Sujata Arora Dua

Inspirational

5.0  

Sujata Arora Dua

Inspirational

धुरी

धुरी

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आकाश का फ़ोन नहीं आना था ...नहीं आया... और ऐसा नहीं था कि यह सब नीरा के लिऐ अनपेक्षित था पर फिर भी मन में एक आस थी  कि  शायद अब तो वह  उसे मिस करेगा पर नहीं…. फिर एक बार नीरा ने ख़ुद  को आकाश के सन्दर्भ में  ग़लत साबित कर दिया था . रिश्तों और भावनाओं की उठा - पठक और चीर- फाड़ किसी सामान्य व्यक्ति को आहत  कर सकती है लेकिन आकाश को तो यह छूती भी नहीं  थी ...छूती भी हों शायद ...पर न कभी  उसकी बातों से लगा… न ही कभी उसनें अपने क्रियाकलापों से जताया l 

शाम होते न होते नीरा को ख़ुद ही अपने उठाये कदम पर पछतावा होने लगा मन ही मन वह  ख़ुद  को लताड़ने लगी ...'क्या हुआ अगर उसनें तुझ पर हाथ उठाया था तो इसमें इतना बखेड़ा खड़ा करना क्या ज़रूरी  था ? तुझे तो पता ही है उसका स्वभाव…… पल में तोला पल में माशा ...तो फिर क्यूँ चली आई उसे बिना कुछ कहे ..चल उसके बारे में  नहीं सोचा न सही ..अपने बारे में तो सोचा होता .....कितने वर्ष हो गऐ  तुम्हारे विवाह को ....थोड़ा बहुत तो प्यार होगा ही न उससे ...प्यार न सही आदत तो है तुम्हें उसकी ... फिर ...???.अब ..अब क्या करोगी ...लो अब ख़ुश  हो लो ..यहाँ अँधेरे कमरे में तो तुमनें अपना प्रतीक्षित पा ही लिया होगा ..?' अन्तरातमा की  लताड़ इतनी  तकलीफ देह थी..नीरा कि आँखों से आँसू बहने लगे ..सुबह से यूँ भी रोते रोते सिर  माथा आँखें  सब दुःख ही  रहे थे ..पर अब तो लगने लगा कि जैसे दिमाग 

 फट ही जाऐगा  .स्त्रियों के पास आँसुओं  का अमिट कोष होता है शायद .......!!!!

रात में समुंदर की  लहरें अपने पूरे उफ़ान पर थीं ...रह रह कर किनारे से आकर लिपट रही थीं ..नीरा का मन हो रहा कि वह  लौट जाऐ  आकाश के पास .." आकाश तो पुरुष है ..उसका अहं आड़े आ गया होगा ....वरना वह  भी कहाँ रह सकता है उ.. स......के ...... बिना ..सोचते सोचेते वह  अपने ही मन के हाथों कमज़ोर होने लगी थी कि तभी उसके मन की  स्त्री ने मोर्चा  सम्हाल लिया  ...पूरी शक्ति के साथ प्रतिकार  करते हुऐ   वह  बोली .. ..' देख अब तू फिर मेरा पति…. मेरा पति कह कर  उसकी पक्षधर बनी तो यह भूल जाना कि फिर कभी ज़िंदगी  में सिर उठा कर जी भी पायेगी .एक बार पुरुष के अहं को थपथपा दिया तो वह  बार बार फेन उठाएगा ..फिर रोती रहना उम्र   भर और ढूँढती रहना अपनी जगह उसकी ज़िंदगी  में ..कोई कमरा तो क्या एक कोना भी ऐसा नहीं बचेगा जिसमें तू समा सके ... मन का अन्तर्द्वंद्व उसे बुरी तरह तोड़े जा रहा था .. हमेशा से निर्णयों कि दृढ़ नीरा आज आकाश के मामले में  कितनी कातर हो रही थी ...उसकी दयनीयता निश्चय ही तक़लीफ देह थी . ………..रात भर रोते रोते पता नहीं कब आँख लग गई  सुबह उठी तो सिर बहुत भारी था ...ये तो कॉलेज कि तरफ से शोध कार्य करने के लिऐ  प्रिंसिपल साहिबा ने हॉस्टल में कमरा उपलब्ध करवा रखा था वरना ऐसे में वह कहाँ जाती क्या करती पता नहीं ...!

सुबह उठी तो लगा मन भी कुछ धुला -धुला सा है...क्या करना है कैसे करना है इसकी रूप रेखा तय करनी ही है यह तो अचेतन अवस्था में ही मन ने तय कर लिया था ..और आकाश के पास वापस नहीं जाना है ...तब तक तो बिलकुल नहीं जब तक उसे अपनी गलतियों का एहसास न हो जाऐ  .....यह फैसला तो रात ही उसके मन ने सुना दिया था ...और बहुत हद तक  वह  मन की  स्त्री  के फैसले के पक्ष में भी थी  ..और हो भी क्यों न एक मात्र यही आवाज़  थी जिसने समय समय पर उसे चेताया लेकिन हर बार वह उसकी आवाज़  की  अवमानना करती रही और जैसे तैसे आकाश और अपने रिश्ते को ढोती रही अगर समय रहते ही कुछ कदम उठाये होते तो शायद स्थितियाँ इतनी नहीं बिगड़ती ..पर खैर ...अब तो जो है जैसा है उससे ही निबटना होगा l

       फ़ोन उठाते समय उसके मन में  विचार कौंधा क्या रात में आकाश ने फ़ोन किया होगा ...? ..काँपते हाथों से उसने फ़ोन उठाया ...कोई मिस्ड कॉल नहीं थी ..तब पहली बार  पूरे मन से उसने माना कि घर छोड़ने का उसका निर्णय सही था ..जिस पति को इतनी भी चिंता नहीं हुई कि रात भर उसकी स्त्री कहाँ गई  ..कैसी है ..उसी पति की चिंता में वह  ख़ुद  को घोले जा रही है ...अजीब वितृष्णा से भर उठा उसका मन ...बेहद टूटे मन से उसने सोफिया को मेसेज किया ‘ आज कॉलेज नहीं आरही हूँ कुछ दिन के लिऐ  बाहर जाना है ..फ़ोन भी शायद बंद रहेगा ...आकर मिलती हूँ ..’ मेसेज भेज कर नीरा ने फ़ोन भी ऑफ कर दिया ...इस समय वह  पूरी तरह सिर्फ़ अपने साथ रहना चाहती  थी और यही सही तरीका था आत्म विश्लेषण का ....चाय के घूँट के साथ साथ जैसे जैसे उसकी तिक्त थकी नसों को ऊर्जा मिली उसका अपने निर्णय पर विश्वास बढ़नें लगा 

कप रख कर उसनें बैग उठाया और कमरे पर ताला लगा कर बाहर आ गई  .

 

रेलवे स्टेशन  की  सीढियाँ  चढ़ते समय तक उसने तय नहीं किया था कि , उसे कहाँ जाना है थके टूटे क़दमों से जाकर प्लेटफ़ॉर्म पर बने बेंच पर बैठ गई  ..जैसे कुछ छोड़ कर जाने से पहले मन में कोई उम्मीद हो तो कदम रुक रुक कर उठते  हैं ठीक वैसे ही भारी कदमों से चल कर  वह  कोने में बने बेंच पर बैठ गई  ... मन में रंच मात्र भी वापस जाने का इरादा नहीं था फिर भी समझ नहीं आ रहा था आगे बढ़ जाऐ  या वहीँ रुक कर इंतेज़ार करे ......पता नहीं कितने लम्बे समय तक  वह वहीँ उसी कोने में बैठी रही.......असंख्य यात्रियों का रेला स्टेशन पर रुकती गाड़ियों से निकलता और असंख्य यात्रियों का रेला खड़ी ट्रेनों में समा भी जाता ...सभी को ज्ञात था अपने अपने गंतव्यों के बारे में ....पूरे स्टेशन पर एक अकेली वह  थी जिसे मालूम नहीं था कि उसे कहाँ जाना है ......फिर बुझे कदमों से टिकेट लेने के लिऐ  वह यात्रियों की  कतार में जा कर खड़ी हो गई      मन में उधेड़ बुन जारी थी ...'आ तो गई  ...अब जाऐगी  कहाँ ...? जब टिकेट क्लर्क ने पूछा .'.कहा का दूँ मैडम ...?' तो नीरा की  तन्द्रा टूटी ..वह उसे ऐसे देखने लगी जैसे  उसने जो कहा वो समझने की  कोशिश कर रही हो ...क्लर्क ने फिर हाथ हिला कर पूछा . "टिकेट    कहाँ का दूँ  ...?"

नीरा.... चुप ......llll

तभी पीछे से एक महिला ने धकेला ..." जल्दी लो न मैडम ..हमें भी लेना है ...देहरादून एक्सप्रेस अभी थोड़ी ही देर में निकल जाऐगी  .." 

नीरा को जैसे अपने गंतव्य की सूचना मिल गई  ..वह क्लर्क  से बोली'देहरादून एक्सप्रेस थ्री टायर  ....नहीं फर्स्ट एसी   एक दे दो ...' शायद अभी भी लोगों के बीच वह ख़ुद  को असुरक्षित  अनुभव कर रही थी क्लर्क  ने उसे घूर कर देखा और टिकेट उसके हाथ में थमा दी ...टिकेट ले कर वहाँ से मुड़ी तो फिर उहा पोह के बादल तेजी से घुमड़ने लगे ..फिर जैसे उन्ही बादलों के बीच से बार - बार कौंधती  बिजली की दमक नीरा को डराने लगी ..वह तेज़ कदमों से प्लेटफ़ॉर्म की  तरफ कदम बढ़ने लगी ...गाड़ी तैयार खड़ी  थी ..उसके सीट पर बैठते ही ट्रेन ने सीटी दे दी ..जैसे जैसे ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म छोड़ रही थी वैसे वैसे नीरा का मन उहा पोह के बादलों से निकल कर उजली धूप में आने लगा .

पूरा कम्पार्टमेंट खाली था ..एक भी सह -यात्री नहीं .. बाहर शाम ढलने लगी थी नीरा ने बर्थ पर टाँगे फैला ली रात की  टूटी- फूटी नींद और एहसासों के ज्वार भाटे  ने यूँ भी नस नस तोड़ रखी थी l 

            ट्रेन धीरे धीरे शहर छोड़ रही थी ...नीरा अचंभित थी ख़ुद  पर, पहली बार अकेली सफ़र करने के बाद भी उसके मन में  कहीं कोई डर नहीं था ... पर आँखें थी कि बार बार भीग जाती थीं ...रह रह कर धुँधलाई  आँखों में आकाश का चेहरा उभर रहा था ...तभी  उसे ध्यान आया कि उसने फ़ोन तो ऑ ऑन   किया ही नहीं ...फ़ोन  ऑन  करते ही एक मेसेज उभर आया ...मेसेज खोलते -2 नीरा का मन किसी अनजानी उम्मीद से काँप गया ....पर नहीं ...यह आकाश का मेसेज नहीं था ....चिढ़  कर नीरा ने फ़ोन फिर ऑफ कर दिया ...पता नहीं बार बार उम्मीदों  के टूटने के बाद भी हम उन्हें फिर फिर बाँधते क्यूँ हैं ..क्या उनका टूटना हमें नागवार होता है याकि उनके पूरा होने की  ललक ही इतनी 

प्रबल होती है कि हम निरंतर उन्हें संजोते रहते है 

      

      देहरादून में सूर्या गेस्ट हाउस में आये उसे आज तीसरा दिन था ..बीते   कुछ वर्षों में दो तीन बार वह  कॉलेज ट्रिप से यहाँ आ चुकी थी ...गेस्ट हाउस का स्टाफ पूरी तरह से परिचित था ..यहाँ का एकांत शांत वातावरण स्थितियों के विश्लेषण में सहायक सिद्ध हो रहा था...जब तक निर्णय के सही होने का ख़ुद को विश्वास  हो जाऐ  तब तक ख़ुद  को सही ठहराना  काफ़ी कठिन होता है ..फिर चाहे निर्णय 

परिस्थितयों के दबाव में  आकर लिया गया हो या स्वेच्छा  से.... ..नीरा का मन भी बार डगमगा रहा था ..आर्थिक रूप से वह  स्वतंत्र थी ..कॉलेज की  तरफ़  से हॉस्टल में  रहने की  सुविधा भी उसे उपलब्ध थी और सुरक्षा कवच के रूप में कॉलेज की  कई सहकर्मियाँ भी थी अगर वह  कमज़ोर  थी तो केवल आकाश को लेकर भावनात्मक रूप से l

   आकाश के साथ सात वर्ष लम्बे वैवाहिक जीवन को  उसने जिया ,झेला और ढोया ही था अब इसमें से कितना जिया ,कितना झेला और कितना ढोया था यह कहना बहुत सरल था उसके लिऐ  ,थोड़ा जिया ,थोड़ा ढोया और बहुत झेला था ...याकि कहा जाऐ  कि,  आज तक ठेला भी उसी ने था ...ठेलने में अंशमात्र  योगदान आकाश का भी रहा हो शायद पर बहुताधिक चाह या कहें कि कामना तो नीरा की  ही थी कि यह रिश्ता सफल हो जाऐ  ..क्यूँ कि बहुत कुछ ना भी मिला हो इस रिश्ते से पर समाज में परित्याक्ता के नाम से जीने में सोच कर ही उसे घुटन होती थी . सवालिया नज़रों का दंश बेहद दर्दनाक होता है  सिर्फ़  उसकी चुभन बल्कि उसका असर भी लम्बे समय तक पीड़ा  देता है ..अगर वह नाप तोल करे तो इस रिश्ते को चलाने के पीछे बहुत हद तक यही कारण था वरना तीन वर्ष की साहिरा को तो वो जैसे तैसे समझा भी लेती लेकिन समाज के सवालों से वह उसे कैसे बचाती ?  ...यही कारण था कि आकाश और अपने रिश्ते को उसने इतने वर्षों तक ठेला था ...विवाह के तुरंत  बाद तो आकाश अमेरिका चले गऐ  थे ..फिर दूसरे वर्ष में कुछ माह अच्छे  बीते या कहे कि शायद वही  कुछ माह उसे याद हैं जब उसने आकाश को टूट कर प्यार ही नहीं किया बल्कि  आत्मा की  तहों तक चाहा  था… बदले में उसे कितना प्यार मिला इसकी नाप - तोल उसने कभी की  ही नहीं अगर की  होती तो शायद समय रहते आँखें  खुल जाती और 'साहिरा' का जन्म न होता

कोई तेरह चौदह  वर्ष की  उम्र   से वह मानने लगी थी कि जोड़ियाँ आकाश में बनती हैं और फिर जब माता पिता ने उसके लिऐ  आकाश को चुना तो उसने बिना किसी सवाल जवाब के उनके निर्णय को शिरोधार्य  कर लिया था ..आज भी उसे इसमें माता पिता की  कोई गलती नज़र नहीं आती ..अच्छा घर ,कमाऊ वर ,छोटा परिवार सभी कुछ तो देखा था उन्होंने अब इससे ज़्यादा  वह  देखते भी क्या ? अब किसी के मन के भीतर झाँकने के लिऐ  तो कोई यंत्र  है नहीं .. आकाश स्वभाव से अक्खड़ , जिद्दी  और मनमौजी हैं  .. यह नीरा को भी विवाह के कुछ समय बाद समझ आया और तभी से वह निरंतर यही कोशिश करती रही कि किसी भी तरह कैसे भी करके वह आकाश को बदल लेगी पर तब वह नहीं जानती थी कि जिस मिट्टी को वह नया आकार देना चाहती है वह चिकनी तो है ही नहीं ..वह तो सूखी है ..निरी रेत कंकड़ वाली ..अब रूप आकार दे भी तो कैसे ..बड़ी कोशिश करके वह अपनी भावनाओं और स्नेह की  नमी से उसे पोसती पर कुछ ही क्षण बाद वह मिट्टी सारी नमी सोख लेती और फिर सूखी की  सूखी ..अब बंजर भूमि से उर्वरा होने की  उम्मीद को क्या कहेंगे ...निरी मूर्खता या अदम्य साहस ...!!! 

 

        'साहिरा' नीरा और आकाश की  तीन वर्ष की  बेटी है जो पिछले डेढ़ साल से अपने मामा मामी के पास आगरा में है .नीरा के भाई- भाभी विवाह के बारह वर्षों के बाद भी निःसंतान थे और जब नीरा ने नौकरी के चलते साहिरा के लालन पालन में कठिनाई का ज़िक्र भैया भाभी के सामने किया तो उन्होंने सहर्ष ही साहिरा को अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव दे दिया और साहिरा अपने मामा मामी के साथ आगरा चली गई  .नीरा ने भीगी आँखों से साहिरा को विदा किया और मन ही मन अपने आप  को लाख लानते भी दी कि वह शायद दुनिया की  पहली माँ है जिसने पैदा होने के साथ बेटी को विदा कर दिया .उम्र   में  बारह साल बड़े भाई से नीरा बड़ी ख़ूबसूरती से यह बात छिपा गई  कि आऐ दिन आकाश और उसके झगड़ों से साहिरा का मासूम ह्रदय दहशत से भर जाता है और अक्सर वह रात को सोते सोते उठ कर रोने लगती है 

       देहरादून के एकांतवास में नीरा को न सिर्फ़  अपने बल्कि साहिरा के भविष्य की  रूप रेखा भी तैयार करनी थी ..बड़े भाई को स्थितियों से अवगत कराना भी बेहद कठिन कार्य था पर नीरा को यक़ीन था कि भैया उसके फैसले को समझेंगे और उसके पीछे के कारण को जानने के बाद स्वीकृति भी दे देंगें    

          देहरादून आये आज तीसरा दिन था इस बीच नीरा ने कई योजनायें बनायी लेकिन किसी भी योजना को वह फलीभूत होते वह नहीं देख पा रही थी ज़िंदगी में पहली बार उसे लगा कि सबके साथ चलने में और अकेले चलने में कितना बड़ा फर्क़ है जीवन भर परिवार और सगे सम्बन्धियों के साथ रही ….. ज़िंदगी  जो उससे करवाती गई  वह करती चली गई  पर अब जो ज़िंदगी  उससे करवाना चाहती  है उसे समझ पाना ही उसके लिऐ   इतना कठिन था तो करने की  योजना कैसे बनाती ...या कि फिर आकाश के साथ रिश्ते को तोड़ कर बाकी सफ़र अकेले तय करना ही उसे नागवार लग रहा था ....बड़ी कठिन पहेली थी!!

          उसने तय किया के कोई भी योजना बनाने से पहले यह तय करना ज़रूरी  है की उसे आकाश के बिना रहना भी है या नहीं .....ठंडी साँस ले कर वह खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई … मन की उथल पुथल अपने पूरे उफ़ान पर थी कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करना है क्या नहीं ..सच है जहाँ फ़ैसला रिश्तों के बारे में लेना हो वहाँ तो बड़े बड़े लौह- पुरुष भी डिग जाते है ..फिर वह तो अबला स्त्री थी l

         खिड़की के बाहर सामने पहाड़ पर हरे भरे पेड़ों की डालियाँ हवा के झोंकों से मंद मंद हिल रही थी नीरा को लगा जैसे वह हाथ हिला हिला कर उसे बुला रही हैं अपने पास नीरा  को लगा जैसे माँ उसे बुला रही हो अपने पास...... खोयी खोयी सी नीरा ने पैरों में चप्पल डाली और कमरे से बाहर आ गई  

सड़क के किनारे किनारे चलते हुऐ अनायास उसकी दृष्टि एक छोटी सी पगडंडी पर पडी जो पहाड़ के बीचों बीच से निकल रही थी ..... स्थानीय लोगों के लगातार आने जाने से वहाँ दो पाँव भर  जितना चौड़ा रास्ता बन गया था ...दूर तक नज़र दौड़ाने पर भी कहीं नज़र नहीं आ रहा था कि की आखिर यह पगडंडी जाती कहाँ तक है ..नीरा के कदम अनायास  ही उस पगडंडी पर बढ़ गऐ  बिना यह सोचे कि कहीं इस रास्ते पर साँप बिच्छु या कंटीले झाड़-झंखाड़ तो नहीं हैं l

       नीरा के कदम पगडंडी पर बढ़ते जा रहे थे ...तेज़  ..तेज़  ..बहुत तेज़  ...जैसे यह पगडंडी उसे मंजिल तक ले जा रही हो ....जैसे हरे भरे पहाड़ के बीच यह छोटी  सी पगडंडी न हो उसके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ हो ..कि जैसे इस मार्ग के अन्त तक पहुँचते  न पहुँचते  उसे अपना गंतव्य मिल ही जाऐगा  ..रास्ता था की समाप्त हो ही नहीं रहा था नीरा अब उस मार्ग पर भागने लगी ...पगडंडी जैसे अन्तहीन थी ...उसके जीवन की विषम परिस्थितियों की तरह ...नीरा का मन उद्विगन हो रहा था ..कहीं यह मार्ग भी उसके वर्तमान की तरह गंतव्य- विहीन तो नहीं ...?? नहीं !नहीं !नीरा का मन विचलित हो प्रतिकार करने लगा .."इतने लोगों के पैरों के निशान तो है यहाँ    ..जहाँ-तहाँ  पौधे भी पैरों से मसले पड़े हैं ..ज़रूर  यह रास्ता कहीं न कहीं तो जाता ही होगा ..क्षण भर के लिऐ भी नीरा ने यह नहीं सोचा कि क्यूँ वह इस मार्ग के अन्त तक जाना चाहती है जबकि इस रास्ते पर चलना उसके लिऐ अनिवार्य नहीं है वह किसी और मार्ग को चुनने के लिऐ स्वतंत्र है..तो फिर..?? नीरा

 दौड़ती गई दौड़ती गई  …………….

घोर  अनिश्चितता के बीच निश्चितता को पाने की ललक बेहद तीव्र होती है ... नीरा दौड़ रही थी निरंतर ..फिर एक जगह जा कर वह पगडंडी समाप्त हो गई  ..नीरा हतप्रभ खड़ी थी ..पगडंडी समाप्त हो गई  थी ..मार्ग के तीनों तरफ बड़े बड़े पेड़ थे ...और उनके बीचों बीच कंटीली झाड़ियाँ ..उसका पूरा शरीर तमतमा रहा था ...पैरों में जैसे खड़े रहने की शक्ति भी नहीं बची थी ...वह पास की चट्टान  पर बैठ गई  ..फटी आँखों से सामने फैले घने जंगल को देख रही थी ..कुछ क्षण यूँ ही बीत गऐ  ..फिर जैसे धुँध के बादल छँटने लगे ..उसके चेहरे पर गहरे  आत्मविश्वास का भाव उभरा  प्रकृति ने आज फिर मार्गदर्शक का पात्र  निभाया और  उहापोह के घने बादलों के बीच पहली बार नीरा को एहसास हुआ कि मोहासिक्त या अन्हासिक्त हो कर किसी मार्ग पर दौड़ने से कहीं ज़्यादा 

ज़रूरी है कि गंतव्य का पूर्व निर्धारण कर लिया जाऐ  ..इससे  सिर्फ़  मंजिल पाना 

आसान हो जाता है बल्कि मार्ग भी परिचित और सुगम बना रहता है l

वापस लौटते नीरा के कदम सधे हुऐ   थे...गेस्ट हाउस पहुँच कर उसने फ़ोन ऑन  किया …. ऑन  करते ही फ़ोन की स्क्रीन पर फ्लेश  हुआ …एक मिस्ड कॉल …एक मेसेज ….दोनों आकाश के ही थे  मेसेज में लिखा था "आइ वांट  टू टॉक टू यू ..प्लीज  कॉल मी " उसने आकाश को मेसेज किया ..' कल मिलना चाहती हूँ ..फैसले का वक़्त  आ गया है ...' मेसेज सेंड करते ही आकाश का रिप्लाई  आया ..."लेट्स टॉक फर्स्ट ... आई ऍम सॉरी ..वी नीड़ टू  टॉक"

नीरा का चेहरा भाव विहीन था ...वह तय कर चुकी थी ‘धुरी तो निर्धारित करनी ही होगी ...’

सही भी था ....कोई कितने भी  स्वच्छंद  स्वभाव का क्यूँ न हो जब किसी रिश्ते में बँधता है तो धुरी का निर्धारण अनिवार्य हो जाता है यही सृष्टि का नियम है तो फिर यह दोनों अपवाद कैसे हो सकते थे l

उसकी आँखों में अब सामाजिक निंदा का भय नहीं था ...ज़िंदगी उसकी थी ...जीनी भी उसे ही थी …स्वछन्द रहकर सिर्फ़ अपने लिऐ जिया जा सकता है परिवार में तो दायित्वों और नियमों को मानना होगा अगर यह समझने और मानने को अभय तैयार नहीं तो वह अब इस रिश्ते को और नहीं ढोयेगी ....यूँ भी लाश  को दफ़ना  या जला ही  दिया जाता  है वर्ना वह सड़ने लगती हैl
सोचते हुऐ   नीरा का मन अब स्थिर था l l

 

 

 

 

 

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