Sarita Maurya

Abstract

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Sarita Maurya

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चना रे चना

चना रे चना

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उफ् ! अहा हाँ !

कितनी प्यारी महक नाक में घुसी जा रही है, ऐसा लग रहा है जैसे कहीं कुछ भूना जा रहा हो। संजय ने मन ही मन सोचा और खुश्बू की दिशा में नाक घुमाने लगा। पूरे मुहल्ले में अगर कहीं भी कुछ भी भूना जाता तो वह खुश्बू से पहचान लेता कि आज किस के घर में गेहूं की हरी बाली भूनी गई है तो जुराखन काका के घर पर ज्वार के भुट्टे भूने जा रहे हैं या कि उसके आंगन में आलू का होला लगा हुआ है। संजय को भुना चबैना इतना पसंद था कि अम्मा उसके लिए मौसम के हिसाब से हर चीज़ घर में मौजूद रखती थीं। अरिया चावल और कुड़ैला चावल से लेकर भटवांस, मटरी, मोठ, अरहर, मक्का, ज्वार, खील, मटर, गेहूं की गुड़धनिया, बाजरा सब कुछ।

उसे लगता कि अम्मा को कुछ भी मांगा जा सकता था और उनसे कभी न भी नहीं निकलती थी। पर साथ ही वो सपने भी देखता था जिसकी उसे सख्त मनाही थी और उसे उन सपनों पर प्रयोग करने का अधिकार तो बिल्कुल नहीं था जो उसे करना बड़ा पसंद था। कई बार प्रयोग भी ऐसे हो जाते कि मां की विशेष कृपा का प्रसाद उसके हिस्से आ जाता। कभी ज्वार की करबी से तो कभी अरहर की डंडी से अकसर प्रसाद मिल ही जाता था। अब संजय अम्मा को कैसे बताये कि उसे अनुशासन में रहना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

अब मिठाई जैसी खाने की चीज को अगर ताले में रखा जायेगा तो इंजीनियर बनकर संजय को दूसरी चाबी भी बनानी पड़ेगी नही ंतो मिठाई का स्वाद कैसे मिलेगा? अभी पिछले हफते अम्मा मेले से मिठाई लाईं तो उसे छिपाकर रख दिया कि सब बच्चों को बराबर -बराबर बांटी जायेगी। बर्फी और गुलाबजामुन कम खा कर तो मजा भी नहीं आयेगा। अम्मा को कैसे बताया जाये? इसीलिये तो छिपाकर खानी पड़ी। अब पता नहीं अम्मा को कहां से पता चल गया और बस उठाई बेशर्म की डंडी और पीट दिया दनादन। बोलीं ‘‘ आधे में अधघर और आधे में सबघर’’ ये ठीक नहीं नालायक। आगे से चोरी न करने की कसम खानी पड़ी और सबके सामने जलील भी होना पड़ा सो अलग।

अब आज भी भुने चनों की महक संजय को बेचैन किये दे रही थी। वैसे भी उसका बड़ा मन था कि वो बड़ा होकर भुजवा यानी चबैना भूनने वाला बनेगा ताकि उसको अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट अनाजों का स्वाद मिलता रहे। धीरे-धीरे चने की खुश्बू ने संजय को इतना बेचैन किया कि आंगन में खुरपी से एक छोटा सा खड्डा जिसे भाड़ कहा जाता था खुदकर तैयार हो गया। इतना ही नहीं मटकी से चने ढूंढे गये और एक दूसरी टूटी मटकी को बालू डालकर कड़ाही बना दिया गया। अब लकड़ियां जला कर भूनने का काम शुरू हुआ और साथ ही छुटकी को हिदायत दे दी गई कि वह बाहर का ध्यान रखे और अम्मा को दूर से देखते ही भाई को खबर करे।

भुनते हुए चनों की मस्त खुश्बू छुटकी को भी अंदर खींच लाई। लेकिन खाली चने ...?

संजय ने थोड़े से चावल भी भूनने की सोची, वैसे भी अम्मा के आने की खबर तो छुटकी दे ही देगी और जल्दी से सब बंद कर दिया जायेगा। छुटकी को आधे मन से वापस बाहर भेज दिया गया कि वो कुएं के पास खड़ी होकर सारे रास्तों पर नज़र रखे। अभी चावल और चने भून कर मिलाये ही थे कि छुटकी चिल्लाई ‘‘दद्दू अम्मा आ रही हैं,मेड़ तक आ गई हैं।’’ ओह अब क्या हो! अम्मा तो जल्दी आ गईं। ये छुटकी भी न! पगली पहले से नहीं बता सकती थी? अगली बार से इसके भरोसे कोई काम नहीं होगा। संजय ने जल्दी से जलते हुए खड्डे को मिट्टी से भरा और मिट्टी की कड़ाही को नीम के पीछे छिपा दिया। ये क्या अम्मा तो बाहर के दरवाजे तक आ गई थीं।

अरे ! गरम -गरम चने कहां रखे जायें? संजय ने झट से चने की डलिया उठाई और कुछ अपनी शर्ट में तो कुछ अपने पाजामे की जेब में भर लिया। उधर छुटकी ताली पीट-पीट कर अपने भाई के न पकड़े जाने की खुशी में चिल्लाये जा रही थी ‘‘अम्मा हमने चने नहीं भूने, हमने चावल नहीं खाया’’..। जैसे ही अम्मा ने आंगन में कदम रखा तब तक गरम-गरम चनों की जलन के मारे संजय के सब्र का बांध टूट चुका था। वह जोर से कूदा और अपनी जेबों को झटक दिया। भूरे-भूरे पीले-पीले खिले चने आंगन में चारों तरफ बिखर गये। संजय जलन के मारे कूद रहा था। छुटकी का राग बंद हो गया। वह इतना ही बोली ‘अम्मा चना......’ और जमीन पर बिखरे चनों को बीन-बीन कर खाने लगी। और अम्मा ! हा ! हा ! हा। सोचिये साथियों फिर क्या हुआ। भूरे-भूरे,पीले खिले-खिले गरम चने।


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