संस्कार वृक्ष
संस्कार वृक्ष
सज्जनों एक बार की बात है एक विदर्प नाम के महात्मा अलकनंदा के पावन तट के समीप से होकर कहीं जा रहे थे। उन्होंने वहाँ
से जाते हुए देखा कि लगभग ग्यारह वर्ष की बालिका अपनी अंजुली में उसी अलकनंदा के पावन जल को भर कर वहाँ पास में गढ़े एक सूखे पौधे को उस अंजुली में भरे हुए जल से भिगो रही है।
महात्मा विदर्प को यह देखकर एक बार तो हँसी आ गयी और वो जोर-जोर से हंसते हुए उस बालिका से इस प्रकार कहने लगे कि बेटे! आप ये कौन -सा खेल, खेल रहे हो पर उस बालिका ने उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया और वह बार-बार भाग-भागकर अब उस पूर्णतः सूखे हुए पौधे को उसी प्रकार अंजुली में भरे उस पावन अलकनंदा के जल से सिञ्चने लगी। पर महात्मा के प्रश्न का उसने जब कोई प्रत्युत्तर न दिया तो वे वहाँ स्वयं आकर उसे मध्य में रोकते हुए बड़े ही प्यार से पुनः बोले कि बेटे !
आपने बताया नहीं कि सर्वप्रथम आप कौन हो ? किसकी पुत्री हो और यह क्या कर रही हो तब भी उसने इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया और वो उसी प्रकार अंजुली में जल भरकर उस सूखे पौधे को सिञ्चना और तेजी से प्रारम्भ कर दिया और बार-बार महात्मा के अनुग्रह करने पर इस प्रकार बोली कि, "हे महात्मन् ! मैं इस वसुंधरा की पुत्री भारती हूँ और मैं इस सूखे हुए पौधे को सिञ्चकर इसमें प्राण फूँक देना चाहती हूँ।
जिससे कि मेरे कुछ क्षणों में बूढ़ी हो जाने पर ये पूर्णतः पुष्पित हो सके। हे महात्मा मेरे इस प्रकार से सिञ्चने से ये सूखा पौधा कभी तो फला-फूला संस्कार वृक्ष बन पाए। महात्मा विदर्प को उस ग्यारह वर्गीय बालिका की यह वार्ता सुन बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये बालिका जो संभवतः अभी उतनी बड़ी भी नहीं हुई कि ज्ञान -परिपक्व वार्ता करने में सक्षम हो और ये कह रही है कि मुझे कुछ क्षणों में बूढ़ी हो जाने से पहले इस सूखे हुए पौधे को सिञ्चकर संस्कार वृक्ष बनाना है।महात्मा विदर्प को प्रतीत हुआ कि ये बालिका उनसे परिहास कर रही है।
क्या ऐसा भी भला होता है, वो उस बालिका से क्रुद्ध होने का नाटक करते हुए बोलने को ही हुए कि मुझे इस प्रकार का परिहास करना पसन्द नहीं..... तभी उन्होंने देखा कि वो बालिका कुछ क्षणों में बड़ी होकर शीघ्र ही बूढ़ी हो गयी और काँपते हुए महात्मा से बोली कि, "हे महात्मन् मैंने जो भी आप से कहा वो सारी बातें पूर्णतः सत्य थी। अब मेरे पास उतना समय नहीं शेष है कि मैं आपको विस्तारपूर्वक कुछ समझाऊँ। परन्तु अब मैं जो कहती हूँ, उसे आप ध्यान से सुने! अब आपको इसी प्रकार के संस्कार वृक्ष को संसार में रोपित करना है, जिसमें आप अपने ज्ञान, विवेक, क्षमा, त्याग, दया व प्रेरणा सदृश्य जल का छिड़काव करें और मेरे अधूरे कार्य को अब आप पूर्ण करें, इस संस्कार वृक्ष में ज्ञान रूपी जल का छिड़काव होने से इसमें समझ रूपी शाखा का विस्तार होगा, तत्पश्चात इसमें त्याग रूपी जल का छिड़काव करें इससे इस वृक्ष में तप रूपी शाखा का विस्तार होगा और आप ही नहीं इस संसार के समस्त मानव समुदाय को इस संस्कार वृक्ष के रोपण में मेरी सहायता करनी होगी।
सज्जनों संभवतः हम भी इस संस्कार वृक्ष को रोपित, पुष्पित व पल्लवित करने में प्रयत्नरत हैं और हमें रहना होगा ताकि हम इस संसार में एक विशाल संस्कार वृक्ष का रोपण कर सकें जिससे समस्त संसार में आनन्द सादृश्य फल भरपूर मात्रा में संचयित हो पाए।
सज्जनों वो बालिका हमारी माँ भारती थी, जिसने हमें बस मार्ग दिखा दिया था,परन्तु हम आज हमसब में हुई संस्कारों, लोगों के प्रति सम्मान, उनकी प्रति हमारी संवेदनाएं का विलोपन होता जा रहा है जिससे ये माँ भारती द्वारा रोपित संस्कार वृक्ष सूखता जा रहा है। आइये सज्जनों इस संस्कार वृक्ष को सूखने से बताएं। इसके पहली शाखा का विस्तार मातृस्वरूपा हिन्दी गङ्गे का छिड़काव कर प्रारम्भ करना होगा। आइये इस संस्कार वृक्ष की मिलकर हम स्थापना करें।
