Bharat Bhushan Pathak

Abstract

4.2  

Bharat Bhushan Pathak

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दन्तशूल

दन्तशूल

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आज बहुत दिनों के बाद मन में ये विचार आया कि कुछ लिखा जाए तो लीजिए दो दिनों से दन्तशूल से अतिपीड़ित हूँ उसी पर लिख देता हूँ,क्योंकि कवि या लेखक को ईश्वर ने एक विशेषता दे रखी है या इस भांति कह लें कि उसमें विलक्षण प्रतिभा है कि वो अपनी पीड़ा को भी शब्दों में बयाँ कर लेता है और यदि ऐसा न होता तो बहुत सारे मेरे जैसे कवि व लेखक कब का इस संसार से,साहित्यिक भाषा में इहलोक,विशद विश्व से निपट लिए होते। आप इस भांति समझ लीजिए कि अजी यही लेखन कला,यही चमत्कारिक शक्ति हमारी शक्ति है,सामर्थय है,ताकत है और न जाने क्या-क्या है।

तो आइये आपको इस दन्तशूल साधारण बोलचाल की भाषा में दाँत का दर्द में किस भांति की अनुभूति होती है परिचय करा दूँ जिससे कि यदि आपको ये कभी हो जाय,तो वैसे भगवान न करे पर यदि हो ही जाए तो आप इस दर्द का भी आनंद ले सकने में पूर्ण समर्थ हों।

बात कल की ही तो थी कि कल (बीते हुए समय में)प्रातः से ही मेरे दाँत में विचित्र-सा दर्द प्रारम्भ हुआ,प्रातः तो प्रारम्भ ही होता है हम निजी विद्यालय के शिक्षकों का और बिन बड़े नाम वाले लेखकों का कुछ न कुछ करने से ही,वैसे अपनी मजबूरन दिनचर्या में शामिल है निकटस्थ गाँव में जाकर अध्यापन करना,मजबूरन लिखने का कारण यह कि पहले से ही ईश्वर ने मेरे शरीर पर कितनी कृपा कर रखी है ये आप मेरे द्वारा लिखी कहानी विराम गति में अनुभव कर सकते हैं,लोगों का मानना है कि ये सभी आपके पूर्वजन्म का प्रतिफल होता है,परन्तु पूर्वजन्म में कैसे झाँकूँ कि देख आऊँ कि कितने बड़े और कैसे-कैसे पाप कर रखे थे,इसलिए खुशी-खुशी इस जन्म में प्रायश्चित स्वरूप सभी पीड़ा झेलते आ रहा हूँ। तो बात हो रही थी मेरे दन्तशूल की यानि दाँत के दर्द की...दन्तशूल जैसा नाम से ही स्पष्ट है शूल अर्थात अधिक पीड़ा ।अध्यापन तो कल किसी भांति कर आया,परन्तु इन ओनलाईन कक्षाओं का क्या भाई वो भी तो लेनी थी,अतएव मुँह में फिटकरी,वही आङ्गल

भाषा में फिटकरी दबाकर कक्षाएं लेता गया,बिना दर्द की चिन्ता किये।कारण यह कि स्वयं को शिक्षक नहीं आज के प्रतिकूल काल के अनुरूप योद्धा जो समझता हूँ,लगभग पाँच बजे इन कक्षाओं से निवृत हुआ,उसके पश्चात मन में इच्छा हुई कि चाय व बिस्कुट खा ली जाए,सोचा था चाय में डुबकी लगाकर,तैरते-तैरते बिस्कुट थककर सो ही जाएगी चाय में,तब चुपके से इसका सेवन कर लूँगा।हुआ भी यही कि बिस्कुटेश्वरी जी डुबकी लगाकर ,थककर सो गयी,परन्तु ये दाँत कहाँ मानने वाला था ,लग गया तभी अपना हथौड़ा बरसाने शायद बिस्कुट की ये चाय में डुबकी लगाकर उसके सोने और उस सोयी हुई बिस्कुटेश्वरी को मेरे द्वारा खाना उसे पसन्द नहीं आया था।अरे भैया आता भी कैसे,किसी सोये को उठा देना जघन्य अपराध है।तो अन्त में दन्तशूल की विजय हुई और बिस्कुटेश्वरी व चाय दोनों मेरा ग्रास बन जाने से मुक्त हो गयी।परन्तु चाय व बिस्कुटेश्वरी का भाग्य तो निश्चित ही है,अतएव वो मेरी न सही श्रीमति जी के सुकोमल दिव्य मुख में प्रवेश कर अपने गंतव्य तक पहुँच गयी।मन में यह सोचकर आया कि कस के ताली बजाऊँ कि मेरी न सही मेरी श्रीमति जी का ग्रास तो तू बन गयी।पर क्या करूँ, हाथ हिलाना भी पुनः इस दन्तशूल रूपी दुष्ट जेलर को जगाना जैसा ही था।

अतएव विवश होकर मन में ही हम खुश हो लिये बिना शारीरिक प्रतिक्रिया किये हुए।परन्तु रात को मुझे एक और औषधि जो लेनी थी,अतएव थोड़ी ही सही कुछ ग्रहण करने

के लिए योजना बनाई ।समक्ष मुड़ीश्वरी जो प्रस्तुत की गयी और संग में भूँजे हुए आलू,

 परन्तु उसने भी आज मुझसे उल्फत नहीं नफ़रत करने की योजना बना रखी थी,कम्बख़त वो भी आज बेवफा निकली थी।

 फिर श्रीमति जी ने पति-प्रसाद को विवशतावश ग्रहण कर लिया था।

 मेरे दर्द से वो भी बहुत ही पीड़ित थी,छोटे भाईसाहब पास के औषधालय से तीन टिकिया लेकर आए एक चूसक,एक गैस की,एक रोग प्रतिरोधक,क्योंकि चिकित्साशास्त्र का कहना है कि ये उच्च प्रतिरोधक पीड़ा निवारक टिकिया अकेले नहीं खानी चाहिए,गैस की टिकिया,उच्च रोग प्रतिरोधक टिकिया व मूल शूल सम्बन्धित 

विशेष टिकिया अर्थात कुल तीन टिकिया तो अनिवार्य है जी,अतएव चुपचाप इसका सेवन किया और सोने का नाटक किया,क्योंकि पूर्णतः सोना आज भाग्य में लिखा कहा था।

 एक नीचे का दाँत तो पहले ही शहीद कर आया था,अब ये ऊपर का उखाड़ दिया तो क्या समयपूर्व ही वयोवृद्धों की सूची में न आ जाऊँगा सोचकर कभी फिटकरी,कभी तुलसी के पत्ते,कभी एलोपेथिक औषधियाँ सेवन कर रहा था मैं,पर दाँत का दर्द टस से मस कहाँ होना चाह रहा था।आइये मैंने इस दन्तशूल में क्या-क्या अनुभव किया ,आपको भी अनुभव करवाता हूँ।रात को कभी मन में आया कि कुशल धनुर्धर अर्जुन की भांति गाण्डीव सम टंकार करने जैसा गरज उठूँ,कभी ज्वार-भाटे की भांति ऊपर से नीचे कि ओर उठूँ-बैठूँ या तीव्र धावन कौशल का परिचय देने वाली उड़न परी पी टी उषा बन जाऊँ।तो कभी मन में आ रहा था कि हाथ में ध्वनि विस्तारक यंत्र लेकर कुशल वोट प्रचारक की भांति अपनी पार्टी का न सही अपने दाँत दर्द का ही प्रचार कर दूँ।अजी ये दाँत दर्द क्या था एक अनुभव था,गणित के प्रमेय का जटिल प्रश्न था,इसमें सीमा का विस्तार शून्य(लिमिटेशन टेन्डस टू जीरो) तक यहाँ दन्तशूल का विस्तार नहीं ,अन्त पूर्णतः संभव कहाँ था।बस एक सच्चे साधक की भांति,एक गृहकार्य पूर्ण न करने वाले कुशल विद्यार्थी के गुरुजनों से मिले दण्ड का सम्मान करने की भांति चुपचाप सहन करने के अलावा यहाँ किया भी क्या जा सकता था।

 इस दन्तशूल स्वरूपी गुरु को कौन समझा सकता था भला!

कभी-कभी तो ये रात भर के दो दिनों के दर्द का शो,सिनेमा,रील,चलचित्र मुझको एक योगी की भांति का अनुभव दे जा रहा था,जहाँ इस दन्तशूल की प्रत्येक क्षण की अनुभूति के साथ मैं एक विशेष योग मार्ग पर गतिमान था,जहाँ मेरे सहचर के रूप में मेरा दन्तशूल,मेरा आत्मिक स्वरूप व इसके अनुभूत प्रयोग को अनुभूत करने वाली अनुभूति थी,एक आत्मिक अनुभूति,एक अनुभव जो मेरे इस भौतिक शरीर को तनिक भी मौखिक अभिव्यक्ति करने का सुअवसर देने को तैयार नहीं थी, जिस भाँति कौरव पाण्डवों को श्रीकृष्ण के समझाने पर भी पाँच गाँव,इस दन्तशूल ने कहें तो इस पीड़ा भी एक विचित्र सुखद अनुभूति करा रखी थी कि आपकी सहनशक्ति की परिसीमा क्या है,क्योंकि सहनशक्ति की परिसीमा,इसकी पराकाष्ठा ही तो इस बात का निर्धारक है कि आप कितने बड़े साधक हैं।

साधना का अभिप्राय ही होता है जो साधा जा सके,जो आपको असीम दुःख में भी सुख की अनुभूति करा जाए और इस साधना की पराकाष्ठा ही आपको एक महान साधक के रूप में स्थापित करती है,तो आइये इस दन्तशूल को जिसने इतनी पीड़ा पहुँचाई लोगों की तीक्ष्ण बाण का शिकार बनाया उसका भी हार्दिक अभिनंदन किया जाए,क्योंकि इस दन्तशूल ने आपको एक विशेष अनुभव जो प्रदान किया:-घनीभूत पीड़ा को सहने की,साधक की सच्ची परिभाषा को समझने में,साहित्यिक रसास्वादन करने में,लोगों को आपके लेखन कौशल की विलक्षणता को समझने में....

कृपया आप अपने इस भांति के किसी भी शूल अर्थात पीड़ा को किस भांति समझते हैं,आप अपनी विस्तारित,संक्षिप्त व सूक्ष्म प्रतिक्रिया अवश्य रखें,साथ में स्टोरी मिरर की टीम भी रख सकती है।



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