सतीश खनगवाल

Inspirational

4.4  

सतीश खनगवाल

Inspirational

नए दोस्त

नए दोस्त

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छह महीने से मोहन का कहीं अता-पता नहीं था। उसकी पत्नी सीमा अपनी तरफ से पूरी भाग-दौड़ कर चुकी थी। पुलिस ने उसकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की। कभी समझा-बुझा कर तो कभी डरा-धमका कर उसे भगा दिया जाता। जब उसे विश्वास हो गया कि पुलिस और कानून, गरीबों के लिए नहीं होते तो अपनी नियति मानकर चुप हो गई। छह महीने तो जैसे तैसे निकल गए, मगर अब क्या होगा? इतने बड़े शहर में वह अपने चार बच्चों के साथ कैसे दिन काटेगी? वह उस दिन को कोसने लगी, जब मोहन गॉंव छोड़कर शहर आया था और उसने भी इस फैसले में मोहन का साथ दिया था। अब रोेने-धोने से क्या फायदा? उसने प्रण कर लिया था कि वह दो-तीन दिन में शहर छोड़कर अपने गॉंव चली जाएगी। सबसे बड़ी बेटी जो पंद्रह वसंत देख चुकी थी, उसकी बगल में बैठी उसे ढांढस बंधा रही थी। बाकि दोनों छोटी बहनें और भाई बेसुध सोए पड़े थे। 


‘‘रात बहुत हो गई है, जा तू भी सो जा।’’ सीमा ने बड़ी बेटी से कहा।

   

‘‘और तू?’’ 

   

 ‘‘मेरी नींद तो तेरे बाप के साथ ही चली गई।’’ एक बार फिर सीमा की ऑंखों की कोर नम होने लगी, ‘‘पता नहीं आसमान खा गया या जमीन निगल गई।’’ फिर वहीं बातें उसके मुॅंह से निकलने लगी जिन्हें बड़ी बेटी पिछले छह महीने से दिन-रात सुनती आ रही थी। उसने अपनी ऑंखोें से बहते पानी को रोका। वह जानती थी कि उसके ऑंसू मॉं को और दुखी कर देंगे। वह उठी और चुपचाप जाकर सो गई। पता नहीं किस क्षण उसकी ऑंख लग गई। सीमा अभी भी दीवार से लग कर बैठी थी। उसकी ऑंखें भी भारी होने लगी थी।


 ‘‘ठक-ठक’’ दरवाजा बजा। सीमा सतर्क हो उठी। उसने हिम्मत कर पुकारा - ‘‘कौन?’’

   

 ‘‘मैं हूँ ।’’ स्वर को पहचान कर वह किसी उन्मादिनी की भांति उठी और झट से दरवाजा खोल दिया। लेकिन ये क्या, बाहर तो कंधे पर थैला लटकाए कोई स्त्री खड़ी थी। उसने दायें-बायें, सामने सब तरफ देखा, मगर उस स्त्री के अतिरिक्त उसे कोई और दिखाई नहीं दिया। 

   

 ‘‘इधर-उधर क्या देख रही है? मैं तेरे सामने खड़ा हूँ।’’ स्त्री वेश में कोई और नहीं मोहन ही था। 

   

 ‘‘त...त...तू? ये तूने कैसा रूप धर रखा है ? इतने दिन कहॉं था तू? मैंने तुझे कहॉं-कहॉं नहीं ढूंढा?’’ जिस मोहन की आस लगभग वह छोड़ चुकी थी। वह उसके सामने था। वह उससे जा लिपटी। 

   

‘‘सब कुछ यही पूछेगी या मुझे अंदर भी आने देगी?’’ मोहन को इस रूप में देखकर सीमा को अपनी ऑंखोें पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। किसी अनिष्ट की आशंका से वह सिहर उठी। तुरंत ही उसने मोहन को अंदर खींच लिया और दरवाजा बंद कर दिया। अंदर आते ही सीमा फिर उससे लिपट गई। बहुत देर तक दोनो पति-पत्नी ऐसे ही लिपटे रहे और ऑंखों से ऑंसू बहते रहे। 

   

 ‘‘मैं अभी बच्चों को...।’’ सीमा चहकते हुए बच्चों की ओर बढ़ी। मोहन ने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया।

   

 ‘‘नहीं बच्चों को मत जगाओं, उन्हें सोने दो। वैसे भी मुझे इस रूप में देखकर या तो वे डर जायेंगे या उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। वे तरह-तरह के सवाल पूछेंगे और अभी मैं उनका जवाब नहीं दे पाऊंगा।’’

   

 ‘‘बता ना कहॉं था तू छह महीने? क्या कर रहा था? कुछ तो बता।’’ सीमा सबकुछ जानने के लिए अधीर थी। 

   

 ‘‘सबकुछ बताऊंगा। पहले मुझे कपड़े तो दे।’’ सीमा ने मोहन को लुंगी और बनियान दे दी। मोहन ने उन जनाना कपड़ों से राहत पाई। उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे वह किसी कारागार से मुक्त हुआ हो। उसने पहली बार अपने सोए हुए बच्चों को निहारा। पता नहीं क्यों उसकी पलकें भीग उठी। कमरे में एक तरफ बच्चें सो रहे थे। सीमा ने दूसरी ओर दरी बिछा ली थी। छह महीने बाद आज कमरे में इस ओर दरी बिछी थी। दोनों पति-पत्नी दरी पर आ बैठे। सीमा कुछ बोलती उससे पहले ही मोहन ने अपना थैला उसके हाथों में दे दिया। सीमा को थैले में विशेष रूचि नहीं थी। उसने थैला एक तरफ रख दिया। 


 ‘‘अरे देख तो क्या है इसमें?’’ सीमा ने थैला उठाया। ऊपर कुछ फल और मिठाई थे। अंदर एक छोटा बैग और एक छोटा बक्सा था। बैग रूपयों से भरा था। बक्सें में कुछ गहने थे। सीमा ने इतने रूपये और गहने अपने जीवन में पहली बार देखे थे। उसका चेहरा आश्चर्य से चमक उठा। किंतु यह चमक तुरंत ही गायब हो गई। उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से मोहन की ओर देखा। 


‘‘तू कुछ गलत समझे इससे पहले मैं तुझे बता देता हूँ। ये मेरे नए दोस्तों की ओर से तुम सबके लिए भेंट है।’’


‘‘ये तेरे कौनसे दोस्त है? सच-सच बता तू किसी गलत काम में तो नहीं पड़ गया हैे ना?’’ सीमा आंशकित थी। 


‘‘नहीं-नहीं सीमा मैं तेरे सिर की कसम खाकर कहता हूँ कि अब मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा।’’ मोहन ने सीमा के सिर पर हाथ रख दिया।


 ‘‘अब नहीं कर रहा... इसका क्या मतलब है? क्या पहले तू कोई गलत काम कर रहा था? मुझे तो डर लग रहा है। सब सच-सच बता मुझे। क्या करता है तू आजकल?’’


‘‘तू तो जानती ही है हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी मैं इतना नहीं कमा पाता था कि अपने बच्चों को भरपेट खिला सकता। उनके स्कूल, कॉपी-किताब की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे।’’ मोहन कुछ देर के लिए रूका, फिर उसने आगे कहना शुरू किया -


‘‘तुझे तो पता ही है उन दिनों मैं कितना परेशान रहता था।’’


‘‘हॉं, मुझे पता है, तू रात-रात भर नहीं सोता था। जैसे भी हो पैसे कमाने की सोचा करता था।’’


‘‘मुझे अपने बच्चों का भविष्य बनाना था। उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाना था। गॉंव वालों को दिखाना था कि मैंने शहर आकर कोई गलती नहीं की थी। बस पैसे कमाने के चक्कर में मैं गलत राह पर निकल गया।’’ मोहन कहे जा रहा था और सीमा चुपचाप सुने जा रही थी। कुछ देर की खामोशी को पुनः मोहन की आवाज़ ने तोड़ा -


‘‘मैं जिस फैक्टरी में काम करने जाता था। उसके पास के चौराहे पर एक हिजड़ा आने-जाने वाली गाड़ी-मोटरों से पैसे मांगा करता था। चाय की थड़ी पर कभी-कभी उससे मिलना होता था। धीरे-धीरे हम अच्छे दोस्त बन गए। उसका नाम चंदा था।’’ मोहन जैसे अतीत से कुछ ढूंढने लगा। हिजड़े का जिक्र आते ही सीमा बहुत घबरा गई। उसकी ऑंखों में कुछ देर पहले साड़ी पहने मोहन की तस्वीर घूम गई। अनायास ही उसकी नजरें मोहन की लुंगी पर चली गई। लुंगी इस तरह फैली थी कि कुछ भी निश्चित नहीं हो सका। वह भूल गई कि इस समय रात का तीसरा पहर चल रहा था और कमरे में दूसरी और बच्चे सो रहे है। वह अपने माथे पर हाथ मारकर चीखी -


‘‘हिजड़े से दोस्ती। हे भगवान! तुझे कोई और नहीं मिला दोस्ती के लिए। अब आगे तो बता, चुप क्यों हो गया?’’ उसकी चीख से मोहन का ध्यान भंग हुआ। उसने सीमा को धीरे बोलने का इशारा किया। उसने बच्चों पर निगाह डाली। वे बहुत गहरी नींद सो रहे थे। उसने आगे बताना शुरू किया। अपनी बातों में वह करीब आठ-नौ महीने पीछे चला गया था।


‘‘हाय, हाय क्या बात है मोहन? आज बहुत परेशान लग रहा है तू।’’ विशेष तरीके से ताली पीटते चंदा ने अपने शरीर को लचकाते हुए कहा और मोहन के सामने खाली पड़ी स्टूल पर बैठ गई।


‘‘हॉं, चंदा, तू ही बता क्या करूॅं? पूरे दिन मेहनत करता हूँ। कई बार ओवर टाइम भी करता हूँ। फिर भी अपने बच्चों को भरपेट नहीं खिला पाता। जब से गॉंव से लाया हूँ किसी को एक जोड़ी कपड़े तक नहीं दे पाया।’’ मोहन की ऑंखें हल्की लाल हो रही थी। उसने चाय के गिलास को अपने हाथों में भींच रखा था।


‘‘हाय, हाय! करमजले ये तो तेरी रोज की कहानी है। पर इतना परेशान तुझे कभी नहीं देखा। कुछ तो बात है।’’ चंदा ने मोहन के हाथ पर हाथ रख दिया। मोहन अपनी फैक्टरी के बाहर चौराहे पर इस थड़ी पर चाय पीने आता था। इसी चौराहे पर चंदा आने जाने वाले वाहनों से पैसे मांगती थी। मांगती थी या वसूलती थी कहना थोड़ा मुश्किल है। चंदा किन्नर थी। किसी रोज साड़ी में तो किसी रोज सलवार-सूट में वह अपने लटके-झटके दिखाती, वाहन मालिकों को रिझाती, विशेष ढंग से ताली पीटती और अपना हाथ आगे कर देती। कोई उसे झिड़क देता। कोई पांच-दस रूपये उसके हाथ में रख देता। चंदा बिल्कुल भी सुंदर नहीं थी। रंग सांवला, चेहरे पर दो चार चेचक के दाग। चेहरे पर दुनिया भर का फेस पाउडर, ऑंखों में काजल और होठों पर गहरी लाली। उसके बाल बहुत अधिक लम्बे नहीं थे और छातियों को छोड़कर जिस्म पूरी तरह मर्दाना था। वह सुबह दस बजते ही चौराहे पर प्रकट हो जाती और अंधेरा होते-होते गायब हो जाती। बीच-बीच में अपनी थकान मिटाने वह भी इस थड़ी पर चाय पीती थी। किन्नरों की दुआओं में बहुत असर होता है। ये मोहन ने सुन रखा था। इसलिए एक-दो बार उसने दुआओं के चक्कर में चंदा की चाय के पैसे दे दिए थे। इसलिए धीरे-धीरे चंदा और मोहन में दोस्ती होे गई। इससे पूर्व कभी भी चंदा ने मोहन को इस प्रकार नहीं छुआ था। इसलिए जब चंदा ने मोहन के हाथ पर हाथ रखा तो उसे बहुत अजीब लगा। लाख मित्रता सही पर उसके मन में एकाएक घिन्न की एक लहर दौड़ गई। उसने तुरंत अपना हाथ खींचा। 


‘‘हाय, हाय हरामजादे मेरे हाथ में क्या कांटे उग रहे है।’’ चंदा ने अपने हाथों को नचाते हुए कहा। इस प्रकार मोहन का हाथ खींचना चंदा को बुरा लगा था। मोहन चंदा के मनोभावों को समझ चुका था। वह उसके गुस्से का सामना नहीं करना चाहता था। इसलिए ना चाहते हुए भी उसने चंदा का हाथ पकड़ कर उसे रोक लिया। चंदा फिर बैठ गई। उसने मोहन के कंधे पर हाथ रखा। इस बार मोहन को अजीब नहीं लगा। इस बार उसे अपनेपन का अहसास हुआ और अपनापन पाते ही मोहन बह निकला। 


 ‘‘क्या बताऊॅं चंदा। मेरी बड़ी बेटी पंद्रह से ऊपर है। उसके पास ढंग के कपड़े भी नहीं है। कल जब वो गली में अपनी सहेलियों से बात कर रही थी, तो फटे कपड़ों से उसका शरीर झांक रहा था। थोड़ी दूरी पर खड़े तीन लड़कों की निगाह वहीं लगी थी। अपने आपकों इतना विवश मैंने कभी नहीं पाया।’’ कॉंच के गिलास पर मोहन के हाथ और सख्त हो गए थे। उसकी ऑंखें और अधिक लाल हो गई थी। थोड़ी देर तक ना मोहन कुछ बोला और ना चंदा। थोड़ी देर बाद चंदा बोली-


 ‘‘तू पैसे कमाना चाहता है?’’ उसके इस प्रश्न पर मोहन ने उसे अजीब नजरों से देखा। चंदा ने आगे कहा - ‘‘हाय, हाय अपनी राण्ड के कसम, देख! रोज के हजार-पांच सौे कमा लेगा। और मेहनत भी कुछ खास नहीं। बोल करमजले, करेगा मेरा बताया काम।’’ मोहन की ऑंखों में आशाओं के डोरे तैरने लगे। वो बोला - 


‘‘तू जो भी कहेगी, वो मैं करने को तैयार हूँ। बता क्या करना है?’’


‘‘अच्छी तरह सोच ले, मेरे राजा, मेहनत जरूर कम है लेकिन काम आसान नहीं है।’’ चंदा ने हाथ नचाते हुए कहा।


‘‘अरे! भई बता तो काम क्या है?’’ मैं हर वो काम करने के लिए तैयार हूँ, जिससे मुझे चार पैसे मिले। मेरे परिवार को एक अच्छा जीवन मिले।’’ मोहन चंदा के हाथ को कसकर पकड़ते हुए बोला। उसे लग रहा था कि चंदा ही उसे सब परेशानियों से उबार सकती है। थोड़ी देर शांति छाई रही। फिर चंदा की आवाज़ ने उसे भंग किया।


‘‘हाय, हाय मरजाऊं तेरी मर्दानगी पर। चल मेरे साथ। यहॉं बात नहीं हो सकती।’’ उसने मोहन का हाथ पकड़ा और फैक्टरी के पीछे की ओर सुनसान गली में ले गयी। मोहन उसके पीछे खींचा चला जा रहा था। गली आगे जाकर बंद हो गई थी। 


तभी बेटा नींद में बड़बड़ाया - ‘‘पा...नी..।’’ उसकी बड़बड़ाहट से मोहन अतीत से वर्तमान में आया। सीमा उठी और बेटे को पानी पिलाया। सीमा ने इस तरह बैठ कर बेटे को पानी पिलाया कि वह मोहन को देख ना पाये। मोहन भी दीवार के सहारे सट कर लेट गया था। सीमा बेटे को सुलाकर फिर मोहन के पास आकर बैठ गई। मोहन एक बार फिर अतीत में झांकने लगा। 


‘‘हाय, हाय अपनी मॉं के खसम एक बार और सोच लेे, काम आसान नहीं है।’’ इस बार चंदा का स्वर थोड़ा गंभीर था। 


‘‘मैंने सोच लिया है चंदा। तुम बस काम बताओ।’’ मोहन आत्मविश्वास से भरा हुआ था। वह हर प्रकार के कार्य के लिए तत्पर था। चंदा कुछ सोच रही थी और साथ ही मोहन को घूर रही थी। मोहन के लिए एक-एक क्षण भारी हो रहा था। उसे जल्द से जल्द पैसे कमाने और धनवान होने का उपाय जानना था। 

‘‘जल्दी बता ना चंदा।’’


‘‘तुम्हें किन्नर बनना पड़ेगा।’’ चंदा अभी भी उसे घूर रही थी। 


‘‘क्...क्...क्या? तेरा दिमाग तो ठीक है ना। ये क्या कह रही है तू?’’ उसकी बात सुनकर मोहन का दिमाग बुरी तरह चकरा गया।


‘अगर तुम्हें पैसा कमाना है तो तुम्हें किन्नर बनना पड़ेगा। मेरे पास तो एक ये ही तरीका है।’’ चंदा बोली। अब वो पूरी तरह गंभीर थी।


‘‘तेरा दिमाग खराब हो गया है चंदा। तू जानती भी है तू कह क्या रही है? मैं और किन्नर ?’’ अनायास ही मोहन के हाथ अपने टांगों के बीच पहुॅंच गए।


‘‘मैं जा रहा हूँ यहॉं से, मैं तो सोच रहा था तू मुझे पैसे कमाने के लिए कोई काम-धंधा बतायेगी। पर तू तो मुझे हिजड़ा बनाना चाहती है। तू अच्छी तरह जानती है मेरी पत्नी है, चार बच्चे है, फिर भी तू इतनी घटिया बात कैसे कर सकती है?’’ और मोहन वहॉं से जाने लगता है। तभी चंदा आगे बढ़ती है और उसे रोक लेती है। मोहन उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखता है। चंदा अपने हाथ अपने बालों की ओर ले जाती है। एक झटके से विग उतारती है और मोहन के हाथों में थमा देती है। मोहन भौंचक्का होकर कभी चंदा को देखता है और कभी अपने हाथों में आई विग को। 


 ‘‘यही मेरी असलियत है मोहन भाई। मैं किन्नर नहीं हूँ। मेरा नाम चांद मोहम्मद है। मेरी कहानी भी तुमसे अधिक जुदा नहीं। मैं भी गरीबी के थपेड़े खाकर मजबूरी में ये काम करता हूँ।’’ चंदा यानि चांद मोहम्मद पूरे मर्दाना स्वर में अपनी कहानी सुना रहा था। अब ना उसके शरीर में औरतों जैसी लचक थी और ना ही किन्नरों वाले हाव-भाव और गाली-गलौज था। और मोहन मुॅंह फाड़े उसे देखे जा रहा था। उसे अपनी ऑंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। इधर चांद मोहम्मद कहे जा रहा था -


‘‘मैं पिछले तीन-चार साल से ये काम कर रहा हूँ। अब मेरा परिवार सुख से दो वक्त की रोटी खा पा रहा है। इन दो सालों में मैंने कुछ पैसे भी जोड़ लिए है। एक-दो महीने में दुकान खोल लूंगा और इस काम से हमेशा के लिए छुटकारा।’’ चांद मोहम्मद ने मोहन के हाथों से विग ली और फिर से पहन ली। अब मोहन को उसकी बातों में कुछ रूचि उत्पन्न हो गई थी।


‘‘तुम बिल्कुल चिंता मत करो। मैं तुम्हें सबकुछ सिखा दूंगा। दो-चार सालों में तुम्हारा परिवार ना केवल ढंग से सैटल हो जाएगा। बल्कि मेरी तरह कुछ रूपये-पैसे जोड़कर तुम भी कोई छोट-मोटा काम धंधा शुरू कर लेना और यह काम छोड़ देना।’’ चांद मोहम्मद ने मोहन के कंधों पर अपने हाथ रखते हुए कहा। मोहन बहुत गौर से उसकी बातें सुन रहा था।


तभी दरवाजे के बाहर कुत्तों के लड़ने का शोर उभरा। मोहन एक बार फिर अतीत से वर्तमान में आ गया। उसकी बगल में बैठी सीमा चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी।


‘‘तू चुप क्यों हो गया? आगे बता ना।’’ रात खत्म होने से पहले सीमा मोहन के गायब होने का रहस्य जान लेना चाहती थी। 


‘‘बता तो रहा हूँ। थोड़ा सब्र तो रख।’’ मोहन फिर अपनी कहानी की कड़ियॉं जोड़ने लगा। 


‘‘चांद भाई, बड़ा ही अजीब काम बता रहे हो आप। समझ नहीं आ रहा क्या कहूँ? आप मुझे एक-दो दिन का समय दो सोचने के लिए।’’ मोहन बड़ा असमंजस की स्थिति में था। वह यह काम नहीं करना चाहता था। लेकिन चॉंद मोहम्मद ने जो ख्वाब उसे दिखाया, वह उसे अच्छा लगा था। दो दिन वह बहुत परेशान रहा। एक-एक चीज को बारीकी से सोचता रहा। मोहन अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था। उसे तो चांद मोहम्मद द्वारा कहे गये अंतिम शब्द समझ में आ रहे थे - ‘‘दो-चार सालों में रूपये-पैसे जोड़कर अपना काम-धंधा शुरू कर लेना।’’ दो दिन बाद वह चांद मोहम्मद से मिला।


‘और सब तो ठीक है चांद भाई। बस ये बताओं की इस काम में किसी तरह का खतरा तो नहीं।’’ मोहन हर तरफ से निश्चित हो जाना चाहता था।


‘बस एक बात का ध्यान रखना है कि असली किन्नरों से बचना है। उनकी नजर तुम्हारें ऊपर ना पड़े। अगर तुम्हें कोई किन्नर दिखाई दे तो वहॉं से निकल लेना। बाकि इसमें कोई खतरा नहीं।’’ और कुछ दिनों बाद उस चौराहे पर चंदा के साथ मोहिनी भी आ गई। अब मोहन रोज अपने घर हजार-पांच सौ रूपये ले जाने लगा। सीमा बहुत खुश रहने लगी। मोहन ने उसे बताया कि अब वो फैक्टरी का काम छोड़कर दिहाड़ी मजदूरी करने लग गया है और रोज इतने ही पैसे कमाएगा। धीरे-धीरे उसका परिवार भी खुशहाल दिखने लगा। दो-तीन महीने बाद चंदा चौराहे पर दिखाई देना बंद हो गई और मोहिनी का राज चौराहे पर हो गया। सब कुछ सही चल रहा था। अब तक मोहन मोहिनी के रूप में पूरी तरह जम चुका था। किंतु एक दिन एक वैन चौराहे पर आकर रूकी। मोहन उसकी ओर लपका। वैन के दरवाजे खुले और कुछ किन्नर उसमें से निकले। उन्होंने मोहन से कुछ बातचीत की। हालांकि चांद मोहम्मद ने मोहन को सबकुछ सिखाया था। असली किन्नरों से सामना होने पर बचाव के उपाय भी बताए थे। लेकिन असली किन्नरों को देखकर वह घबरा गया। किन्नर समझ गए ये नकली है। 


 ‘‘हाय, हाय। अपनी मॉं के कसम, साले, हरामजादे हमारा नाम बदनाम करता है।’’ और उन्होंने वहीं मोहन को लात-घूंसों पर रख लिया।


‘‘बहुत शौक है ना तूझे हिजड़ा बनने का, चल हरामजादे अब हम तुझे हिजड़ा ही बनायेंगे।’’ उन्होेंने उसे अपनी वैन में डाला और अपनी ‘हवेली’ पर ले आए। उन्होंने उसे लाकर अपनी सरदार जिसे सब ‘गुरू’ कहते थे के सामने डाल दिया। मोहन बुरी तरह डरा हुआ था। वो हाथ जोड़कर सबसे माफी मांग रहा था। पुनः ऐसा काम ना करने की दुहाई दे रहा था। लेकिन किसी पर असर नहीं हो रहा था। वह लहुलुहान हो चुका था। परंतु किन्नरों को कोई दया नहीं आई। वे अब भी रह-रह कर उसकी धुनाई कर रहे थे। अंत में ‘गुरू’ ने उसे किन्नर बनाने और अपनी टोली में शामिल करने का आदेश दे दिया। मार खाकर अधमरे हो चुके मोहन ने जब ये सुना तो उसके होश उड़ गए। 


उसे एक अंधेरे कमरे में पटक दिया गया। शाम को उसे कमरे से निकाला गया और जबरदस्ती नहला-धुला कर एक बड़े से कमरे में ले जाया गया जो पहले से ही बहुत से किन्नरों से भरा हुआ था। एक बड़ी सी कुर्सी खाली पड़ी थी। थोड़ी देर बाद गुरू जी आई और उस कुर्सी पर बैठ गई। मोहन को किन्नर बनाने का अनुष्ठान प्रारंभ करने का आदेश दिया। अनुष्ठान शुरू हुआ। कुछ किन्नरों ने मिलकर मोहन को पकड़ लिया। एक किन्नर ने तेज धार चाकू उठा लिया था। कुछ किन्नरों ने ज़ख़्म पर थूकने के लिए अपने-अपने मुॅंह में पान दबा लिए थे। ज़ख़्म पर लगाने के लिए बबूल-कीकर की राख और नीम के तेल की शीशी तथा कुछ मरहम पट्टी भी वहॉं रखी हुई थी। 


अपनी कहानी सुनाते हुए मोहन एक बार फिर चुप हो गया। उसने सीमा से पानी मांगा। सीमा की नजरें मोहन की जांघों के बीच लगी थी। वह कुछ चीह्ने की कोशिश कर रही थी। परंतु लुंगी के कारण कुछ भी निश्चित नहीं हो सका। उसे सुनाई ही नहीं दिया कि मोहन ने उससे पानी मांगा है। मोहन ने उसे झकझोरा तब वह चेतन हुई। उसने पानी लाकर मोहन को दिया। मोहन ने दो गिलास गले के नीचे उतारे। सीमा अभी भी अनमनी सी थी। उसकी ऑंखों में किसी अनहोनी की आशंका घिर आई थी। उसकी नजरें एक बार फिर मोहन की लुंगी पर जम गई। सीमा के मनोभावों से परे मोहन ने आगे बताना शुरू किया।

 

बुचरा देवी’ की जय से कमरा रह-रह कर गूंज रहा था। किसी भी क्षण गुरू जी के इशारे पर मोहन किन्नर बनने वाला था। मोहन सोच-सोच कर ही कांप रहा था। उसने अपनी तरफ से आखिरी कोशिश की। अब तक वह यह समझ चुका था कि गुरू ही उसे बचा सकती थी। वह जोर से चिल्लाया -


‘गुरू जी मुझे माफ कर दो। मैं अपने बच्चों को भूखों मरते हुए नहीं देख पाया। मैं सच कहता हूँ मैं गरीबी से दुखी होकर ऐसा काम कर रहा था। आपकों मेरी पत्नी और चार बच्चों का वास्ता। मुझे छोड़ दीजिए।’’ पता नहीं कैसे उस शोरगुल में मोहन के शब्द गुरू जी के कानों से जा टकराए। गुरू जी ने इशारे से उसे छोड़ने के लिए कहा। 


 ‘‘कहो क्या कहना चाहते हो?’’ गुरू जी ने घूर कर मोहन को देखा। उनकी नज़रे देखकर मोहन अंदर तक कांप गया। फिर भी उसने हिम्मत कर अपनी सारी कहानी बता दी। गुरू जी कुछ सोच में पड़ गई। फिर बोली -


‘‘हम इसकी गलतियों की सजा इसकी पत्नी और बच्चों को नहीं दे सकते।’’ गुरू जी की आज्ञा से अनुष्ठान बंद कर दिया गया। 


‘‘हाय, हाय हरामजादे बड़ा भाग्यशाली है तू।’’ कुछ किन्नरों ने अभी भी एक-दो लातें उस पर चला ही दी। 


‘‘लेकिन इसे सजा जरूर मिलेगी। अब से लेकर छह महीने तक ये अपने परिवार से दूर हमारे पास रहेगा। ये छह महीने तक पूरी तरह किन्नरों का जीवन जिएगा। ये हमारी हवेली में नौकर बनकर रहेगा। हमारे साथ बधाई लेने जाएगा। अगर इस बीच इसने अपने परिवार से मिलने की कोशिश की या भागने की कोशिश की तो इसे किन्नर बना दिया जाएगा।’’ गुरू जी ने घोषणा की।


‘‘मुझे आपका आदेश मंजूर है गुरू जी। आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा।’’ मोहन ने गुरू जी के पैर पकड़ लिए। 


सीमा ने जब सुना तो उसने चैन की सॉंस ली। उसने कसकर मोहन को अपनी बाहों जकड़ लिया। 


 ‘‘चल अब सो जा। तड़का होने ही वाला है।’’ सीमा ने कहा। अब उसके स्वर में चिंता नहीं थी। अब वह निश्चित थी।


‘‘अरे आगे की कहानी तो सुन ले।’’ मोहन बोला।



 ‘‘तू मेरे पास सही-सलामत लौट आया, मेरे लिए यही काफी है। जो मुझे जानना था मैंने जान लिया। अब आगे मैं कुछ भी नहीं जानना चाहती। बुरा हो उन हिजड़ों का। क्या हाल कर दिया है तेरा।’’ 


 ‘‘नहीं सीमा उन्हें मत कोस, मेरे साथ जो कुछ हुआ वह मेरी गलती की सजा थी। तुझे शायद अंदाजा भी नहीं है कि मेरी गलती कितनी भयंकर थी। फिर भी उन्होंने मुझे छोड़ दिया। ये उनकी भलमनसाहत थी।’’ सीमा आश्चर्य के साथ मोहन को घूर रही थी। मोहन कहे जा रहा था -


‘‘वे भी इंसान है हमारी तरह। जैसे हमारी दुनिया है ना, वैसी ही एक दुनिया उनकी भी है। उनकी हंसी, खुशी, नाच-गाने के पीछे बहुत बड़ा दर्द है सीमा। अपनों से दूर होने का दर्द। अपनों से दूर होने का दुख क्या होता है, ये मैंने तुम लोगो से दूर रह कर जाना।’’ न जाने क्यों मोहन की ऑंखों के कोर गीले हो गए। उसने सीमा को कसकर भींच लिया और अनायास उसकी नजरें अपने बच्चों की ओर उठ गई। मोहन फिर बोला -


‘‘हमें लगता है कि वे अपनी दुनिया में मस्त है। लेकिन उन हिजड़ों के साथ छह महीने बिता कर मैंने जाना है कि उनका जीवन नरक के समान है। पूरी तरह आदमी या औरत ना होने की पीड़ा तू कभी नहीं समझ सकती सीमा। मैंने अपनी ऑंखोें से उनकी विवशता देखी है। उनका रोना देखा है। अपने मॉं-बाप, घर-परिवार के लिए उन्हें तड़पते देखा है।’’ कुछ क्षण वह रूका। उसकी ऑंखों में वह दृश्य घूम गए। जब चमेली, शिल्पा, श्रीदेवी, माधुरी और जूही, आदि ने उसके साथ अपने मन की बातें साझा की थी। उन्होंने मोहन को बताया था कि किस प्रकार उनके अपनों ने ही उनकों छोड़ दिया और रोते-बिलखते, समाज के ताने और अत्याचार सहते वो गुरू जी के पास इस हवेली तक पहुॅंची। इनमें से कई तो बलात्कार का भी शिकार हुई थी। सब कुछ उसने सीमा को बताया। 


‘‘उनका यही दर्द, यही तड़प उनकी दुआओं को असरदार बनाती है। उनकी दुआएँ लेने के लिए दुनिया अपनी झोली फैलाए रहती है। परंतु यही दुनिया उन्हें अपने साथ जीने का अधिकार नहीं देती। पता नहीं क्यों उनसे इतनी नफरत करता है, हमारा ये समाज?’’ 


‘‘ये तो होते ही नफरत के लायक है। पहले के जन्मों के पाप है जो इस जन्म में हिजड़े बने है। तू उनके साथ छह महीने बिता कर आया है ना। जादू कर दिया है उन्होेंने तेरे ऊपर।’’ सीमा अब आवेश में थी।


‘जो खुद अपने आप में जादू हो, वो किसी पर क्या जादू करेंगे? पर हॉं, इतना जरूर कहूॅंगा कि प्रकृति ने बहुत नाइंसाफी की है इनके साथ। मात्र एक अंग ना होने की कितनी भयंकर सजा मिली है उन्हें, ये मैंने देखा है। इन छह महीनों में मैंने उनके दुख-दर्द को समझा है। उनकी इंसानियत को देखा है। उनकी एकता, आपसी प्रेम और भाईचारे को देखा है। मैं तुम्हारें सामने सही-सलामत हूँ ये क्या कम बात है। सोचो यदि उनमें इंसानियत ना होती तो वो मेरे साथ क्या करते?’’ सीमा ध्यान से उसकी बात सुन रही थी। मोहन कुछ क्षण रूककर पुनः बोला -


 ‘‘मैं जब गुरू जी की सेवा करता था, तब मैं उन्हें तेरे बारें में, अपने बच्चों के बारे में बताता था। वे तुम सबकों वहीं से बहुत दुआएँ देती थी। आज जब मैं वहॉं से चलने लगा तो उन्होंने ये सब वस्त्राभूषण और पैसे दिए। उन्होंने मुझे कहा कि मैं अपने बच्चों को पढ़ाऊं-लिखाऊं और योग्य बनाऊं। तुम नहीं जानती सीमा गुरू जी कितनी महान है। मैं उन हिजडों के उपकार को कभी नहीं भूल सकता सीमा। सच बताऊं हिजड़े वो नहीं है। हिजड़ा तो हमारा समाज है।’’ रात्रि का अंतिम पहर बीत रहा था। मोहन और सीमा की ऑंखें भारी होने लगी थी। जब सुबह मोहन की ऑंखें खुली तो सीमा बच्चों को तैयार कर रही थी। सभी बच्चें अपने पिता को देखकर बहुत खुश थे। मोहन ने चारों बच्चों को एकसाथ अपनी बाहों में भर लिया। उसने सीमा से पूछा -


‘‘तुम सब तैयार होकर कहॉं जा रहे हो?’’


 ‘‘हम सब नहीं तू भी।’’


 ‘‘लेकिन कहॉं?’’


 ‘‘हवेली। गुरू जी और तेरे नए दोस्तों से मिलने। उनका आशीर्वाद और दुआएँ लेने।’’ सीमा ने बताया।

  



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