वो तिरंगा

वो तिरंगा

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ये उन दिनों की कहानी है जब भारत देश जंग में व्यस्त था। वो जंग जिसे कारगिल नाम से जाना जाता है।

सुनने और पढ़ने में तो जंग बड़ा अच्छा लगता है,पर जो जंग में होता है या गया हो जंग की वो आपको असली तस्वीर बता पाएगा। जंग यानि की मृत्यु और जीवन की काली तस्वीर।

उसके बाद भी भारत देश की मिट्टी में,यहाँ की हवाओं में सम्भवतः जोश की ,बलिदान की खुशबू मिला दी थी भगवान ,परमात्मा या उस ऊपरवाले ने...

तभी तो यहाँ पैदा हुआ बच्चा -बच्चा अपने खेलने के दिनों में जंग की कला सीखने का खेल खेलना पसन्द करता है। ऐसा समझ लीजिए कि यदि ईश्वर ने जन्म के तुरन्त बाद ही यदि उनमें चलने और भागने,बोलने व लिखने का सामर्थ्य दे दिया होता तो बच्चे जन्म लेने के साथ ही सरहद की ओर दौड़ जाते।शायद इसी जोश को

ध्यान में रखते हुए सरकार ने बड़े होने पर भी प्रशिक्षण व

परीक्षा का इन्तजाम किया हुआ है,क्योंकि यदि ऐसा न

होता तो भारत देश में हर दूसरा बच्चा फौज में होता।

क्या करें आखिर हमसब भी भारतीय हैं न! इसलिए भारतीय खून उबाल मार ही जाता है।

हमारे बड़े-बुजूर्ग चन्द्रशेखर आजाद,भगतसिंह ,खुदीराम बोस,सुभाष चन्द्र बोस सरीखे जो हुए हैं तो उनका भारतीय खून कुछ ही बूँद,कुछ कतरा ही सही उबाल तो मारेगा ही।

भारत के एक छोटे से गाँव सहना में जन्म लिया एक बच्चा समर्थ ।उसके जन्म के पश्चात घरवाले,आस-पड़ोस बहुत ही उत्साहित थे। सब समर्थ के पिता हरेन्द्रपाल और माता शमयन्ती देवी को बधाई दे रहे थे।

पूरे घर को दुल्हन की तरह सजाया गया था,हरेन्द्रपाल जी जो एक साधारण से किसान थे बहुत ही कठिनाईयों के साथ इस जश्न की तैयारी किए थे। पूरे घर में हँसी-खुशी का माहौल था आज ,हो भी क्यों न इस घर का आखिर पहला चिराग जो आया था ईश्वर के घर से यहाँ तक का सफर तय करके। बड़ा ही मुश्किल सफर तय किया था उसने।

नन्हा समर्थ माँ की गोद में लेटा-लेटा अपने आसपास हो रहे हलचल को इस तरह देख रहा था जैसे कि मानो वो

समझना चाह रहा हो इस दुनिया के लोगों को...

अपने जन्म से कुछ वर्षों के बाद जब समर्थ चलने-भागने लगा था और अपने हमउम्र साथी के साथ विद्यालय जाना प्रारंभ कर चुका था। विद्यालय से आने के बाद समर्थ कुछ देर,चाहे कुछ मिनट ही सही अपने घर में रखे टीवी०

को जरूर देखता था और उसे अभी से ही देशभक्ति की भावना वाली फिल्में देखना काफी पसन्द था।

हमलोगों ने यह सुन भी रखा है कि आप जिस प्रकार के माहौल में रहते हैं आप उसी प्रकार के हो भी जाते हैं।

सम्भवतः इसी प्रकार का कुछ घटित हुआ था समर्थ के

जीवन में भी ।

इन फिल्मों का उस पर इस प्रकार का प्रभाव पड़ा था कि वह अपने हमउम्र दोस्तों के साथ इसे खेल की तरह खेलने लगा था। घर में रखी एक चौकी पर दो कुर्सी रखकर उस पर चादर ढँककर ऐसा रखता था कि मानो वो हिमालय पर्वत हो।

बचपन के खेल बड़े निराले होते हैं मित्रों और अपने भारत देश की मिट्टी की बात ही बड़ी निराली है।

इसके थोड़े से हिस्से को माथे पर लगाने के लिए यदि जान भी चली जाए तो कोई बात नहीं ।

ये समर्थ भी तो इसी मिट्टी का था न मित्रों तो उसे इसकी खुशबू पसन्द न आए ऐसा हो ही नहीं सकता था।

समर्थ को खेलते देखकर उसकी माँ कभी-कभी परेशान हो जाती थी, होने का कारण भी बड़ा था क्योंकि जिस उम्र में बच्चे माँ या बाप के गोद में रहना या गुड्डा-गुड़ियों का खेल ,हल्के-फुल्के खेल खेलना पसन्द करते हैं।

समर्थ जंग की तस्वीर बना रहा था। वह अपने हमउम्र साथियों को इस प्रकार बतलाता था कि मानो वो फौज का कोई कमाण्डिंग ऑफीसर हो और उसके साथी उसके दल के सदस्य।

उसकी माँ ने एक बार सोचा कि आज मेरा काम सम्पूर्ण हो गया है और समर्थ के पिता भी खेतों से नहीं आए हैं, तो चलूँ जरा देख लूँ कि मेरा राजा बेटा क्या कर रहा है,कैसे खेल खेल रहा है।

दोस्तों यहाँ शमयन्ती के माध्यम से आपको यह बतलाना चाहूँगा कि कभी आपकी व्यस्तता खत्म हो जाए तो बच्चों को उनके खेल खेलते हुए कभी-कभी जरूर देख लिया करें क्योंकि ये खेल कभी-कभी उसकी आदत भी बन जाती है ,अच्छी हुई तो अच्छी आदत का पोषक बन जाती है और यदि गन्दी हुई तो आप में नकारात्मकता व बुराई का पोषण करती है।

शमयन्ती जब उनके खेल खेलने वाले कमरे में आई तो उनका खेल देखकर वो दंग रह गयी, सबने हाथ में कागज की बनी बन्दुक पकड़ रखी थी और समर्थ ने अपने पिताजी के अंगोछे(गमछे) को एक लकड़ी में इस प्रकार लगाकर रखा था मानो कि वो गमछा न हो वो कोई झण्डा हो क्योंकि एक बच्चे ने उसे हाथ में उठा रखा था और इस प्रकार उठा रखा था कि वो जमीन से न छूए और वो

बिल्कुल सावधान की मुद्रा में था।

उसकी माँ ने सोचा जरा देखूँ तो ये लोग और क्या-क्या

करनेवाले हैं। उन्होंने जब अपने बेटे समर्थ की आवाज यह कहते हुए सुनी," साथियों वो तिरंगा देख रहे हो,जो अपनी आन-बान और शान है उसे उसपर,वहाँ ऊपर लगाना है।" समर्थ ने चौकी पर रखे दोनों कुर्सियों की ओर इशारा करते हुए उन सबसे कहा था।

समर्थ की यह बात सुन..माँ उसकी थोड़ी परेशान भी हो उठी और गर्व दोनों हुआ उनको।

परेशान होने का कारण यह था कि एक छह-सात साल का बच्चा जिसे खिलौने से खेलना चाहिए वो इस प्रकार का खेल खेल रहा था जो खतरनाक भी था और दिलचस्प भी।

पर माँ को शायद समर्थ ने नहीं देखा था शायद इसलिए वह अपनी खेल में लगा हुआ था।उसके बाद उसने कहा कि दोस्तो हमें हर हाल में .30009 चाहिए।

चाहे हम जिएं या मरें, कोई शक !

सारे बच्चे एक साथ बोले नो सर! और वो सब

फौज की तरह ही समर्थ के बताए अनुसार करने लगे ।

उसकी माँ इन लोगों को कागज की बन्दूक और कागज

के बनाए बम के साथ इधर-उधर भागते देख रही थी। फिर समर्थ के आदेशात्मक वाक्य,"कम्पनी चार्ज! के साथ

सभी नीचे वहीं जमीन पर बिल्कुल ही फौज की तरह लेट गए थे। अब पहले से छूपे बच्चे जो सम्भवतः इस नाटकीय खेल में दुश्मन का किरदार निभा रहे थे मुँह से आवाज इस प्रकार निकाल रहे थे मानो वो बन्दुक की आवाज हो ।उसके बाद इस नाटकीय जंग में माँ ने जो देखा उसे देखकर उन्हें कभी-कभी इन नन्हें सिपाहियों के नाटकीय खेल में गोली लगने के बाद एक्टिंग में गिरने के

स्टाईल से कभी-कभी हँसी भी आ जाती थी,जिसे वो अपनी साड़ी के पल्लू से मुँह पर रख रोक लेती थी।

उसके बाद उन्होंने जो देखा वो देखकर उनको अब चिन्ता होने लगी थी क्योंकि अब उनका लाडला बेटा समर्थ इस बाल मोर्चा का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ रहा था वह जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ चौकी के किनारे यानि काल्पनिक कारगिल हिल के पीछे बच्चे ने उस पर गोली चलाने की एक्टिंग की और वह कुछ इस प्रकार एक्शन किया कि मानो उसके सीने पर गोली लगी हो ,वो कराहने की नाटक करते हुए फिर कुर्सी की तरफ बढ़ने लगा। इस बार उसने इस भाँति का नाटक किया कि मानो उसके पैर में भी गोली लगी हो और वो कराहने की आवाज के साथ अपने साथ लाए उस गमछी वाले झण्डे को जिसे उसने अभी सम्भवतः तिरंगा बना रखा था घसीटने का नाटक करते हुए कुर्सी की ओर बढ़ने लगा जो सम्भवतः कारगिल हिल था अभी ... और इस नाटकीय खेल में प्वाइण्ट 30009 था वहाँ पर उसने उस गमछी वाले झण्डे को लगा दिया.. और उसे इस प्रकार प्रणाम किया जैसे कि मानो वो तिरंगा हो।

समय ने अपनी द्रुत गति से अंगड़ाई ली और अब नन्हा समर्थ युवक समर्थ बन गया था।

बचपन के वो खेल,वो उसके द्वारा बनाई जंग की तस्वीर उसे अपनी ओर खींच रही थी और वो खींचा जा रहा था।

इसी कारण तो उसने अपने घरवालों को बिना बताए भारतीय सेना का भर्ती फार्म भर दिया था और उसका चुनाव भी हो गया था मानो नियति ने उसके लिए यह चुनाव पहले निहित कर रखा हो।

अब नन्हाँ समर्थ मेजर समर्थ बन चुका था और अब शुरू हो चुकी थी जंग और प्रस्तुत हो चुकी थी जंग की असली तस्वीर ..वो तस्वीर जो नाटक नहीं थी और इसमें जान का जोखिम असली था न कि खेल वाला।

अन्त में कारगिल विजय के दौरान समर्थ यानि की मेजर समर्थ ने अपनी वो तिरंगा लहराने की ख्वाहिश को पूरा करते हुए शहीद हो गया।


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