डॉ संगीता गांधी

Inspirational

5.0  

डॉ संगीता गांधी

Inspirational

दुनिया जीत ली

दुनिया जीत ली

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उर्मि ने स्कूल से आकर बैग रखा। फ्रिज से निकाल कर पानी पीया और बालकनी में पढ़ी कुर्सी पर बैठ गयी।

आज स्नेहा का मैसेज आया था। उर्मि उसे कई बार पढ़ चुकी थी। पुनः उसने फोन निकाला और मैसेज पढ़ने लगी:

“ मम्मी, मेरा रिसर्च वर्क एक बड़ी विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित होगा। मुझे पुरस्कार भी मिलेगा। बहुत रोमांचित हूँ। दो महीने बाद भारत आ रही हूँ। वहाँ से अब आपको व काकी कोअपने साथ ही अमेरिका लेकर आउंगी। ”

 उर्मि का मन हुआ स्नेहा को फोन करे पर वहाँ अभी रात होगी।

‘ चलो, बाद में करूँगी। ’

ये सोच कर उर्मि बालकनी के बाहर देखने लगी। सामने के गार्डन में खेलते बच्चे कितने प्यारे लग रहे थे।

‘उसकी स्नेहा कभी इन बच्चों सा जीवन नहीं जी पायी !’

उर्मि ने अचानक भर आयीं आँखों को बंद कर लिया। बन्द आँखें अतीत के बादलों के पार मानों अलग आकाश में उसे उड़ा ले गयीं।

 सजी-धजी कार से दुल्हन बनी उर्मि उतर रही है।

ससुराल की सब स्त्रियां स्वागत कर रही हैं। कितना खुशी का माहौल है। सासु माँ ने प्रेम से बलैया लेते हुए उर्मि को अंदर लेजाकर बिठाया। प्रेम-प्यार से दो साल गुज़र गए।

“ उर्मि ,तुम गर्भवती हो। ”

डॉ ने चेकअप करके ये ख़बर दी थी। सारे घर में खुशी की लहर दौड़ गयी थी। ऋषभ ने उर्मि को गोद में उठा कर कहा था: “ तुम, मुझे जीवन की सबसे बड़ी खुशी देने जा रही हो। आज से बस आराम, कोई काम नहीं। स्कूल से छुट्टी ले लो। ”

सास-ससुर के तो पैर ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। ऋषभ इकलौता बेटा था। उसके जन्म के इतने वर्ष बाद घर में खुशियों ने दस्तक दी थी। उर्मि के मम्मी -पापा, भैया-भाभी सब खुशी में झूम रहे थे।

 सब सही था। उर्मि ने पांचवे महीने के बाद स्कूल की जॉब छोड़ दी थी। वे लोग छुट्टी नहीं दे रहे थे।

डॉ बता रहे थे सब ठीक है।

समय पँख लगाकर उड़ गया। उर्मि नर्सिंग होम में थी।

सारा परिवार बेसब्री से बच्चे की किलकारी सुनने को बेताब था।

डॉ ने ऋषभ को अपने केबिन में बुलाया। उसके बाद ऋषभ ने जाकर बच्चे को देखा !

“ मैं ...इस बच्चे को स्वीकार नहीं करूंगा। ये कैसे हो सकता है ? ये बच्चा ...मेरा नहीं है !”

सास- ससुर ,उर्मि के मायके वाले सभी हतप्रभ थे।

“ ये कैसे हो सकता है… !”

“ देखिए ,ऋषभ जी ये आपका ही बच्चा है। ”

डॉ की ये आवाज़ उर्मि ने सुनी थी।

“ नहीं ! मेरा बच्चा और हिजड़ा … ये नहीं हो सकता। मैं आप लोगों पर केस करूंगा। आपने बच्चा बदल दिया है। ”

ऋषभ गुस्से में चिल्ला रहा था।

दादा -दादी ,नाना -नानी किसी ने बच्चे को आँख भर कर नहीं देखा। बस उर्मि उसे छाती से लगाये बैड पर बैठी थी।

“ आपको ,जो करना है कीजिये। डीएनए टेस्ट से साबित हो जाएगा कि बच्चा आपका ही है। हमनें कोई बच्चा नहीं बदला। ” डॉ ने दृढ़ता से कहा था।

सारा परिवार घर आ चुका था।

आस पड़ोस के लोग बधाई देने आए तो सास-ससुर ने रोने का नाटक करते हुए कह दिया :” बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। ”

उर्मि कमरे में सन्न बैठी थी। उसका जीवित बच्चा मरा हुआ बताया जा रहा था। क्या कसूर था उस मासूम का !

‘ यही की वो प्रकृति के सामान्य माने जाने वाले लिंगों से अलग था ! पर उसके बाकी सभी अंग तो मनुष्य जैसे थे। उसकी साँसे चल रहीं थी। उसके लिए उर्मि की छातियों में दूध उमड़ रहा था। वो बच्चा एक इंसान तो था। ’

रात हो चुकी थी। सब कमरे में आये।

“ उर्मि,हम सबने फैसला किया है कि इस बच्चे को कहीं अनाथाश्रम में छोड़ दिया जाए। इससे पहले की लोगों को पता चले कि ये एक किन्नर है…”

ऋषभ ने इतना कहते हुए,सोये हुए बच्चे को उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाए।

“ नहीं, खबरदार जो किसी ने मेरे बच्चे को हाथ लगाया।

ये मेरे पास रहेगा बस। ” उर्मि ने झट से बच्चे को उठा कर सीने से लगा लिया।

“पागल मत बनो, क्या करोगी इसका। सबने सही फैसला किया है। ” ये माँ के शब्द थे।

उर्मि अवाक थी। ” माँ, आप भी ! यदि मैं ऐसी पैदा हो जाती तो ? आप मुझे भी फेंक देतीं ?”

“उर्मि ,भावनाओं में मत बहो, ठंडे दिमाग से सोचो। इस बच्चे को किन्नर समाज वैसे भी हमारे पास नहीं रहने देगा। वो लोग इसे ले जायेंगे। हम क्यों अपनी जग हंसाई करवाएं। इसे अनाथाश्रम छोड़ आते हैं। ”

ये उर्मि के ससुर के शब्द थे।

“जग हंसाई ! लोग हंसेंगे,इस डर से अपने बच्चे को फेंक दूँ ! जो समाज किन्नरों से जीने का अधिकार छीन लेता है, उसकी हँसी की परवाह करूँ !”

उर्मि की ममता उसे सम्बल दे रही थी। उसने दृढ़ता से जवाब दिया:” जिसे बच्चे को नहीं अपनाना, न अपनाए। पर मैं अपने बच्चे को पालूंगी। किन्नर समाज और आपके समाज सबसे लड़ूंगी। ये मेरा आखिरी फैसला है। ”

 “तो ठीक है, फिर हम दोनों साथ नहीं रह सकते। ”

यह ऋषभ का फैसला था। इसमें सास-ससुर की भी सहमति थी।

 उर्मि मायके आ गयी। मम्मी-पापा ,भैया- भाभी सभी का मुँह बना था। उसे दो वक्त का खाना व सिर छुपाने की जगह देकर वे सब मानों अहसान कर रहे थे।

 कुछ दिन बीते। भाभी ने एक फैसला सुनाया:” अगर उर्मि यहाँ रहेगी तो वो और भैया अलग हो जाएंगे।

वे नहीं चाहते कि उनके बच्चे उर्मि के किन्नर बच्चे के साथ रहें !”

उर्मि खामोश थी। उसके अंदर सब कुछ बिखर रहा था।

ये वहीं भाभी थीं -’जो एक समाज सेवी संस्था में गरीब बच्चों के लिए काम करतीं थीं ! सरकार से बड़ी ग्रांट लेती थीं ! आज एक मासूम बच्चा उन्हें खतरा लग रहा था !’

 भाभी की बात सुन माँ रोने लगी। पापा ने उर्मि से साफ कह दिया :” अपना इंतज़ाम कर लो। हम तुम्हें इस बच्चे के साथ यहाँ नहीं रख सकते। थोड़ी आर्थिक सहायता अवश्य कर देंगें। ”

उर्मि सुन रही थी। ‘एक बड़े समाज सेवक-उसके पापा, जो समाज सेवा के लिए कई पुरस्कार जीत चुके हैं !

उनकी समाज सेवा की कलई खुल रही थी। ’

 भैया व माँ का मौन स्पष्ट कर रहा था कि वो भी सबके साथ हैं।

 जब पिता ने ही बच्चे को नहीं स्वीकारा तो अन्यों से क्या शिकायत !

उर्मि ने मम्मी-पापा से कुछ दिन की मोहलत ली। अपने पुराने स्कूल में कोशिश की। उसे पुनः जॉब मिल गयी।

स्कूल में उर्मि ने सभी को ये बताया कि वो बहुत खुश है और उसे बेटी हुई है।

 उर्मि किराए के घर में आ गयी। किसी से उसने कोई मदद नहीं ली। अपना फोन नम्बर भी बदल लिया। अब वो थी और उसका बच्चा,यही उसकी दुनिया थी।

 अपनों से मिले दुखों के साथ अभी बाहर की दुनिया के दुख सामने आने बाकी थे।

कुछ महीने बीत चुके थे। उर्मि ने बच्चे के लिए एक आया रखी थी। दोपहर तक उर्मि आती तो आया चली जाती। आस-पास किसी से भी उर्मि ज्यादा बात नहीं करती। हाँ मालिक मकान का बेटा कभी कभी आ जाता।

 ‘ स्त्री के भीतर एक ऐसी सम्वेदना होती है जो उसे पुरुष की नज़रों के हर कोण से परिचित करवा देती है। ’

उर्मि मकान मालिक के बेटे गीत से हूँ-हाँ बस इतनी ही बात करती। उसकी नज़रों के भाव बखूबी समझ रही थी।

 एक दिन उर्मि को स्कूल से आये कुछ समय हो गया था। बच्चे को सुला कर वो बच्चों की कापियां देख रही थी। तभी घण्टी बजी। उर्मि ने दरवाज़ा खोला ,सामने गीत था।

‘उर्मि जी, अंदर आने को तो आप कहती नहीं। चलिये हम खुद ही आ जाते हैं। ’

ये कहते हुए गीत अंदर आकर कुर्सी पर धमक गया।

‘ उर्मि जी ,चाय के लिए तो कम से कम पूछ लीजिये। ’

उर्मि चुपचाप चाय बनाने चली गयी। उसका मन बहुत घबरा रहा था। चाय के लिए पानी चढ़ाया ही था कि गीत किचन में आ गया। उसने एक पैकेट से साड़ी निकाल कर उर्मि के कंधों पर डाल दी। उर्मि घबरा कर पीछे हट गयी।

“ उर्मि जी, शमाइये मत, ये साड़ी आपके लिए लाया हूँ।

अभी क्या उम्र है आपकी। थोड़े अच्छे कपड़े पहना कीजिये। बस आप हमारा ख्याल रखिये,हम यूं ही आपका ख्याल रखेंगे। ” ये कहते हुए गीत ने उर्मि का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा।

उर्मि ने ज़ोर से एक थप्पड़ रसीद किया। साड़ी उठाकर फेंक दी।

गीत गाल सहलाते हुए चिल्लाया : “ तू क्या समझती है, मैं तेरी असलियत नहीं जानता क्या ! साली ,तेरी आया ने सब बताया है ,तूने हिजड़ा जना है। तेरे पति ने छोड़ रखा है तुझे। सोचा था कि चुप रहूँगा। दोनों मिलकर ऐश करेंगें। पर अब तू देख ,तमाशा। हिजड़ों को खबर करता हूँ,आकर बच्चे को लेकर जायेंगें। तेरा भी मुँह काला कर इस घर से निकालूंगा। ”

चिल्लाते हुए गीत बाहर निकल गया। उर्मि को काटो तो खून नहीं। अब वो क्या करेगी ?

उर्मि भागी। उसने बैग में कपड़े ,गहने और जरूरी सामान डाला ,बच्चे को उठाकर घर से बाहर निकल गयी।

उर्मि तेज कदमों से चली जा रही थी। उसे लग रहा था कि ‘ऋषभ, गीत ,सास-ससुर, उसके मायके वाले ,किन्नर समाज ,उसका समाज सभी अपने लंबे लंबे नाखून बढ़ाये उसकी ओर बढ़ रहे हैं। उसके अस्तित्व के साथ उसकी ममता को छीनने के लिए सब एक हो गए हैं !’

उर्मि भाग रही थी। भागते भागते स्टेशन पहुँची। सारी रात स्टेशन पर गुज़ारी।

‘ क्या करूँ ,कहाँ जाऊं ?’ ये प्रश्न उर्मि के अंदर हथौड़े सा बज रहा था।

‘हर प्रश्न का उत्तर होता है। हर रात के बाद सुबह होती है। अंधेरा कितना भी गहरा क्यों न हो, सूरज की एक किरण उसे चीर देती है। ’

रात के अंधेरे के बाद सूरज उगा।

“ बेटी ,बच्चा भूखा है। ”

एक आवाज़ ने उर्मि को चेतन किया। उर्मि ने देखा फटे पुराने कपड़े पहने एक भिखारिन सी अधेड़ स्त्री उसके पास खड़ी है। उर्मि बच्चे को दूध पिलाने लगी।

“ अकेली जा रही हो। ”

भिखारिन फिर बोली। उर्मि मौन थी। क्या कहे ,कहाँ जा रही है ? उर्मि को खुद नहीं पता था।

“ मैं,कभी स्टेशन पर ,कभी गाड़ियों में भीख मांगती हूँ।

तुम बहुत दुखी लग रही हो। ”

स्त्री की बात सुन उर्मि की आँखें भर आयीं। उसने गौर से देखा भिखारिन के एक हाथ पंजे नहीं थे।

गाड़ियाँ आ-जा रहीं थीं। उर्मि को कहीं तो जाना था। वापिस जाने का मतलब था, बच्चे से दूर होना। इस शहर में उसकी एक पहचान थी ,जो उसकी ममता की शत्रु थी। उसे अपनी पहचान से दूर जाना था।

भिखारिन उठी और एक गाड़ी में चढ़ गयी। उर्मि भी उस गाड़ी में चढ़ गयी।

भीड़ भरी गाड़ी में उर्मि ज़मीन पर एक कोने में बैठी थी। भिखारिन भीख मांग चुकी थी। अक्सर वो एक स्टेशन बाद उतर जाती थी पर आज न जाने क्यों नहीं उतरी।

कई स्टेशन निकल गए। उर्मि ने दो बार बच्चे को दूध पिलाया। भिखारिन ने लोगों की घूरती नज़रों से बचाने के लिए उर्मि को ओट दी।

एक स्टेशन पर वो कुछ खाने को ले आयी।

‘लो खा लो। ’

‘नहीं ‘

‘खा लो,जानती हूँ भूखी हो। फिक्र न करो कुछ मिलाया नहीं है,मैं भी यही खा रही हूँ। ’

उर्मि ने थोड़ा लेकर खाया।

दोनों की नजरें मिलीं। ‘दर्द की एक मूक भाषा होती है,जो अनजान लोगों के बीच एक सेतु का काम करती है। ’

“ डरो मत, यहां इतनी भीड़ में कोई टिकट चेक करने न आता। ”

स्त्री मुस्कुराते हुए बोलने लगी :” मैं ऐसी न थी। हालात ने बना दिया। दसवीं पास करते ही गाँव में शादी हो गयी। बहुत तो नहीं पर इतना था कि हम सुख से रहते थे। बड़ा परिवार जेठ,ननद ,देवर ,सास सब थे। तीन बच्चे हुए। दो लड़की ,एक लड़का। ” स्त्री की मुस्कुराहट अब दर्द में बदल गयी !

“ मेरे बदन पर सफेद दाग होने लगे। बहुत ध्यान न दिया। दाग बढ़ने लगे। सबको नज़र आने लगे। पति दुत्कारने लगा। मेरे हाथ का छुआ भी कोई न लेता। बच्चों को दूर कर दिया गया। सबने मुँह मोड़ लिया। रोग बढ़ता गया। ”

स्त्री चुप हो गयी। उसकी बन्द आँखों से आँसू गालों पर लुढ़क आये। उर्मि ने मौन तोड़ा फिर क्या हुआ ?

“ कोढ़ मेरे शरीर को घेर चुका था। किसी ने इलाज करवाने की जरूरत न समझी। गाँव से कुछ दूर कस्बे में अस्पताल था ,कोई न लेकर गया। सब मुझे पापिन कहते।

घर से निकाल दिया। एक ग्राम सेवक ने अस्पताल पहुंचाया। मेरे हाथ की उंगलियां जा चुकीं थीं। कुछ महीने इलाज चला। मैं पूरी तरह ठीक हो गयी। पर सबकी सोच ठीक न हुई। मुझे घर में घुसने न दिया गया। पति ने दूसरी शादी कर ली। मैं भटकते भटकते भिखारिन बन गयी। ”

उर्मि महसूस कर रही थी कि उस स्त्री के अंदर का दर्द जैसे अपना रास्ता बनाकर बह निकला था।

‘जो इंसान स्वयं दर्द में होता है ,वह दूसरे के दर्द की भाषा अच्छे से समझ जाता है। ’

“मेरा नाम उर्मि है, आपका ?”

“आप ! इतना आदर। ” वो स्त्री मुस्कुराई।

“ आप मुझसे बहुत बड़ी हैं। आप कहना शिष्टाचार है। ”

“मुझे किसी ने ये आदर नहीं दिया। तुम पहली हो, मेरा क्या नाम है ? अब क्या फर्क पड़ता है !मेरे वजूद के साथ मेरा नाम भी कहीं खो चुका। ”

भिखारिन ने प्यार से बच्चे को देखकर कहा जो ,थोड़ा कसमसा रहा था।

“ चलिये,आपको काकी कहती हूँ। एक पूरा दिन ट्रैन में गुज़र गया है। आप और मैं ,दो अजनबी जाने किस डोर में बंधें कहाँ जा रहे हैं ?”

ये कहते हुए उर्मि ने अपनी पूरी व्यथा उस स्त्री के सामने उंडेल दी।

दोनों का दर्द सांझा हो चुका था। एक ओर रात के बाद नयी सुबह हो चुकी थी। गाड़ी एक छोटे से स्टेशन पर रुकी। दोनों ट्रैन से उतरीं। गार्ड को चकमा देकर बाहर निकल गयीं।

 उर्मि व काकी अब एक दूसरे का सहारा थीं। उर्मि ने अपने गहने बेच पैसे जुटाए। एक कमरा किराए पर लेकर दोनों रहने लगे। काकी बच्चे को बहुत प्यार करती। उर्मि ने पहले बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। कुछ समय बाद उसे एक स्कूल में जॉब मिल गयी। काकी बच्चे को सम्भालती। ज़िन्दगी चलने लगी।

 स्नेहा दस साल की हो गयी थी। स्नेहा उर्मि ने बच्चे को ये नाम दिया था।

“ काकी, मैं सब बच्चों से अलग हूँ। ”

“नहीं ,बिटिया ऐसा नहीं है। ”

“ काकी, मैं दूसरी लड़कियों जैसी नहीं हूँ। मैनें देखा है स्कूल में ,बाकी लड़कियों को…”

स्नेहा की इस बात से काकी मन ही मन डर गई थी। पर उसने स्नेहा को बहला दिया।

उर्मि के आने पर काकी ने उसे बताया। उर्मि जानती थी कि ये प्रश्न उसके सामने आयेंगे। अब तक वो बहुत मज़बूत हो चुकी थी। उसे पता था कि अब देश ने कानून ने किन्नरों को ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में मान्यता दे दी है। बहुत से किन्नर पढ़ रहे हैं। आगे बढ़ रहे हैं।

उर्मि ने स्नेहा को पास बुलाया। प्यार से गोद में बिठाया। उसका मुँह चूमा। अपनी सारी ममता समेट कर उर्मि ने स्नेहा से कहा:

“ स्नेहा ,तुम आम बच्चों से अलग हो। तुम बहुत स्पेशल हो। इसलिए देखो भगवान जी ने तुम्हें दो मम्मियाँ दी हैं।

बेटे संसार में सब बच्चों को सब कुछ नहीं मिलता। तुम्हें भी एक अलग शरीर मिला है। तुम वो सब काम कर सकती हो जो बाकी बच्चे कर सकते हैं। ”

स्नेहा कुछ देर चुप रही। अचानक रोने लगी। काकी घबरा गयी। उर्मि ने उन्हें खामोश रहने का इशारा किया।

स्नेहा रोते रोते बोली -” मम्मी उस दिन मैं कनु के घर गयी थी। उसने मेरे सामने कपड़े बदले। मैं उससे अलग हूँ। ये बात मैनें उसे बताई तो उसने बताया कि मैं हिजड़ा हूँ। अब वो मेरे साथ नहीं खेलती। स्कूल में भी बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं। कुछ टीचर भी मुझे देखकर हँसते हैं। ये हिजड़ा क्या होता है ?

मैं ऐसी क्यों हूँ ?”

उर्मि ने स्नेहा को गले लगाया। जिस व्यथा का सामना करने की वो दस साल से तैयारी कर रही थी ,वो व्यथा साकार हो चुकी थी।

“ स्नेहा, तुम एक सामान्य मनुष्य हो। तुम क्लास में फर्स्ट आती हो। खेल में भी जीतती हो। कितना अच्छा डांस भी करती हो। तुममें कोई कमी नहीं। बस तुम्हारा शरीर थोड़ा अलग है। अब देखो काकी के एक हाथ की उंगलियाँ नहीं हैं , तुम्हारी और मेरी हैं। अब काकी क्या इसे लेकर रोती है ! नहीं न। ऐसे ही हमारे पड़ोस में दिनेश अंकल हैं वो बोल नहीं सकते पर सारा काम करते हैं। वो क्या रोते हैं ! कभी नहीं रोना ,कोई कितना भी हँसें ,मज़ाक बनाये ,बस एक जवाब देना --

मुझे दुनिया जीतनी है ,इसलिए मैं ऐसी हूँ। ”

 स्नेहा चुप हो गयी थी। उर्मि बोली चलो आज रात हम सब फ़िल्म देखेंगे और बाहर आइसक्रीम खाएंगे।

स्नेहा खुश हो गयी थी। उर्मि जानती थी कि ऐसे बहुत से प्रश्न उनके सामने आयेंगे। स्नेहा को लड़ना होगा। समाज को दिखाना होगा कि वो किसी से कम नहीं है।

स्नेहा आठवीं क्लास में पहुँच चुकी थी। उसे लेकर बहुत सी बातें होतीं। अब सब जान चुके थे कि वो एक किन्नर है। उर्मि ने एक छोटा सा घर खरीद लिया था। वो स्नेहा के भविष्य के लिये पैसे जमा कर रही थी।

स्नेहा सारे उपहास को सहते हुए खुद को मजबूत बना रही थी। वो जानती थी कि उसे :” दुनिया जीतनी है…”

एक दिन अचानक उर्मि के घर कुछ किन्नर आये।

“ हमें पता चला है कि स्नेहा एक किन्नर है। हम उसे अपने समाज में ले जायेंगे। ”

उर्मि पर तो जैसे वज्रपात हुआ। काकी उनके हाथ जोड़ने लगी।

वे लोग अपनी बात पर अड़े थे। उर्मि रोने लगी। उसने उन लोगों से कहा: “ मेरी स्नेहा को मत ले जाइए। मैनें सब कुछ खो कर उसे पाया है। ”

स्नेहा पर्दे की ओट से सब देख-सुन रही थी। वो बाहर आयी। उसने किन्नर सरदार का हाथ पकड़ा और बोली:

“ आंटी ,मैं जानती हूँ आप लोग नाचते-गाते हो। बधाई देते हो। बहुत से किन्नर सिग्नल पर भीख भी मांगते हैं। क्या आप चाहते हो कि मैं ये सब करूँ ? मैं तो दुनिया जीतना चाहती हूँ !

अगर जीत गयी तो सब कहेंगे कि देखो स्नेहा किन्नर कहाँ पहुँच गयी ! पर आपके सपोर्ट के बिना ये नहीं होगा। । ”

किन्नर सरदार घुटनों के बल बैठ गयी। उसने स्नेहा की आँखों में देखा ,उसे बहुत से सपने तैरते मिले। किन्नर ने स्नेहा को गले लगाकर कहा: “काश हम भी ये सपने देख पाते। जा बच्चे तेरे सपनें जरूर पूरे होंगे। ”

स्नेहा आज़ाद थी। अब उसके पास मम्मी ,काकी व किन्नरों का भी समर्थन था। समाज की हँसीं को वो बहुत पीछे छोड़ चुकी थी। स्नेहा दसवीं व बारहवीं की परीक्षा में सारे राज्य में प्रथम आयी थी। उसे पुरस्कार देने के लिए राजधानी बुलाया गया। सब उसके साथ आये। पुरस्कार देने वाले थे विधायक विनायक जी । उर्मि के ससुर व स्नेहा के दादा। समारोह में मुख्य अतिथि थे- एक बड़े समाज सेवक उर्मि के पिता। समारोह समाप्त होने के बाद उर्मि के ससुर व पिता ने उससे व स्नेहा से बात करनी चाही ! उर्मि व स्नेहा उनके झुके सिर को पीछे छोड़ अपना गौरव से उठा स्वाभिमान ले आगे बढ़ गयीं।

उर्मि को पता चला ऋषभ ने दूसरा विवाह कर लिया था पर पत्नी से कभी नहीं बनी। अब वो और उसकी पत्नी अलग अलग रहते हैं। सन्तान कोई नहीं। भैया और भाभी का बेटा ड्रग एडिक्ट हो गया। नशा मुक्ति केंद्र में है।

वापिस लौटते हुए उर्मि सोच रही थी: “ मेरे अपनों ने सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए जिस बच्चे को किन्नर जान दुत्कार

दिया। आज उसने मेरा सिर गर्व से ऊँचा कर दिया। वे सब लोग अपने अपने झूठे खोलों में दुबके कितने असहाय लग रहे थे। ”

अपने अतीत को पीछे छोड़ उर्मि,स्नेहा व काकी आगे बढ़ रहे थे। स्नेहा ने विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया। अब वो शोध के लिए विदेश जा रही थी।

“उर्मि, बेटी कब तक यहाँ बैठी रहोगी। चलो खाना खा लो। ”

काकी की आवाज़ से उर्मि अतीत के बादलों से उतर कर वर्तमान की ज़मीन पर आ गयी।

दो महीने बाद उर्मि ,काकी दोनों स्नेहा के साथ विदेश में थीं।

स्नेहा का शोध कार्य सराहा जा रहा था। वो हर जगह साक्षात्कार दे रही थी। उसे पुरस्कार मिल रहा था। सारा हाल तालियों से गूंज रहा था। स्टेज पर पुरस्कार लेते हुए स्नेहा ने कहा-

मैंने दुनिया जी ली।


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