग साथ रहना।” मैंने उसे समझाया।
वंदना ने आहिस्ते से कहा, “ मैं एक बार विदेश से हो आई, बेटा-बहू पर बोझ नहीं बनना चाहती हूँ। सुनो, मैं यहाँ रहकर झुग्गी-झोपड़ी वाले बच्चों को मुफ्त पढ़ाती हूँ और बाकी समय तुम जो मेरी खास सहेली हो , मेरी संध्या बेला तुम्हारे साथ ही कट जाएगी। ”
दोनों हँस पड़े।