Bharat Bhushan Pathak

Abstract

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Bharat Bhushan Pathak

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मीठा दाँत

मीठा दाँत

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मैं प्रारंभ से ही विचित्र रहा हूँ,विचित्र अभिव्यक्ति देना,व्यंग्य करना मुझे पसन्द रहा है और वो भी व्यंग्य किस पर...अजी साहब!खुद पर और किस पर..अपना फंडा यही है कि घर का घर में ही रह जाय तो अच्छा।दूसरों पर करेंगे तो अधिक कुछ नहींमुस्तिका,चार फीते वाली चप्पल या सड़े टमाटर खाने पड़ सकते हैं,तो क्या घाटा का सौदा नहीं हुआ!एक बार प्रयत्न भी किये थे कि कुछ मंगल कार्य कर आएं,तो बंधु कवि धर्म निभाने भटक लिए यही परसों-तरसों की बात है।एक महोदय ने अपनी एक रचना लिखी और शीर्षक दिया विधाता छंद में मेरी तुच्छ प्रयत्न फेसबुक देवी को समर्पित,साथ ही मात्रा भार जो लगाया वो कमाल था ३२ मात्रा,हम भी दिमाग लड़ाने लगे कि करें तो क्या करें।पहले प्रोफाईल जाकर चुपके से झाँके बड़े-बड़े मूँछों वाला लम्बा-सा आदमी।कहीं पटक- उटक दियातो ,पर कवि-कवि भी भाई-भाई होते हैं न!


इसलिए साहस किया और टोक आए फेसबुकिया सम्मान देते हुए जिसके अनुसार किसी को भी आदरणीय व आदरणीया कहना होता है,आपकी अपनी छोटी बहन भी क्यों न हो।तो उस महापुरुष को टोंक दिए आदरणीय जी यहाँ पे मात्रा भाग रही है,वो वहाँ तो कुछ नहीं बोले पर मैसेन्जर में एक स्वर सन्देश प्रेषित किया आदरणीय जी बताने के लिए धन्यवाद अभी ठीक करता हूँ,बोले तो बेचारे सही ही पर उनका रौबीला अंदाज आज भी मैसेन्जर जब खोलता हूँ तो बरबस ही डर जाता हूँ,इसलिए भैया इस अच्छे गुण कापरित्याग कर दिया।अब अपने पर ही व्यंग्य ठीक है,अपना मार्गदर्शन ही ठीक है।

तो चलिए अपनी अंकनी की बात की जाए...बेचारी एक कोने में पड़ी हुई थीउसकी साथी काॅपी कहीं दूर पड़ी थी।


बेचारी अंकनी उसे टकटक देखी जा रही थी,ऐसा लगता था कि वो उसे क्षणभर के लिए भी अपने आँखों से दूर नहीं देखना चाहती थी।ऐसा लग रहा था वो मुझे कुछ कहना चाह रही हो कि ओ मीठी दाँतवाले!उसके द्वारा संभवतः किया गया ये संबोधन मुझको भी आश्चर्यचकित कर गया।पर जिस भाँति आजकल के बाबा दो मिनट का ध्यान करा सबकुछ उड़ा जाते हैं और आपको यह भान होता है कि आपका जो भी गया, वो आपका नहीं था।अजी आपका होता तो आपको मिल न जाता,इसलिए समझ लीजिए कि आपने पुण्य कमाया है,"नेकी कर दरिया में डाल"।इसलिए मैं भी सोचा कि चलें देखें कि क्या बात है तो अंकनी महोदया को हाथ में लिया तो हाथ असहयोग आन्दोलन का संकेत दे गया,बिल्कुल वैसी ही अनुभूति हुई किआपको किसी से संपर्क करने के लिए आपकोपुनः रिचार्ज की आवश्यकता है।

तब पुनः साहस कर जब अंकनी महोदया को जब हस्त में धारण किया तो पता लगा कि वो सूख चुकी हैं अर्थात स्याही सूख चुकी थी।फिर दुकान से एक रिफील जो आधुनिक काल की अंकनी जिसे स्याही कहते हैं लेकर आया जब अंकनी में वो प्रविष्ट हो गयी,तब उसमें जान में जान आया,उसे जब इतने सालों के पश्चात जब पकड़ा तो वो सहयोग करने को तैयार नहीं थी,अभी भी मूड ठीक नहीं हुआ था महोदया का।बड़ी कठिनाई से थोड़ा बात मानकर चलना प्रारम्भ तो की,पर हस्तलिपि ऐसी प्रतीत हो रही थी कि मानो कोई नन्हाँ बालक पहली बार अंकनी का टेस्ट ड्राईव कर रहा हो,आड़ी-टेड़ी धुँधली -सी लाईनें,कहीं-कहीं टिमटिमाती चाँद-सी।ऐसा लग रहा था महात्मा गाँधी ने इसे भी असहयोग आन्दोलन का पाठ पढ़ा रखा हो... बहुत आरजू मिन्नत करने पर थोड़ी चली वो. 

 फिर रूक गयी...बस इतना ही लिख पायी वो.. अरे मीठी दाँत वाले तुम्हारे इतने मीठे दाँत कैसे हैं,जानते हैं सज्जनों उसके भाव मुझे ऐसे क्यों लग रहे थे,क्योंकि अक्सराँ किसी साहित्यकार की अत्याधुनिक सुविधा वाली मोबाईल व लेपटाॅप में उसके कर्सर से लिखी रचना को कहता आया हूँ,आदरणीय आपकी लेखनी को नमन!क्या उन्होंने लेखनी से लिखा...या कर्सर से...मैं तो कहूँगा कर्सर से ही लिखा है,हाँ यदि अंकनी से उसने पहले यदि कभी काॅपी में लिखी होती, तो अवश्यमेव उसने अंकनी के साथ न्याय किया है तब उसे चौदह तोपों की सलामी देकर कहा जा सकता है कि आदरणीय आपकी लेखनी को नमन शत् शत् नमन,बारंबार नमन ।पर क्या केवल मोबाईल व लैपटाॅप में केवल कर्सर से लिखनेवालों को ऐसा कहना न्याय होगा या अन्याय ये आप पर छोड़ता हूँ।

साथ ही वैसे लोगों से मैं पूर्णतः सहमत नहीं हूँ जिसे किसी भी महिला के साथ यदि कुछ गलत हो जाता है तो कहते हैं महिलाएं अपनी पहनावे पर ध्यान दें,उनकी अमुक पोशाक ने उसके साथ ऐसा होने दिया,तो हुजूर महाभारतकाल के बारे में क्या ख्याल है आपका।उस समय तो बड़ी शालीन पोशाकें होती थी..तो भी द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई ।हाँ ये बात और थी कि उस समय श्रीकृष्ण आए थे...पर क्या हम पर्दा प्रथा का पालन कराने वाले पुरूषों को महिलाओं को इतना छूट नहीं देनी चाहिए कि वो अपने साथ दुर्व्यवहार करने वाले दुशासनों को समूल उखाड़ फेंकें।

साथ ही यहाँ भी भेदभाव अक्सर देख पाता हूँ छोटे शहरों,गाँवों में हुए इस तरह की घटनाओं का कहीं व्यौरा तक नहीं दिखता,जबकि ऐसे अपराध वाले बड़े शहरों का व्यौरा होता है।मेरी संवेदनाएं उन शहरों के प्रति भी है पर छोटे शहरों के लिए भी।उस झोंपड़ी के लिए भी जहाँ वो अकेले रहती थी और अब उस घर की तुलसी भी सूख गयी है और उस जली हुई चूड़ियों को कभी अपने हाथ में पहनने वाली उस बेटी से भी मेरी पूर्ण संवेदना है।ऐसी बेटियों को और आज की बेटियों को समर्पित करता हूँ ये रचना:-

तांटक छंद विधान:-१६-१४ मात्रा पर यति तथा अन्त में तीन गुरु अनिवार्य,

चार चरण समतुकान्त:-

न रोना कभी दर्द दिखाना,पकड़ो कटार हाथों में।

बेटी मेरा कहना मानो,नहीं प्राण है काठों में।।

बेटी तुम सच्चाई जानो,भान करो खुद की बोलो।

नहीं हारना तुमको बेटी,लावा जैसे तुम खौलो।।

डरना नहीं कभी तुम बेटी,तुम गरदन इनकी तोड़ो।

बुरी नजर से कोई देखे,आँखें तुम उनकी फोड़ो।।

सुनो बेटी!बात ये मानो,विचार ये करना होगा।

हाथ कभी जो छूने आए,अब कसकर धरना होगा।।

तभी तो कहा मैं मीठा दाँत वाला हूँ,

अर्थात मीठा बोलने वाला जो चुभे!



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