Poonam Chandralekha

Inspirational

4.7  

Poonam Chandralekha

Inspirational

यशोदा

यशोदा

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खटाक...टननननं...घड़े के ऊपर रखा गिलास तेजी से नीचे गिरा। आवाज़ के साथ ही समीरा बानो की नींद खुल गई। कल ही उसे एक चूहा दिखा था अलमारी के पीछे जो तेज़ी से बक्से के नीचे घुस गया था, वही होगा शायद, उसने सोचा। एक बार को उसने चूहे को मारने की सोची थी, फिर लगा इसके पीछे क्यों समय बर्बाद करूँ बहुत से काम करने को पड़े हैं..हुंहह...और वह अपने काम में लग गई थी। कुछ करना पड़ेगा इस चूहे का...सर को झटक कर वह फिर से सोने की कोशिश करने लगी पर अब नींद तो उसकी आँखों से रूठी हुई किस्मत की तरह मुँह मोड़ चुकी थी। खिड़की से स्ट्रीट लाईट भीतर कमरे की दीवारों को रौशन कर रही थी जिसकी कुछ किरणें समीरा के दिल के उस सुनसान गहरे हिस्से पर भी पड़ने लगीं जहाँ उसने अनेक अनचाही यादों को छिपा कर रखा हुआ था। समीरा ने उन यादों को फिर से तहाया और छिपा कर रख दिया दिल के उसी सूने गह्वर में।

अक्तूबर का महीना था। पहली सी उमस मौसम में अब नहीं रह गई थी। पंखा फुल स्पीड में चल रहा था। बगल में लेटी हुई सपना कसमसाई। समीरा ने उसे भरपूर नज़रों से देखा। एक प्यारी-सी मुस्कान सपना के गुलाबी होठों पर छाई हुई थी। समीरा ने हलकी थपकी देकर उसे फिर से सपनों में वापस भेज दिया...यही तो उम्र है इसकी सपने देखने की। कुछ दिन बाद ये भी अपनी सुसराल चली जाएगी। मन ही मन अनेक आशीषें देती हुई समीरा ने उसकी पैरों तक उघड़ आई चादर को एक बार फिर ठीक किया। बड़े प्यार से उसके माथे पर हाथ फिराया, उसका माथा चूमा, नम हो आई पलकों को हथेलियों से इस तरह पोंछ दिया मानो अपने पिछले जीवन की हर नमी को पोंछ कर सुखा देना चाहती हो...दीवार पर टंगा कैलेण्डर पंखे की हवा से तेजी से इधर-उधर डोल रहा था। हिलने से उत्पन्न हो रही खट-खट की आवाज़ समीरा को इस वक्त बहुत बुरी लग रहीं थीं। मानो यादें दस्तक देकर भीतर आने को बेचैन हों पर वो उन्हें आने देना नहीं चाहती। दूसरा विकल्प भी क्या था उसके पास, बुरी यादों का स्वागत करने के आलावा...’स्वागत!’ वो भी बुरी यादों का!! कोई करता है क्या! उन यादों का भी कोई स्वागत कर सकता है जो जन्म से उसे गहरे ज़ख्म देने पर उतारू हैं, कभी न भरने के लिए।

सपना ने फिर करवट बदली। पास ही दूसरी चारपाई पर सोये श्याम के चेहरे पर भी समीरा ने एक नज़र डाली। कितना मासूम, कितना बेखबर है दुनिया की कठोरता से। बेचारा कितनी मेहनत कर रहा है कि बी.कॉम में दाख़िला मिल जाए। उसका भविष्य ही बारहवीं की परीक्षा पर तो टिका है। अगर वह इस परीक्षा में पास नहीं हो पाया तो? कितनी बार श्याम उससे यही सवाल पूछ चुका था। वह क्या जवाब देती? कोई जवाब होता तो देती। दिलासा ज़रुर देती, हौसला बढ़ाती और जी छोटा न करने की बात कह कर ही रह जाती थी। वह अच्छी तरह से जानती थी कि अगर श्याम पास नहीं हुआ तो उसके साथ भी वही होगा जो कभी उसका हश्र हुआ था। हाँ, पर श्याम निराश होकर कभी भी कोई गलत कदम कभी नहीं उठाएगा...कभी नहीं ...इतना विश्वास समीरा को ‘अपने श्याम’ पर, अपने दिए संस्कारों पर ज़रूर था...

‘अपने श्याम??’ मन ने तीखा सवाल किया। ‘श्याम तुम्हारा कब से हुआ?’ 

“क्यों, किसी को अपना कहने के लिए क्या खून का रिश्ता होना जरूरी है? संवेदनाओं का, भावनाओं का और उससे भी बढ़ कर मानवता का क्या किसी से कोई रिश्ता नहीं होता...श्याम ही क्या सपना, जूली, हेमा, विभा, गौरी, रीना और कुसुम इन सभी के लिए मुझ से बढ़ कर दुनिया में और कोई नहीं....मुझे ही अपना सब कुछ तो मानते हैं...ये सब मेरे अपने हैं, और मैं इनकी। ” 

पंखे की तेजी से घूमती पंखुड़ियों को देखती हुई समीरा की नींद से बोझिल आँखें उसके मन-मस्तिष्क में चकरघिन्नी से नाचते सवालों का जवाब ढूंढने की असफल कोशिश करते-करते कब मुंद गई, उसे पता ही न चला।

अगले दिन हर रोज़ की तरह काम निपटाती हुई समीरा बानो अजीब बेचैनी का सा अनुभव कर रही थी। संध्या को चार बजे उसे ऑडिटोरियम पहुंचना था। निमंत्रण जो मिला था उसे। क्या पहन कर जाए? साड़ी या फिर सलवार सूट? साड़ी ही ठीक रहेगी, उसने सोचा। साड़ी के साथ पहनने के लिए मैचिंग ज्यूलरी निकाल कर पहले ही रख चुकी थी। बार-बार उसे देखती, खोलती और फिर तहा कर रख देती। कैसे, क्या करेगी? हे भगवान! संभाल लेना आज। वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थी...काश कि घड़ी बंद हो जाए..। काश कि प्रलय आ जाए..। काश कि खूब तेज़ बारिश हो जाए या फिर आंधी ही आ जाये..। काश किसी भी तरह से प्रोग्राम कैंसिल हो जाए..। बस...काश! ये हो जाए...काश वो हो जाए...समझ नहीं पा रही थी कि ये सब चोंचलेबाज़ी क्यों की जाती है ? भगवान से माँगी उसकी कोई भी मुराद आज तक पूरी न हुई थी, तो ये कार्यक्रम टलने जैसी इत्ती छोटी सी मुराद कैसे पूरी हो जाती!! शाम होनी थी, हुई, कार्यक्रम भी होना था सो वह भी हुआ।

खचाखच भरे शहर के प्रतिष्ठित सभागार में मातृ दिवस के अवसर पर विशेष कार्यक्रम का आज आयोजन था। आज उन महिलाओं का सम्मान किया जाने वाला था जिन्होंने समाज की रुढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ अपनी एक अलग राह चुनी और समाज सेवा में विशिष्ट योगदान किया था। कार्यक्रम का शुभारम्भ दीप प्रज्वलन तथा सरस्वती वंदना के साथ किया गया। दर्शकों के मनोरंजन के लिए गायन व नृत्य का भी आयोजन किया गया था। मंच पर सोलह-सत्रह वर्ष की एक बालिका अपने भावपूर्ण नृत्य से सभी का मन मोह रही थी। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद किसी एक पुरस्कार विजेता को मंच पर बुलाया जाता, सम्मान प्रशस्ति पत्र आदि दे कर उन्हें दो शब्द बोलने के लिए कहा जाता तत्पश्चात वे पुन: अपनी सीट पर जाकर बैठ जाते और मंच पर फिर दूसरा कार्यक्रम प्रारंभ हो जाता। समीरा तो मानो वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी...उसकी आँखें मंच की ओर अवश्य देख रहीं थीं परन्तु उसका मन कोई और ही दृश्य देख रहा था...हाथ यंत्रवत ताली बजा रहे थे किन्तु दिल पर तालियों की आवाजें भीषण आघात पहुँचा रही थी...द्वार पर खटखटाने की आवाजें तेज़ होने लगीं। द्वार खुला और आंधी-तूफान की तरह यादें दिल से निकल कर एक-एक कर मन में प्रवेश करने लगीं...

...माँ की साड़ी पहन माथे पर बड़ी सी बिंदी लगा कर जब वह माँ के सामने आ खड़ा होता तो माँ उसे बांहों में भर गले से लगाकर जब कहतीं कि तू तो मेरा बेटा नहीं बेटी है तब कितना प्यार आता था उस समय माँ पर। महसूस होता कि सारी दुनिया उसकी बांहों में सिमट आई है...माँ का दुलारा, आँखों का तारा था वह ...पर क्या हो गया था उस दिन माँ को...कुछ बोल क्यों नहीं रहीं थीं पिताजी के सामने...नौ महीने गर्भ में रखा था...अपनी जाई संतान को उस दिन घर से निकाले दे रहीं थीं ठोकरें खाने के लिए। क्यों? समीर की ह्रदय विदारक चीखें भी माँ के कलेजे को चीरें न डालतीं थीं...कैसे समझता एक आठ साल का बच्चा माँ की मजबूरियों को और कौन सी मजबूरियों को... कैसे समझता वह माँ के मन की उलझन जब समीर के पापा ने अपना निर्णय माँ को बताया होगा तो उनके दिल पर क्या गुजरी होगी...समझाया तो होगा जरूर माँ ने पापा को कि मुझे घर से न निकालें और यह भी ज़रूर कहा होगा कि कैसे भी हो पाल लेगी समीर को...और पिता जी के समझाने पर माँ क्यों शांत हो गईं होंगी? यह सब कैसे समझ पाता आठ साल का बच्चा...कैसे??

सभा में तालियाँ बजने लगीं। पुरस्कार विजेता महिला अपने अनुभव दर्शकों के साथ साझा कर रहीं थीं किन्तु समीरा एक बार फिर अपने में समा गई।

स्कूल तो उसी दिन छूट गया था जिस दिन घर छूटा था...घर से निकल कर सीधा प्रभा मैम के पास गया था। उनको सब कह सुनाया था। सुनकर वे भी दंग रह गयीं। पास खड़े पति को चुप खड़ा देख असमंजस में थीं कि क्या करें। बस इतना ही कह पाई कि जब भी मेरी ज़रूरत पड़े बेहिचक आ जाना...प्रभा मैम उसे बहुत अच्छी लगती थीं। फिर कब, कैसे उसने खालिदा बेगम को अपना गुरु मानना, सिग्नल पर भीख मांगना, शादी-ब्याह, बच्चा पैदा होने पर नाचना-गाना और शाम ढलते ही जिस्म को नुचवाने छोड़ देना इन्सानी कुत्तों के आगे शुरू कर दिया था, उसे पता भी न चला। शुरू शुरू में उसे बड़ा बुरा लगता ये सब करना। खालिदा आपा समझाती कि हमें अगर इस दुनिया में जीना है तो यही सब करना ही पड़ेगा। हम अन्य सामान्य लोगों की तरह कुछ और काम ना तो कर सकते हैं और न ही कोई हमें करने देगा। कोई भूला बिसरा ईश्वर का नेक बंदा अगर हमारे लिए कुछ करना भी चाहता है तो ये समाज वाले उन्हें करने नहीं देते...

हॉल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। समीरा बानो के हाथ भी जुड़ गए। ताली बजाते हुए दोनों हथेलियों के बीच न जाने कितने सवालों को मसल देना चाहती थी...।

”कौन है यह समाज, कहाँ है यह समाज? किसने बनाया? ऐसे समाज के नियम कौन बनाता है? दिखने में कैसा है ये समाज ? सब पूछना चाहता था वह अगर ये समाज उसे किसी दिन मिल गया तो ! लोग ईश्वर को ढूंढते है पर वह समाज को ढूंढेगा और पूछेगा सारे सवाल ...पूछेगा उस समाज से कि “उसके क्या कोई संतान नहीं, क्या उसके कोई माँ-बाप नहीं? क्यों मेरे पापा को कहा कि मुझे घर से निकाल दें...तुम निकाल के देखो अपनी संतान को घर से...तब तुम्हें पता चलेगा कि कैसा लगता है माँ-बाप, भाई-बहनों से अलग होकर, गुमनामी की जिंदगी जीना...कब मिलेगा उसे समाज...कहाँ है समाज” ऐसे और न जाने कितने सवालों को सीने में दबाये समीर समीरा बानो बनी आज पचास बरस से भी ऊपर की हो चुकी है..।

मंच पर पुरस्कार विजेता अपने जीवन की यात्रा सुना रही थी और इधर समीरा का मन अपनी यादों का मवाद निकलने लगा।

“समाज की जिस्मानी और मानसिक उपेक्षा, घृणा, बदसुलूकी, शोषण को सहता हुआ उन गलियों की सीली बदबूदार बस्ती में पल-बढ़ कर बड़ा हुआ समीर, जहाँ कोई भी इज्ज़तदार व्यक्ति जाना तो दूर देखना तक भी पसंद नहीं करते..।

...वो दिन कैसे भूल सकती है जब वह पहली बच्ची यानि गौरी को घर उठा कर लायी थी। कैसी सड़ी बदबूदार जगह थी वह। याद करते ही एक बार फिर उसकी यादें भी बदबूदार हो उठीं। एक तरफ कूड़े का अम्बार लगा हुआ था, इस्तेमाल की गईं सिरिंजें, खून से लिपटी रुई व पट्टियाँ पड़ी हुई थीं और भी बहुत कुछ था वहाँ। वह यह सब देख नहीं सकी। शायद किसी अस्पताल के पिछवाड़े का हिस्सा था वह। इस्तेमाल किये हुए कंडोम भी यहाँ वहाँ छितरे पड़े थे। ऐसी जगह उसका न जाने कितनी बार दैहिक शोषण तो हुआ ही पर मन व भावनाओं का भी न जाने कितनी बार शोषण किया गया था। गिनती याद रख कर भी वह क्या करती। वह आदमी दो सौ रूपये उसके ऊपर वहीं फेंक कर चला गया। बहुत देर तक वह अपने भाग्य को कोसती हुई उसी नर्क में अपने उन अपराधों की माफ़ी मांगती हुई पड़ी रही जो शायद उसने पिछले जन्म में किये होंगे...

...तभी किसी बच्चे के धीमे स्वर में रोने की आवाज़ से उसके बेजान से पड़े जिस्म में हरकत हुई। कूड़े के ढेर में से ही आवाज़ आ रही थी। उसे वहाँ कुछ हिलता हुआ नज़र आया। न जाने कैसे उसके मुर्दा से पड़े शरीर में शक्ति आई। जाकर जल्दी से उसने ढेर के नीचे से बच्ची को निकाला। फूल-सी नाज़ुक प्यारी-सी अधमरी-सी बच्ची हाथ पाँव चला कर मानो जिंदा रहने के लिए संघर्ष शुरू कर रही थी। पहली बार समीरा ने इतने छोटे बच्चे को देखा था वह भी इतने करीब से। छोटे-छोटे हाथ-पाँव, छोटी-छोटी प्यारी नीली आँखें, गुलाब की पंखुड़ी से कोमल गुलाबी होंठ। बच्ची को देखते ही उसकी पीड़ा, उसका रोष पल भर में ग़ायब हो गया। “हाय राम! इतने छोटे होते हैं बच्चे!! न जाने कब से बच्ची यहाँ पड़ी होगी” सोचते हुए आश्चर्य मिश्रित हलकी ख़ुशी से डरते-डरते बड़े संभाल कर समीरा ने उसे जैसे ही हाथ में उठाया बच्ची में मानो जान आ गई, वह और जोर से रोने लगी। एक अजीब-सी झनझनाहट समीरा ने पूरे शरीर में महसूस की थी। बिजली-सा करेंट उसकी शिराओं में दौड़ने लगा। धड़कने तो बस मानो इसी पल रुक ही जाना चाहती हों। उसे ऐसा क्यों महसूस हो रहा वह समझ न सकी। “कैसे अब तक कुत्तों व चूहों से बची रह गई ये नाज़ुक कली।" शायद इसे भगवान ने मेरे लिए ही अब तक जिंदा रख छोड़ा है। इन्सानी हाथों का कोमल स्पर्श पाकर पल भर को उसका रोना रुका। अपनी नीली प्यारी आँखों से टुकुर-टुकुर समीर की ओर देखने लगी मानो पूछना चाहती हो कि कौन हो तुम मेरे जैसी इस कूड़े के ढेर में। कपड़ों से वह गरीब घर की तो नहीं लगी थी। गले से लगा लिया था समीरा ने बच्ची को। तुरंत अस्पताल ले जाकर उसका जाँच आदि करवाई। डॉक्टर से ज़रूरी निर्देश समझ वह बच्ची को घर ले आई और बस उस दिन से लेकर आज तक था उसने किस्मत को कोसना बंद कर दिया। रीना, जूली, विभा, हेमा भी उसे ऐसे ही मिली थी। छठी बच्ची यानि कुसुम जब उसे मिली उसने एक बार खर्चे के बारे में भी सोचा पर उसकी भोली सूरत देख कर वह मुँह फेर कर न आ सकी। सबसे छोटी सपना को तो उसने मात्र 200 रूपए देकर उसके माता पिता से ख़रीदा था जो उसे 100 रुपये के बदले एक दलाल के हाथों सौपने जा रहे थे और यह श्याम!! यह तो उसे पार्क के कोने में आँसू बहाता मिला था जब वह दस बरस का था उसके जैसा ही घर निकाला हुआ...इसको बनाते समय भी भगवान की तूलिका की नोक शायद टूट गई होगी तभी न जन्मा है हिजड़ा बनकर ...बस्ती के सभी उसके साथियों ने उस वक्त फिर समझाया था..।

 “बेवकूफी न कर समीरा! छोड़ आ जहाँ से लाई है इन सम्मानित समाज की औलादों को। जानती है न तू कि अपने एकमात्र देवता अरावन की एक दिन की ब्याहता और फिर उनकी विधवा के रूप में शेष जीवन बिताना ही हमारी नियति है। नाच-गा कर उसी समाज का जी बहलाना हमारी जीविका है जिस समाज से अलग हम रह रहे हैं। हमारे जीते रहने का कोई मकसद नहीं है, समझी समीरा। मर जाने के बाद हमारी लाश को पीट पीट कर दफ़ना दिया जायेगा। बस यही है हमारी जिंदगी.” - चंपा अपना दायाँ हाथ नचा कर बोली थी...

 “क्यों इन बच्चों को पालना चाहती है? अरी मर जाने दे न! हमें क्या? हमें क्या मिल रहा है इस नामुराद समाज से?” – गीता ने भी आगे बढ़ कर कहा था।

किन्तु, उसने किसी की एक न सुनी और एक-एक करके आठ बच्चों की यशोदा माँ बन गई। अब वह समीरा बानो से समीरा माँ बन गई थी। बस्ती के अन्य लोग भी बच्चों की देख-भाल करने में किसी न किसी रूप में मदद करने लगे। उनके हँसी खिलखिलाहट से किन्नरों की गुमनाम, बदनाम बस्ती गुंजायमान हो उठी थी। उन आठ बच्चों के साथ जैसे वे भी अपना बचपन दोबारा जी लेना चाहते थे, जैसे अपने हर दुःख को भुला देना चाहते थे। 

उसने सात बच्चियों को पैदा तो नहीं किया था पर अपने सगे जन्मे बच्चों के समान ही पाला पोसा था। कोई भी स्कूल दाख़िला देने को तैयार नहीं था। किसी तरह एक स्कूल में दाख़िला मिला। जैसे-तैसे दसवीं पास करवा दिया था सभी को। जिसने भी आगे पढ़ने व कुछ ट्रेनिग पाने की इच्छा ज़ाहिर की, उसने कभी मना नहीं किया। रीना ने टीचर बनना चाहा था तो विभा ने हेयर ड्रेसर। हेमा को भगवान ने बुद्धि भर-भर कर दी। वह इंजीनियरिंग में सलेक्ट हो गई। गौरी तो निफ्ट से ग्रेजुएशन कर पिछले साल से एक बड़ी कंपनी के साथ काम कर रही है। भगवान की दुआ से सभी की शादियाँ हुई और सभी अपने घर परिवार पति के साथ सम्मान पूर्वक जीवन बिता रही हैं। रीना कित्ती रोई थी विदाई के वक्त। कभी कभी मिलने आ जाती है उसकी सभी “बेटियां’। नम हो आईं आँखों की कोरों को समीरा ने चुपके से पोछ लिया। अपने सभी दुःख, दर्द, ख़ुशी हर भाव को ऐसे ही छिपाती ही तो रही थी अब तक...समाज ने अधिकार ही कहाँ दिया है उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का...

“ऐसे समाज की चिंता करते थे मेरे माँ बाप? ये सब सामान्य लड़कियाँ थीं। इनको क्यों परिवार से जुदा होना पड़ा। नपुंसक, हिजड़ा मैं नहीं..। ये समाज है” 

प्रभा मैडम ने उसे बताया था एक दिन जब वह गौरी को उनसे मिलवाने ले गई थी, कि पुराने समाज में हम जैसे लोगों को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। बल्कि समाज में हमें विशिष्ट स्थान दिया गया था। उस समय लोग ज्यादा तो पढ़े लिखे भी नहीं हुआ करते थे पर संवेदनाशीलता और मानवीयता का पाठ सबने खूब पढ़ा था। आज उसी समाज के कार्यक्रम में शामिल होने आई थी वह। क्यों आ गई वह? काश न आती। उसका मन किया अभी उठ कर चली जाए इस दिखावटी समाज की दिखावटी महफ़िल से...

 उसे घबराहट सी महसूस होने लगी। बोतल का ढक्कन खोल एक ही साँस में पूरी बोतल का पानी पी गई...ऑडिटोरियम में बैठे लोगों की प्रश्न, तिरिस्कार, सहानुभूति, उपेक्षा की मिलीजुली नज़रों को समझ रही थी मानो कहना चाहतीं हों कि “इसे क्यों बुलाया गया है यहाँ?” इससे पहले कि वह और कुछ सोच पाती...मंच से अपना नाम सुनकर चौक गई।

“अब अंत में हम समीरा बानो को आमंत्रित करना चाहेंगे कि वे आयें और पुरस्कार ग्रहण कर हमें अनुग्रहित करें, जिन्होंने समाज के सामने एक मिसाल पेश की है...समीरा बानो...” 

समीरा को तो मानो काटो खून नहीं था...”उसे पुरस्कार? उसे? हिजड़े को? ऐसा कभी होता है क्या?” उद्घोषिका आगे भी उसके बारे में कुछ-कुछ बोलती गई पर वह सब कुछ उसके कानों ने सुनने से इंकार कर दिया।

उद्घोषिका बड़े ही सधे हुए शब्दों में रुक-रुक कर उसका परिचय दर्शकों दे रही थी, “माँ यशोदा ने तो एक कृष्ण को पाला था पर हमारी इस यशोदा ने एक दो नहीं पूरी सात लड़कियाँ और एक किन्न...” शब्द को अधूरा छोड़ उसने दोबारा कहना शुरू किया। “हमारी ये यशोदा, नन्द गाँव की यशोदा जैसी ऊँचे कुल की धनी, संपन्न व प्रतिष्ठित समाज की सदस्य नहीं हैं..।

समीरा अपनी सीट पर चिपक-सी गई थी। वह इस अप्रत्याशित स्थिति का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

“समीरा बानो जी कृपया मंच पर आएँ और पुरस्कार ग्रहण कर हमें अनुगृहित करें” मंच से फिर घोषणा हुई।

सकुचाती, घबराती समीरा बानो अपने स्थान से उठी और धीरे-धीरे चलती हुई माइक के पास जाकर चुपचाप खड़ी हो गई। पीले रंग की बनारसी साड़ी, लम्बाई में थोड़ा ऊँचा मैचिंग ब्लाउज, माथे पर लाल रंग की बिंदी। हमेशा की तरह उसने अपने बड़े-बड़े आर्टिफिशल झुमके व बड़ी सी माला न पहनकर आज छोटे मोतियों की माला और मैचिंग टॉप्स कानों में पहने हुए थे। बालों का जूड़ा बनाकर बेले के फूलों का गजरा लगाया हुआ था। चेहरे पर अनगढ़ मेकअप, आँखों में मोटा मोटा काजल। पैरों में हवाई चप्पल। यही तो पहनती आई थी इतने सालों से और इससे ज्यादा उसे आता भी न था साज श्रृंगार करना। कुल मिलाकर वेषभूषा से वही अपनी किन्नरों वाली पारंपरिक छवि देती हुई।

दर्शकों में रोष साफ़ दिखाई दे रहा था। इससे पहले उद्घोषिका कुछ और बोलती दर्शक दीर्घा में मिली जुली प्रतिक्रिया होने लगी। हलचल व फुसफुसाहट तेज़ होने लगी। सबको शांत रहने का अनुरोध कर पल भर रुक कर फिर आगे बोली...

“समीरा बानो ने मिसाल कायम की है...उन्होंने...” उद्घोषिका की बात पूरी भी न हो पायी थी कि दर्शकों में से आवाज़ आयी, “एक हिजड़े को सम्मानित करके हमें अपमानित करने के लिए यहाँ बुलाया गया है। सम्मान देने के लिए हमारे लोगों में कोई नहीं मिला क्या?”

 “पहले पता होता तो यहाँ कभी न आते” 

सभा में हंगामा-सा मच गया..। लोग “शर्म! शर्म!” के नारे लगाने लगे।

समीरा बानो कुछ देर तक तो किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी थी। स्थिति बिगड़ते देख कार्यक्रम के संयोजक भी घबरा गए कि क्या करें, कैसे स्थिति को संभाले। वे किसी तरह दर्शकों को शांत करने की कोशिश करने में लगे थे।

इसी बीच अप्रत्याशित रूप से समीरा माइक के सामने आई और हाथों को जोड़ कर अभिवादन की मुद्रा में चुप खड़ी हो गई। उसकी इस क्रिया पर कुछ लोग उत्सुकता से, कुछ नाराज़गी से देखने लगे। दर्शक उसे मंच से उतर जाने के लिए कहने लगे। सभी की नज़रें उसी पर जम थी। समीरा की आँखों में तरलता और चेहरे पर दृढ़ता के भाव एक साथ स्पष्ट नज़र आ रहे थे। तभी माइक से एक भारी काँपती सी आवाज़ गूंजी- 

“मैंई क्या बोलूं। मैं तो इतनी पढ़ी लिखी नहीं, न ही आपके जैसा अच्छी भाषा में बोलना आती है मेरे को, न उठना, बैठना, चलना, कपड़े पहनना। वो क्या है न, मैंई तो स्कूल नइ गई न। आठ बरस की थी मैंई जब मेरा बाप मेरे को सौ रुपया हाथ में देकर बोला था घर से चले जाने को।" समीरा ने अपनी बायीं हथेली सामने फैला कर कहा। “उस दिन कितना रोई चिल्लाई थी मैंई जब सुबह-सुबह पिताजी ने फरमान सुना दिया था। आपको मालूम कुछ...घर में सबसे छोटा थी, माँ की आँखों का तारा थी मैंई...” समीरा जैसे जैसे जीवन के पन्ने पलटती गई दर्शकों में हलचल कम होने लगी। अपनी सीटों पर बैठे लोग उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे जैसे कोई फिल्म देख रहे हों..।

“हमें तो आपके समाज ने कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं दिया है। हम भी आपके जैसे ही तो इन्सान हैं। देखो न हाथ-पैर, आँख-कान सबी आपके जैसे ही हैं न; इन्सानी दिल हमारे भी सीने में धड़कता है। हाँ, भगवान नें हम जैसे लोगों को आपके जैसा अच्छा शरीर देकर धरती पर नहीं भेजा...बस पेट के नीचे ईश्वर ने छोटी सी गलती कर दी...पर..। हमने उनको तो नहीं बोला था न कि हमें ऐसा बनाओ। और न हमारे माँ बाप ने बोला...फिर किस बात के लिए आपके पढ़े लिखे सूटेड बूटेड समाज ने हमें हमारे घर से निकलवा दिया था” 

इतने वर्षों का जमा दुःख पीड़ा दर्द, अपमान, उपेक्षा, शिकायत शब्दी जामा पहन समीरा के मुख से बाहर निकलने लगे।

“मेरे को आज यहाँ ईनाम देने के लिए क्यों बुलाया गया है, मुझे नइ मालूम? मैंई तो कोई ख़ास काम नइ किया...ये दीदी जी कुछ भी बोल रही थीं। देना ही है न तो ये ईनाम उस स्कूल के हेड मास्टर को दो जिन्होंने कूड़े में फेंकी उन लड़कियों को अपने स्कूल में दाख़िला दिया, पढ़ाया, जिनके माँ-बाप का पता नहीं था...जिनको मैंई, जो ख़ुद समाज से बेदखल, घर से बेघर था, पाला था...ये फूल मालाएँ,” – उसने अपने गले में पहनी हुई मालाओं की ओर इशारा करते हुए कहा, “अगर पहनाना है न, तो उन माँ-बाप को पहनाओ जिन्होंने मेरी बेटियों को अपने घर की बहू बनाना स्वीकार किया। मैंई लड़कियों के बियाह से पहले ही सब सच कह दिया था उनको। इज़्ज़त करनी है तो उन लड़कों की करो जिन्होंने उनका जीवन साथी बनना पसंद किया। ये लोग हक़दार हैं इस इज़्ज़त के” - समीरा अपनी ही रौ में गरजे जा रही थी...

“हम हिजड़े कहाँ से पैदा होते है? आपके समाज में रहने वाले आदमी औरत ही तो हमें जन्म देते है न...तो हम समाज से बाहर और वो समाज के अन्दर?”- सन्नाटा और गहरा गया।

 “मैंई देखा कितने शादी-शुदा जोड़े बच्चे के लिए तड़पते हैं, इलाज में लाखों रुपए फूँकते हैं, बिन बच्चे ही मर जाते हैं। और लोग हैं जो अपने खून, अपने कलेजे के टुकड़ों को सिर्फ इस लिए छोड़ देते हैं कि...” उसकी आवाज़ भर्रा गई। कुछ पल रुकी और हँस कर उसने अपनी बात पूरी की और। “...कि शायद, ईश्वर उनको बनाते समय थोड़ा सो गया था, हिजड़े का शरीर देकर धरती पर भेजा। पर..। इन सात बच्चियों का क्या कसूर था? ये लड़कियाँ तो हिजड़ा नहीं थीं न? फिर क्यों इनके माँ-बाप ने इनको पैदा होते है किसी को कूड़े में फेका तो किसी को दूध में डुबो कर मारने कोशिश की थी...किसी को जंगल में छोड़ दिया जंगली जानवरों का निवाला बनाने के लिए। कैसा समाज है आप लोगों का? हाँ...कोई भी नियम बना लेते हो जब चाहा...अपनी मर्ज़ी से...किसी को भी छोड़ दिया...किसी को भी मार दिया...क्या मालूम आप लोगों में से ही कोई इन बच्चियों के माँ-बाप हों...” 

कुछ लोग असहज महसूस कर रहे थे। कुछ लोग नज़रें नीची किये सुन रहे थे मानो उनका कोई कुकृत्य देख लिया गया हो। समीरा चुप नहीं हुई। बोलती गई...

“मुझे मंच पर देखना आपको आज बुरा लग रहा है न, आपको बेइज्जती लग रही है? क्यों कि मैं हिजड़ा हूँ !” समीर की गरजती आवाज़ अचानक ही मंद पड़ गई।

“आप लोग हमें कहते हो...हिजड़ा...लेकिन शायद हिजड़ा होकर भी माँ बनना, माँ कहलाना मेरी ही किस्मत में भगवान ने लिख दिया था। यही मेरा पुरस्कार है। ”

पूरे हॉल में सन्नाटा पसर गया। कुछ लोग एक दूसरे की तरफ देख रहे थे तो कुछ दूसरों से नज़रे चुरा रहे थे।

तभी एक व्यक्ति उठ कर स्टेज पर पहुँचा और हाथ जोड़ कर बोला...

“समीरा बहन! मैं औरों की तो नहीं जानता, पर मैं अपने आप से यह वादा करता हूँ कि आज के बाद मैं या मेरा परिवार आप जैसे ही मानवों के साथ जानबूझ कर या अनजाने में भी कोई दुर्व्यवहार या उनका अपमान नहीं करेगा...मेरी एक छोटी से कंपनी है...मैं चाहता हूँ ‘आपके बेटे’ की आगे पढ़ाने की पूरी व्यवस्था करूँ, उसकी पढ़ाई पूरी होने के बाद उसकी नौकरी की ज़िम्मेदारी भी मेरी...एक मानव होने के नाते मैं दूसरे मानव के लिए इतना तो कर ही सकता हूँ...” 

जवाब में समीरा ने भी हाथ जोड़ दिए और बिना कुछ बोले, बिना पुरस्कार ग्रहण किए मंच की सीढ़ियों से उतर कर बाहर के द्वार की ओर बढ़ गई...एक संतोष भरी मुस्कान अपने होठों पर लिए हुए...

सब चुपचाप उसे जाते हुए देखते रहे..। अबकी बार कोई तालियाँ नहीं बजी थीं सभा में ...

 


               


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