सब कुछ अधूरा है

सब कुछ अधूरा है

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“अपनी सेहत का कुछ ध्यान रखिए,.....सुन रहे हैं।”

 

मैं अचानक चौंक जाता हूँ। यह किसकी आवाज है जानी पहचानी लग रही है। किसी अपने की है। मगर किसकी है यह आवाज? कौन मेरी सेहत को लेकर इतना फिक्रमंद है? यहाँ तो जान की पड़ी हुई है, सेहत के बारे में सोचने के लिए वक़्त ही कहाँ है? मैं दिमाग में ज़ोर डालने लगता हूँ। सुनाई पड़े शब्दों को बार-बार याद करता हूँ। इस तरीके से मुझे कौन बोल सकता है? जल्दी ही ध्यान आता है कि इस तरह तो सुधा बोलती है। हाँ!......यह तो सुधा की आवाज है। जंगल में रहने के कारण अब पत्नी और बच्चों की आवाज को भी याद करना पड़ता है.......क्या जीवन है?

 

मेरे मुँह से ‘हुंह’ निकल जाता है। मैं खुद पर व्यंग्य करता हूँ।

 

मैं आवाज के पीछे-पीछे भागकर सुधा को ढूँढने लगता हूँ। उसको देखने के लिए मैं आँख फाड़-फाड़कर चारों तरफ नजर घुमाता हूँ। घर के अंदर इधर-उधर देखने के बाद दरवाजे से बाहर झाँकता हूँ। सुधा यहाँ पहुँच कैसे सकती है? उसे तो हमारे ठिकाने का कुछ भी अता-पता नहीं है। इस घने वीरान जंगल में यहाँ के रहवासियों के अलावा कोई और पहुँच भी नहीं सकता है। दिमाग में कई प्रश्न एक साथ नाचने लगते हैं। 

 

सुधा गाँव में है और मैं इस घनघोर जंगल में बने हुए अस्थायी ठिकाने में अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा हूँ। इस जंगल में कुछ खास आवाजें ही सुनाई देती हैं...... जैसे कीट पतंगों, जानवरों और बंदूकों की। अपने साथियों की आवाज के अलावा, इंसानी आवाज यहाँ यदा-कदा ही सुनाई देती है। फिर सुधा की आवाज यहाँ तक पहुँच कैसे गई? आवाज बिल्कुल साफ़-साफ़ सुनाई दी है। मैंने अच्छे से सुना है। तो क्या मौन का संदेश ज्यादा स्पष्ट और तीव्र होता है? आवाज सुधा की ही थी। बिल्कुल साफ-साफ शब्द सुनाई दिए हैं। मैं सो भी नहीं रहा था कि यह कोई सपना हो। यहाँ मोबाइल भी काम नहीं करता है। रेडियो और फोन भी नहीं है।

 

इस ऊँघते, अनमने और वीरान जंगल में भावनाएँ उसी इंसान के हृदय में उछल-कूद करती हैं जो देश-दुनिया को छोड़ कर भगवान की शरण में चला जाता है। चारों तरफ से सुनाई देती विभिन्न सन्नाती आवाजें दिलो-दिमाग को तरंगों की अलग दुनिया में पहुँचा देती हैं। यह एक अलग तरह की आभासी दुनिया है, मगर इसकी लत मजबूरीवश पड़ती है और इसमें दिमाग की सक्रियता बढ़ने के बजाय घटने लगती है। मनुष्य चुकने लगता है। कर्तव्य के साथ विवशता भी जुड़ी होती है, इसका मुझे अच्छा अनुभव हो रहा है। सच कहूँ......कभी-कभी जिंदगी बड़ी बोझिल सी लगती है। मैं निराशावादी नहीं हूँ पर इस काम में मुझे रोमांच का अनुभव बिल्कुल नहीं हो रहा है।          

 

लगता है वह मुझे याद कर रही है। दस पंद्रह दिन पहले मेरा पिछला पत्र मिला होगा, उसी को पढ़ रही होगी। वह एक ही पत्र को दिन में बार-बार पढ़ती है। जब तक नया पत्र नहीं मिल जाता, वह पुराने को पढ़ती रहती है। सारे पत्रों को बहुत संभालकर रखे हुए है, अपने गहनों की तरह। उस बेचारी की उम्र मेरे घर आने के इंतजार में बीत रही है। साल दर साल इसी तरह गुजर रहे हैं। मेरे पास तो व्यस्त रहने के कुछ बहाने भी हैं पर वह तो व्यस्त रहने के समय भी दिमाग के किसी कोने में इंतजार करती रहती है। यदि मेरे पास थोड़े से भी पैसे होते तो मैं यह नौकरी छोड़ देता। सच कह रहा हूँ। आप मुझे बुजदिल और गद्दार मत समझ लीजिएगा। मुझे अपने देश से प्यार है, मातृभूमि से प्यार है, पर मैं भी एक इंसान हूँ। अपने परिवार से मेरा भी प्यार और लगाव है। मैं उनके लिए भी जीना चाहता हूँ। अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना चाहता हूँ।

 

मैं धोखा नहीं खा सकता। आवाज सुधा की ही थी। मैं अच्छे से जग रहा था। पूरे होशो-हवास में था।

 

तो क्या आवाज इतनी दूर भी पहुँच सकती है? कई हजार किलोमीटर दूर इस सुनसान जंगल में। इसका मतलब दिल से निकली आवाज कई-कई देशों को पार करती हुई अपने प्रिय के पास पहुँच जाती है। जरूर प्रेम और भावना की अपनी अलग तरंगें होती होंगी। अन्यथा यह कैसे संभव हो सकता है? प्रेम की अलग मानसिक दशा इन्हीं तरंगों के कारण होती होगी। इन्हीं तरंगों की दुनिया को यथार्थवादी लोग पागल प्रेमियों की दुनिया कहते हैं। एक अलग किस्म की दुनिया!

 

सुधा की आवाज इन्हीं तरंगों के साथ यहाँ तक पहुँची होगी। कुछ यथार्थ काल्पनिक प्रतीत होते हैं। इनकी व्याख्या विज्ञान और तर्क से परे होती है। इन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

 

निश्चित रूप से भावना का स्तर विज्ञान से ऊँचा है।

 

सुधा पक्का मुझे याद कर रही है। मुझे भी अपने घर की बहुत याद आने लगी है। मेरा मन शरीर से निकलकर घर के आँगन में पहुँच गया है.....अपनों के पास। कई-कई सुनहरे पल एक साथ दिमाग में घूमने लगे हैं। कई यादें मुझे भावुक कर रही हैं और मेरी आँखें नम हो रही हैं। कई दिनों से घरवालों को याद करने का वक्त ही नहीं मिला था। मैं अभी पत्र लिखता हूँ। इस दुनिया में कल का क्या भरोसा?

 

मैं अपनी पेन और कापी को ढूँढने लगता हूँ। कापी टेबल के ड्रावर में रखी हुई है। पेन शर्ट की जेब में है।

 

आज गर्मी कुछ ज्यादा लग रही है। मैं पंखा चालू करने के लिए दीवार में लगे हुए स्विच को दबाता हूँ। बिजली नहीं है। पंखा चालू नहीं हुआ। मुझे कुछ खीझ सी हुई। मैं कुर्सी टेबल में बैठकर पत्र लिखना शुरू करता हूँ।

 

प्यारी सुधा,

ढेर सारा प्यार !

यह लिखने के साथ ही मैं मुस्कराने लगा हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे सुधा मेरे सामने आकर खड़ी हो गई है। वह कुछ चिंतित सी लग रही है। मेरा मुस्कराना भी बंद हो जाता है। मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि उसकी आँखों में स्नेहिल आँसू भरे हुए हैं। वह मुझे लेकर कुछ भयभीत है। मेरी आँखें भी भीगने लगी हैं। शादी के कुछ साल बाद ही मेरी नौकरी लग गई थी और इस दूर वीरान घने जंगल में पोस्टिंग मिली थी। यहीं से चालू हुआ था हमारा एकाकी जीवन। हमारा संघर्ष। कभी-कभी लगता है कि क्या सिर्फ दुःख देने के लिए ही मैंने उससे शादी की थी? पता नहीं रात को सो भी पाती होगी या नहीं। कितने भयानक सपने आते होंगे। सुबह उठने पर किसी की आवाज सुनने की इच्छा नहीं होती होगी। कहीं कोई अनहोनी खबर न सुना दे। मैं कुछ-कुछ आत्मग्लानि की दशा से गुजरने लगता हूँ। मैं अपने आप को टटोलने लगता हूँ। खुद के पक्ष में कारण ढूँढता हूँ। तभी मुझे महसूस होता है कि मैं भी संघर्ष ही कर रहा हूँ, परिवार के लिए। मेरी आत्मग्लानि कुछ कम हो जाती है। रोजी-रोटी के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ता है। लोग पैसा कमाने के लिए कहाँ-कहाँ नहीं भटकते हैं। दूसरे देश तक जाते हैं। यदि मैं नौकरी नहीं करूँगा तो ज़रूरतें पूरी करने के लिए पैसा कहाँ से आएगा। मुझे देश की सीमाओं में लड़ते हुए सैनिक याद आ जाते हैं। कुछ समय के लिए मैं कहीं खो सा जाता हूँ। बंदूकों और बम की आवाजें मेरे कान में गूँजने लगती हैं। हाथों से सिर को पकड़कर मैं नीचे की तरफ देखने लगता हूँ।

 

सामने मुझे कॉपी पेन दिखाई देती है और दिमाग युद्ध के मैदान से वापस सुधा की याद में खोने लगता है।  

 

मैं आगे लिखना चालू करता हूँ।

 

“मैं यहाँ पर बिल्कुल ठीक हूँ और उम्मीद करता हूँ कि तुम लोग भी सकुशल होगे।”

 

मैं फिर से मुस्कराने लगता हूँ। इस बार मैं खुद पर हँस रहा हूँ। दरअसल मैंने सरासर झूठ बोला है। यहाँ मेरा एक-एक पल संकटों से घिरा हुआ है। रात या दिन में जब भी सोने के लिए जाता हूँ तो इस बात की कोई गारंटी नहीं रहती है कि सुबह उठ ही जाऊँगा। मेरे बहुत से साथी इस जंगल में मारे जा चुके हैं। कुछ को तो जिंदा जला दिया गया है। ज्यादातर को घेरकर मारा जाता है। हो सकता है मुझे भी किसी दिन इसी तरह मार दिया जाए। क्या सुधा इतनी अनपढ़ और नासमझ है कि वह यह सब नहीं जानती समझती होगी। वह भी तो समाचार पत्र और टीवी वगैरह देखती—पढ़ती ही होगी। जान पहचान वाले भी कुछ न कुछ जरूर बोलते बताते होंगे। इस प्रकार की चर्चा लोगों में सनसनी भरा डरावना उत्साह पैदा करती है।  

 

अभी पंद्रह दिन पहले ही हमारे इलाक़े में एक मुठभेड़ हुई थी। संयोग से हम लोग पूरी तरह सचेत थे और हमने उनके कई आदमियों को भूंज दिया था। यह खबर टीवी के सारे चैनलों में बड़े जोश के साथ दिखाई गई थी। यह सब देखकर सुधा बेचारी कितनी परेशान रहती होगी? वह कल्पना में क्या-क्या नहीं सोचती होगी? कैसे-कैसे डरावने विचार उसके मस्तिष्क में उठते होंगे? किसी भी परिस्थिति का भय, उसकी वास्तविक स्थिति से ज्यादा खतरनाक होता है। लगातार भय के साथ जीने वाला इंसान भयंकर उथल-पुथल का शिकार होता है। सुधा को निश्चित रूप से मुझसे कहीं ज्यादा तनाव होता होगा। मेरी मुठभेड़ तो कभी-कभी होती है, वह तो हर समय ऐसे मुठभेड़ का सामना करती है।

 

मुझे सुधा के साथ-साथ गोलू और माँ की याद आ रही है।  अच्छा ही है कि माँ ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। वह अख़बार वगैरह नहीं पढ़ती है और टीवी में समाचार भी नहीं देखती है। क्षण-क्षण की नकारात्मक खबरों से दूर माँ कुछ शांत रहती होंगी। पर वह क्या सोचती होंगी? उनका दिमाग तो घूम-फिरकर मुझ पर ही आता होगा। घर का माहौल परिस्थिति का बखान खुद ब खुद कर देता है अतः माँ को कुछ जानकारी ही न हो, ऐसा हो नहीं सकता। यह बातें तो आजकल घर-घर के चर्चा का विषय है।

 

मुझे अपना पूरा परिवार आँखों के सामने दिख रहा है। मेरी आँखें भीग रही हैं। मैं आँसू पोंछकर पत्र लिखने लगता हूँ।

 

“मैं हर समय तुम सभी लोगों को याद करता रहता हूँ।”

 

मेरी कलम फिर रुक जाती है। हर समय तो हमारा दिमाग दुश्मन द्वारा फैलाए गए जाल पर रहता है। हमें तो ठीक से नींद भी नहीं आती है। दुश्मन के ज्यादातर आक्रमण रात को ही होते हैं। दिन में हम लोग अपने आपको बचाते हुए उनको ढूँढने के लिए इधर-उधर भटकते हैं। हम लोगों को अपने पत्नी, बच्चे और माँ-बाप को याद करने के लिए समय ही नहीं मिलता है। मैं आत्मग्लानि से भर जाता हूँ। मैं अपने परिवार से झूठ बोल रहा हूँ। पर मेरा दोष भी क्या है? यदि मुझे किसी ऐसी जगह पर भेज दिया जाए जहाँ मैं निश्चिंत होकर बैठ सकूँ तो सबसे पहले मुझे अपने परिवार की ही याद आएगी। मैं भावुक हो रहा हूँ। मैं क्या करूँ? मेरी नौकरी ही ऐसी है। मेरा जीवन ही ऐसी है। घरवालों को मेरी व्यथा समझनी होगी। मैं फिर से कलम उठा लेता हूँ।

 

“मुझे पता है........तुम लोग भी मुझे रात-दिन याद करते होगे।”

 

मैं हँसकर ऊपर की तरफ देखने लगता हूँ। वह सब चाहे जिस भी काम में व्यस्त हों, क्या मुझे कभी भूल पाते होंगे? कभी नहीं.....! एक क्षण के लिए भी मैं उनके दिमाग से नहीं हट पाता होऊँगा। सोते जागते उठते बैठते हर समय वह मुझे ही याद करते होंगे। मुझे उनका प्रेम ज्यादा वजनदार लगता है। मुझे सबके ऊपर दया आने लगती है। मैं खुद को ऋणी सा महसूस करने लगता हूँ। मैं उन सबको हँसते हुए कब देख पाऊँगा। उनका संघर्ष, मुझे अपने संघर्षों से कहीं ज्यादा बड़ा नजर आ रहा है।

 

“व्यस्तता की वजह से पत्र कुछ देर से लिख रहा हूँ।”

 

यदि सुधा ने मुझे पुकारा नहीं होता तो क्या आज भी मैं पत्र लिखने के लिए बैठता? वह परेशान होकर डर गई होगी, तभी इतने दुःखी मन से मुझे याद किया है। वह मुझे हर समय याद करती है और मेरे पास उसे याद करने के लिए वक्त नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं जानबूझकर घरवालों को भूलना चाहता हूँ? इन लोगों को याद करते ही एक अलग प्रकार की चिंता और तनाव मुझे घेरने लगते हैं। मैं खुद से दूर भागने की कोशिश करता हूँ। खुद को खुद के अंदर समेटना चाहता हूँ। सबसे छुप जाना चाहता हूँ। मुझे अपने ऊपर शंका होने लगी है। मैं घर की जिम्मेदारियों से दूर भाग रहा हूँ। जड़ होता जा रहा हूँ। क्रूरता मेरे अंदर घुसती जा रही है। मेरे शरीर से पसीना निकलने लगा है। मैं छत की तरफ देखता हूँ। पंखा अभी बंद ही है। मैं पत्र आगे लिखने की कोशिश करता हूँ।

 

“पिछला पत्र मिल गया होगा।”

 

मुझे अपने गाँव की पोस्ट ऑफिस का डाकिया दिखने लगा है। सफ़ेद शर्ट और पैंट पहने हुए बगल के गाँव के रामअवध चौबे। वही हमारे गाँव के डाकिया हैं। वह मेरा पत्र देने के लिए घर की घण्टी बजा रहे हैं। मुझे पता है कि पिछला पत्र मिल गया होगा और अब तक कई बार पढ़ा भी जा चुका होगा। पिछले पत्र को लिखे हुए करीब एक महीना से भी ज्यादा समय बीत चुका है। अपने देश की डाक व्यवस्था अभी इतनी गई गुजरी नहीं हुई है कि पत्र पहुँचने में महीना भर लग जाए। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सुधा ने पत्र पढ़कर ही मुझे पुकारा होगा।

 

दूर से किसी गाड़ी कि पी-पी की आवाज आ रही है। इस वीराने में बाहर से आई हर चीज के लिए एक अलग उत्साह होता है। शायद खाने-पीने का सामान आया होगा।

 

मैं कलम को उठाकर फिर लिखने लगता हूँ।   

 

“मैं अपने काम में लगा रहता हूँ। इंतजार कर रहा हूँ कि कब मेरी पोस्टिंग किसी ऐसी जगह में होगी, जहाँ मैं तुम सबको साथ रख सकूँगा।”

 

मेरी कलम फिर रुक जाती है। जब मेरी नौकरी नहीं लगी थी, हम सब साथ में रहते थे। बहुत अच्छा समय बीत रहा था पर उस समय मैं ज्यादा कुछ कमा नहीं पा रहा था। मेरी कमाई को लेकर सबको चिंता लगी रहती थी। बड़े मुश्किल से किसी तरह परिवार का खर्चा निकल पाता था। उस समय बच्चे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा नहीं था पर कुछ साल बाद तो यह खर्च आना ही था। पत्नी नौकरी ढूँढने के लिए प्रेरित करती रहती थी। घर का खर्च कितना है और आगे कितना बढ़ेगा, इसके बारे में वह  बीच-बीच में बताती रहती थी। उसे घर चलाना था, अतः चिंता स्वाभाविक थी। मैं नौकरी के लिए इधर-उधर चिट्ठी भेजता रहता। परीक्षाओं की तैयारी में भिड़ा रहता। 

 

जब मेरी नौकरी लगी तो ऐसे लगा जैसे खुशी का संसार हमारे घर के आँगन में आकर समा गया है।

 

जब तक मैं प्रशिक्षण पर था, सब कुछ ठीक-ठाक था। मैं पैसे बचाकर घर भेजता रहता था। समस्या पोस्टिंग के बाद चालू हुई। जंगल का नाम सुनकर सुधा रोती रही थी कई दिनों तक। मैंने उसे बहुत समझाया था। जंगल में पहले से ही बहुत लोग तैनात हैं। वह भी तो इंसान हैं, उनका भी परिवार है। पर सुधा के ऊपर किसी समझाइस का फर्क नहीं पड़ रहा था। मुझे सुधा का वही रोता हुआ चेहरा सामने दिख रहा है। मैं दूर से ही उसको ढाढ़स बंधाने लगता हूँ।

 

“माँ को कहना कि वह अपना ख़याल रखेगी। मेरी चिंता नहीं करेगी। मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”

 

मैं भावुक हो गया हूँ। मुझे रोना आ रहा है। यदि मुझे कहीं कुछ हो गया तो क्या होगा माँ का? मुझे अपने उन सभी साथियों की माँ का चेहरा सामने दिखने लगता है,जो शहीद हो चुके हैं। सबके चेहरे से खुशी गायब हो चुकी है। वे इसलिए जिंदा हैं क्योंकि वे मर नहीं सकती हैं। मैं डर गया हूँ, बेचैन हो गया हूँ। पसीना तेजी से बहने लगा है। मैं हाँफने लगा हूँ। मैंने फिर पंखे की तरफ देखा, बिजली अभी तक नहीं आई है।

 

मुझे बिजली वालों पर गुस्सा आ रहा है। चिड़चिड़ाहट उत्पन्न हो रही है। कम से कम हम लोगों को तो बिजली चौबीसों घंटे मिलनी चाहिए। मैंने उठकर कमरे की सारी खिड़कियों को खोल दिया।

 

कुर्सी में आकर बैठते ही मैं बचपन में पहुँच गया हूँ। माँ के साथ की अनगिनत यादें आँखों के सामने घूमने लगी हैं। माँ के हाथ द्वारा बनाए गए व्यंजनों की खुशबू मेरे नाक में घुस रही है। मैं उठकर अपनी संदूक से माँ के हाथों द्वारा बनाए गए गुड़ के लड्डू निकालता हूँ और उसे खाने लगता हूँ। माँ ने नौकरी ज्वाइन करने से मना किया था। वह नहीं चाहती थी कि मैं घर से बाहर रहूँ। कहती थी कि कुछ दुकान वगैरह खोल लूँ, थोड़ी बहुत खेती किसानी तो है ही, इसी से खर्चा निकल आएगा। भविष्य का ख़याल करके मैंने नौकरी ज्वाइन की थी।

 

मैं उँगलियों में फँसी कलम से पुनः लिखना चालू करता हूँ।

 

“गोलू की पढ़ाई कैसी चल रही है?... उसे तुम खूब पढ़ाना।”

 

यह लिखते ही पता नहीं क्यों मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे हैं। मैं तड़प सा गया हूँ। मैं गोलू को गोदी में उठाकर प्यार करना चाहता हूँ। कई महीने बीत गए उसे देखे हुए। मैं उसके साथ बहुत कम दिनों तक ही रहा हूँ। मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा हूँ कि वह पढ़-लिखकर किसी अच्छी जगह पर पहुँचे। उसे मेरी तरह संकटों का सामना नहीं करना पड़े। देश सेवा से बड़ी कोई सेवा नहीं है, पर हम लोग तो अपनों से ही लड़ रहे हैं। मेरे ही परिवार का एक भाई आज मेरा दुश्मन है। हम दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हैं। हम लड़ रहे हैं और दुश्मन हमें भड़काकर मजे ले रहे हैं। हमारे घर तबाह हो रहे हैं। हमारी समस्या घर की है। अपनों से दुश्मनी कैसी? इस समस्या को सुलझाया जा सकता है। दुनिया में हर समस्या का हल है। ईमानदार प्रयास निश्चित रूप से कोई न कोई हल सामने लाएगा। बातचीत करके एक दूसरे की बातों को सुनना चाहिए। मुझे नहीं लगता है कि कोई भी पक्ष समस्या का तत्काल हल चाहता है। दोनों पक्ष अपने-अपने व्यक्तिगत अहम और स्वार्थों के कारण आगे नहीं बढ़ पाते हैं। जनता पीछे छूट जाती है। निर्दोष मारे जा रहे हैं। आज के सभ्य समाज में निर्दोषों का मारा जाना कहाँ तक न्यायसंगत है। आखिर लड़ाई हो किसके लिए रही है?

 

अनगिनत बलिदानों के बाद हमें आजादी मिली थी। हम लोग सब कुछ बड़ा जल्दी भूल गए हैं। लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने हमें बहुत लूटा है... आज क्या हो रहा है? हम अपनों को लूट रहे हैं। मैं अंदर से क्रोधित हो रहा हूँ। मैं खुद को मजबूर महसूस कर रहा हूँ। गरीबी के कारण दीन हूँ। सिर को ऊपर करके मैं एक गहरी साँस लेता हूँ।

 

कमरे के बाहर किसी पेड़ पर बैठकर कोयल सुमधुर आवाज में बोल रही है। कोयल की आवाज हमेशा से मेरे अंदर शांति और प्रेम की भावना भरती रही है। पर आज यह आवाज मुझे सुकून नहीं दे रही है। मैं विचलित हो रहा हूँ।

कुछ देर तक मैं आँखें मूँदे बैठा रहता हूँ। 

“खेती किसानी कैसी है?”

 

मुझे अपने छोटे-छोटे दो खेत याद आ रहे हैं। यह खेत पिताजी ने खरीदे थे। रात-दिन मेहनत करके वह थोड़े से पैसे जोड़ते थे जिससे कि वह भू-मालिक कहलाए जा सकें। उनकी मंशा रही होगी कि उनके इकलौते पुत्र के पास थोड़ी बहुत जमीन हो जाए। आज पिता जीवित होते तो शायद मुझे यह नौकरी नहीं करने देते। वह देशभक्त थे पर इकलौते पुत्र को इस प्रकार के संकट में कभी नहीं डालते। वह जरूर मुझे घर में ही रहकर दो रोटी कमाने के लिए कहते। मुझे पिता के साथ खेतों के लगाए गए चक्कर याद आने लगे हैं। खेती बहुत कम होती है पर अपने खेत से उपजा थोड़ा बहुत अन्न भी एक अलग स्वाद देता है। अपनी जमीन के साथ लोगों की जुड़ी भावनाओं को मैं गहराई तक महसूस कर रहा हूँ।  

 

मैं कलम उठाकर आगे लिखने के लिए सोचने लगता हूँ।

“मैंने पैसे मनीआर्डर से भेज दिया है।”

 

घर के प्रति बस इतनी ही जिम्मेदारी निभा पा रहा हूँ। जब भी घर के लिए थोड़े बहुत पैसे भेजता हूँ, बहुत खुशी होती है। यही एक काम है जो असीम संतुष्टि प्रदान करता है। संतुष्टि तो तब भी मिलती है जब दुश्मन को मारता हूँ, मगर यह काम खुशी नहीं देता है। जीत  का उत्साहहीन अहसास जरूर होता है। अहम की तुष्टि हो जाती है।

 

एक प्रकार की पशुता सवार रहती है दिमाग में। वह हमको मारते हैं और हम उनको मारते हैं। बच्चों के बंदूक वाले  किसी खेल की तरह। पता नहीं कब तक चलता रहेगा यह खेल। यह जीवन इतना सरल नहीं है जितना कि ऊपर से व्यवहार में झलकता है। पैसे की जीवन में बड़ी अहमियत होती है। लोग बातें जरूर अच्छी-अच्छी करते हैं पर मदद के समय कोई आगे नहीं आता है। मेरे कई शहीद दोस्तों के परिवार आज रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। परिवार से दूर रहकर आज मैं कष्टों का सामना कर रहा हूँ तो सिर्फ घर की जरूरत पूरी करने के लिए।

 

“गाँव घर का क्या हालचाल है? सब लोगों को मेरा प्रणाम और कहना कि मैं सबको याद कर रहा था।”

 

मैं अपने गाँव पहुँच गया हूँ। कितना अच्छा लगता है अपनों के बीच पहुँचकर। जीवन में बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनका आशीर्वाद हमें लगातार मिलता है जबकि उन्हें बदले में किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं होती है। यह मानवता का लगाव है। इसके अपने स्वार्थ होते हैं जो मानवता के मूल्यों से जुड़े होते हैं। हम अपने जीवन दर्शन को जिस किसी के भी द्वारा पूरा होते देखते हैं, उसे मन से आशीर्वाद देते हैं। हो सकता है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी अच्छा है, वह किसी न किसी का आशीर्वाद हो। मेरे गाँव के सभी लोग अच्छे हैं। सब लोग चाहते हैं कि सरकार और बुद्धिजीवी लोग मिलकर इस समस्या का कुछ न कुछ हल ढूँढ लें। खूनी खेल को कोई नहीं पसंद करता है। मुझे बसेसर काका, मिर्रू काकू, बंशी दद्दा, देवनाथ काकू सबकी याद आ रही है। पता नहीं, मैं सबसे कब मिल पाऊँगा? मिल भी पाऊँगा कि नहीं? मैं अपने माथे को हाथों का सहारा देकर टेबल पर झुक जाता हूँ।

 

अभी-अभी बिजली आ गई है। पंखा चालू हो गया है।

 

मैं कलम उठा लेता हूँ। एक गहरी साँस लेकर फिर लिखने लगता हूँ।

 

“कोई नाते-रिश्तेदार घर आए थे क्या?”

 

मेरी कलम फिर रुक जाती है। मैं सोचने लगता हूँ। मेरी दृष्टि खिड़की के बाहर चली जाती है। हमारे जीवन में नाते-रिश्तेदारों का बड़ा महत्व होता है। यह वह लोग हैं जो हमारे दुःख-सुख में साथ होते हैं और जिनके दुःख-सुख में हम साथ होते हैं। दरअसल सारे रिश्ते-नाते हमारे जीवन को पूर्ण बनाने में बहुत अहम होते हैं। मैंने अपनी काफी पढ़ाई मौसी के घर रहकर पूरी की है। जितनी देखभाल मेरी वहाँ होती थी, खुद के घर में उतनी नहीं हो पाती थी। मैं अपने सारे रिश्तेदारों के प्रति खुद को ऋणी सा महसूस कर रहा हूँ। मैं अपने आप से पूछता हूँ कि मैं भी किसी के लिए कभी कुछ कर पाऊँगा कि नहीं?

 

पंखा फिर बंद हो गया है। लगता है बिजली वाले भी समझते हैं कि जंगल में भरपूर प्राकृतिक हवा मौजूद है। मेरा ध्यान बँट जाता है और मैं अपनी कलम को पकड़ने लगता हूँ।

 

“मैं जब आऊँगा तो सब के लिए कपड़े लाऊँगा।”

 

पता नहीं क्यों एक लाइन से ज्यादा लगातार लिख ही नहीं पाता हूँ। मैं फिर से घर पहुँच गया हूँ। क्या वास्तव में घर के किसी सदस्य को कपड़ों का इंतजार रहता होगा? वह सब लोग तो बस इसी इंतजार में रहते होंगे कि कब मैं उनके सामने मुस्कराता हुआ खड़ा होऊँगा। मुझे याद नहीं आ रहा है कि सुधा ने मुझसे कभी भी किसी चीज की  फ़रमाइश की हो। जो खरीद दिया, उसी को पहन लिया। गोलू को नए कपड़ों से लगाव बस एक दिन के लिए होता है। जब मैं घर से निकलता हूँ तो वह बहुत उदास हो जाता है। कई दिन तक याद करता रहता है। माँ को तो भौतिक चीजों से कोई लगाव ही नहीं है। यदि कभी कुछ खरीदकर दिया भी है तो वह उसमें छुपी भावनाओं को ढूंढती है। बच्चे और माँ की याद ने मुझे फिर से भावुक कर दिया है।

 

“तुम लोग भगवान से प्रार्थना करना कि इस समस्या का जल्द से जल्द कोई हल निकल आए। मैं भी इसके लिए रोज प्रार्थना करता हूँ।”

 

मैं कमरे में रखी भगवान की फोटो को देखने लगता हूँ। सुधा से ज्यादा कौन इस बात को समझ पाएगा? वह तो रोज ही प्रार्थना करती होगी। माँ तो दिन भर भगवान की फोटो के सामने खड़े होकर आँख मूँदे रहती है। समाज के अधिकतर संवेदनशील लोग इस समस्या के हल के लिए भगवान से प्रार्थना करते होंगे।

 

सिर्फ कुछ लोगों कि महत्वाकांक्षा और स्वार्थ पूरी मानव जाति के लिए ख़तरा बन जाता है। हमारे पास दुनिया का सबसे बढ़िया लोकतंत्र है। यदि हमारे उद्योगपति, जन-प्रतिनिधि और अफसर अपने कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह ईमानदार हों तो क्या इस तरह की कोई समस्या कभी खड़ी हो सकती है? इस धरती की सम्पदा पर हर इंसान का हक है। हमारे अधिकतर सम्मानित जन-प्रतिनिधि सिर्फ अपने व्यक्तिगत फायदे और कुर्सी की लड़ाई में ही व्यस्त रहते हैं। अफसर को अच्छी पोस्टिंग चाहिए और उद्योगपतियों को मुनाफा। आजादी के समय के नेता, आज के नेताओं से बिल्कुल विपरीत होते थे। पिछले तीस चालीस सालों में कुर्सी और धन का लोभ कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है।

 

इसी तरह लोकतंत्र को न मानने वाले लोग भी क्या जनता के हितों के प्रति पूरी तरह वफ़ादार होंगे? यदि इन्हें जनता का हित ही चाहना है तो वह हमारे लोकतंत्र को क्यों नहीं मानते हैं? वह भी तो इसी देश के नागरिक हैं। वह भी आखिर जनता के हितों के लिए ही लड़ रहे हैं। कितनी कुर्बानियों के बाद यह लोकतंत्र मिला है। लगता है इस बात को हम सब बड़ी जल्दी भूल गए हैं। जिस बर्बरता से वह पुलिस और अन्य लोगों को मारते हैं, वह कहाँ की मानवता है। यह तो पशुता है। कभी-कभी लगता है कि इस सारी समस्या की जड़ बढ़ती जनसंख्या और कुछ लोगों में बढ़ता लोभ है। समाज को इन्हीं बिन्दुओं पर ध्यान केंद्रित करके इनको नियंत्रित करने का काम करना चाहिए। प्राकृतिक संसाधनों का सही उपयोग और वितरण होना चाहिए।

 

बढ़ती बेरोजगारी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या है। जब काम नहीं रहेगा तो युवा लोग इधर-उधर भटकेंगे ही। इस युवा आबादी का रचनात्मक उपयोग करना चाहिए। आज कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हमारी आबादी का सकारात्मक उपयोग किया जा सकता है। सबसे प्रमुख है, मैनुफेक्चुरिंग सेक्टर, इनफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट सेक्टर इत्यादि।

 

मेरे दरवाजे के सामने से कुछ कुत्ते भागते हुए दिखाई दे रहे हैं। लगता है वह किसी सुरक्षित जगह को ढूँढ रहे हैं। मेरा ध्यान उचट जाता है।       

 

कुछ दूरी पर गोलियों की आवाज सुनाई दे रही है। मैं उठकर खिड़की से बाहर देखता हूँ। दुश्मन ने हम लोगों को चारों तरफ से घेर लिया है। मैं कलम और पत्र को वहीं छोड़कर अपनी बंदूक उठा लेता हूँ। मेरे कुछ साथी पहले से ही ऐसी घटनाओं की आशंका से पोजीशन लिए खड़े रहते हैं। दोनों तरफ से गोलीबारी चालू हो गई है। लगता है वह लोग संख्या में हमसे कई गुना ज्यादा है। कई बार ऐसी परिस्थिति में भी हमने उनको खदेड़ा है। मैंने भागकर अपनी पोजिशन ले ली। मैं बंदूक से लगातार गोलियाँ चला रहा हूँ। मेरा निशाना बिल्कुल ठीक लग रहा है। मैंने पाँच छह को टपका दिया है। मेरे साथी भी उनको टपका रहे हैं। हम जरूर जीतेंगे। आज फिर से उनकी हार होगी। मैं बहुत खुश हो रहा हूँ। गोली चला रहा हूँ और जीत का अनुमान करके खुश हो रहा हूँ।

 

अचानक मेरी बंदूक से गोली निकलना बंद हो गई है। लगता है गोलियाँ खतम हो गई है। मैं गोली लेने के लिए कमरे की तरफ भागता हूँ।

 

लगता है मैं अपने कमरे तक पहुँच नहीं पाऊँगा। मेरे ऊपर कई लोग एक साथ गोली चला रहे हैं। मैं गिर रहा हूँ। मैंने अपने कर्तव्यों का सही तरीके से निर्वहन किया है। अपनी माँ को याद करते हुए मैं धरती माँ की गोंद में गिर रहा हूँ। मैं अपने होश खो रहा हूँ।

 

“उठिए !....सुन रहे हैं...यह सोने का समय नहीं है।”

 

सुधा मुझे पुकार रही है। वह मुझे रोकना चाहती है। मैं उसकी आवाज स्पष्ट सुन रहा हूँ पर मेरी चेतना एक बार पूरी तरह जाग्रत होकर सदा के लिए परम चेतना में समाहित होने जा रही है।

 

घर में सुधा दहाड़ मार-मारकर रोने लगती है।

 

पत्र अधूरा ही रह जाता है..........................!           

 

                   

 

                                                      

 

           

 

 

 

 


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