और रात रोती रही
और रात रोती रही
डियर डायरी
आज एक बार फिर कन्हैया और माता यशोदा की कहानी याद आ रही है। वो उदाहरण के लिए दुनिया की पहली और आखिरी मां थीं जिन्होंने कृष्ण को इतना स्नेह और दुलार दिया कि वे नंदलाल बन गये। दूसरी याद आती है मेरी मामी जो यशोदा भले ही न रहीं लेकिन उनका कर्म किसी यशोदा माता से कम नहीं था। कैसे भूल सकती हूं कि उन्होंने अपने एक स्तन से अपनी पुत्री को दूध पिलाया तो दूसरी का मुझे पिलाया ताकि मैं मां से दूर पल रही बच्ची जिंदा रह सकूं। इस तरह उन्होंने एक नहीं दो बेटियों की रक्षा की। एक तरफ मां मुझे छोड़कर मेरी बीमार बहन की देखभाल कर रही थीं तो दूसरी तरफ मेरी मामी माता का दोहरा फर्ज अदा कर रही थीं। उन्होंने उस कहावत को सार्थक कर दिया था कि मामी और मामा में दो बार मां शब्द आता है इसीलिये बच्चे इस रिश्ते के ज्यादा करीब होते हैं।
समय चक्र ने एक बार फिर 40 वर्षों बाद पहिये को वहीं पर लाकर खड़ा कर दिया। सिर्फ उम्र का फर्क और किरदारों का व्यक्तित्व बदल गया। मेरी जगह मेरी पुत्री ने ली और मेरे मामा-मामी की जगह उसके मामा-मामी थे। मेरी मामी की पुत्री मेरे ही बराबर थी लेकिन बेटी के मामा-मामी की पुत्री और पुत्र उम्र में उससे इतने बड़े थे कि अपने-अपने रोजगार में लग चुके थे। मेरी मामी के पास रहने के लिए कच्ची-पक्की कोठरियां और एक दो कमरे थे लेकिन बड़ा सा आंगन था, घर में बड़ी पुरानी साइकिल थी और खाने के लिए खेतों में की गई मेहनत थी। जबकि उसकी मामी के पास रहने को दो मंजिला मकान, एक छोटा सा आंगन , चलने को एक-दो चार पहिया, दो तीन दोपहिये और शायद सोने के दो चार सेट भी होंगे। मेरी मामी के बच्चे मेरे साथ धूल में लोटकर बड़े हुए थे और उसकी मामी के बच्चे शहरों के बंद कमरों में बड़े हुए थे। हां जहां तक मुझे पता है रोटियां नहीं बदलीं वो पहले भी अन्न की ही थीं और अभी भी अन्न की ही हैं।
मुझे याद आता है वो पल जब हम दोनों बहनें अर्थात मामी की बेटी और मैं लड़ते थे तो मामी दोनों को बराबर कुछ नहीं कह पाती थीं या फिर मामा से दोनों को ही डांट खानी पड़ती थी। याद नहीं कि ममेरे, मौसेरे या किसी भी रिश्ते से आज तक कोई भी ऐसी लड़ाई हुई जिसे सुलझाया नहीं जा सके। कैसे भूल सकती हूं कि खेलते-खेलते हम बच्चे आपस में झगड़ पड़े बहन और छोटे भाई ने मुझे हाथ से पीटा तो मैंने भी बहन की पीठ पर अपना गन्ना भद्द से दे मारा। सारे भाई बहनों को लड़ाई न करने की सीख के साथ एक जैसी डांट पड़ी। जीवन के वे सुखद सात साल आज भी इतने संजोये से पल लगते हैं कि बार-बार उसी गांव की मिट्टी में जाने का मन करता है। आज भी जब कभी बाहर की दुनिया में मामी कदम रखती हैं तो सबसे अधिक भरोसा मुझपर ही करती हैं। कोई परेशानी होती है तो कहने में संकोच नहीं करतीं। मां के जाने के बाद भी यूं लगता है कि मेरी यशोदा मां अभी तक मेरे पास हैं और मैं उनकी छाया में सुरक्षित हूं।
खैर बात इतनी सी ही थी कि उसके मामा के बच्चे भी बचपन में हम भाई बहनों की गोद में पले-बढ़े। हां उनके बड़े होते न होते जीवन जीने की धारा ने हमें घर से और तन से जरूर अलग कर दिया लेकिन बरसों तक ये कमी अंदर सालती रहती कि मैं अपने भतीजे-भतीजियों से इतनी दूर हूं कि उनका ठीक से बड़ा होना भी नहीं देख सकी। फिर समय ने एकाएक मौका दिया तो लगा अरे ये तो वही मेरे अपने बच्चे हैं जिनके लिये इतनी तड़प रही थी। अब इन सबके बीच में मेरी बेटी भी कुछ दिन गुजार लेगी तो उसे भी अकेलेपन के अहसास से सुरक्षा मिलेगी। और शायद मां के दुनिया से जाने के बाद न चाहते हुए भी उसे कुछ दिन के लिए अपनी नौकरी की मजबूरी वश उसे उसकी मामी के पास छोड़ा। नजरिया यही था कि चूंकि समय परिवर्तन हो चुका है तो भले ही वो अपने मामा-मामी के घर पर रह रही हो लेकिन बच्चों को किसी अन्य रूप में उपहार देकर शुक्रिया बोल दूंगी। यही सब समझा कर बेटी को परीक्षा देने के लिए राजी किया और उसके मामा से गुजारिश की कि परीक्षा समय तक वह उनके साथ रहेगी। सप्ताह भर नहीं बीता था कि उसकी मामी की फोन पर शिकायतें आनी लगीं तुम्हारी बेटी के दोस्त आते हैं, वो समय पर नहीं आती, खाना खाने के लिए बुलाना पड़ता है, आज आयेगी या नहीं, उसने चाभी खो दी, कोई हादसा हो जाये तो और न जाने क्या-क्या। मुझे आत्मग्लानि हो रही थी कि मैं उसे क्यों छोड़कर आई। उसी बीच छुट्टी के दिन वह घर पर बताकर गई कि पास में ही रहने वाली मेरी बचपन की सखी कम बहन अधिक यानी अपनी मौसी के घर मुँहबोली नानी से मिलने चली गई। बावजूद इसके कि मुझे भी पता था और सबको पता था कि एक ग्यारह बारह वर्ष की बच्ची को सिवाय स्नेह, परिवार और थोड़े से अपनेपन के अलावा और कुछ भी नहीं खींचता। वो ऐसे रह रही थी मानो सारी उम्र के लिए एक परिवार पर बोझा बनाकर लाद दी गई हो। वह मामी की बातों और डांट को ये सोचकर नज़रअंदाज़ कर देती थी कि जाने दो बड़े तो ऐसे ही डांटते बोलते हैं और मां भी होतीं तो डांट देतीं फिर क्या होता? तब भी तो वह बच्ची ही थी।
उसे उस घुटन भरे माहौल में नींद नहीं आ रही थी फिर भी वह चुपचाप लेट गई क्योंकि उसके पास कोई चारा नहीं था। अपनी मां की यादों और बातों में खोई वह बच्ची सोच रही थी कि कोई किसी का भाई बहन नहीं होता अब वह कभी किसी रिश्ते के घर पर रुकने की अपेक्षा हॉस्टल या कहीं और रुकना ज्यादा पसंद करेगी। इसी बीच उसकी दृढ़ता को बल मिला जब उसने अपने बड़े भाई-बहनों को आपस में बात करते सुना-जैसी इसकी मां, वैसे ही ये भी है दिमाग से पैदल! मां भी कुछ भी सही नहीं कर सकती और बेटी भी। बात यहीं तक होती तो गनीमत थी! चर्चा रूकी नहीं और तमाम बातों के साथ उस भाई के मुंह से अपनी मां के लिए भद्दी सी गाली सुनकर उसकी रही सही हिम्मत और धैर्य दोनों जवाब दे गये, जिस भाई को वो अपना पढ़ाई और मेहनत का आदर्श मानती थी। बड़ी बहन ने उसमें और जोड़ा ‘‘इसकी मां तो चाहती है कि बेटी दूसरों के पैसों पर पलती रहे’’। जाने कितनी ही ऐसी बातें जो उसे नहीं सुननी चाहिये थीं, वह सोने के नाम पर सुनती रही, आंखों से अश्रु धारा प्रवाहित होती रही और अपने आपको कोसती रही कि मेरी मां के बारे में मेरे भाई-बहन इतनी घिनौनी बात कैसे सोच सकते हैं, बोल सकते हैं? वो भी तब जब मेरी मां हमेशा कहती हैं कि मैं अकेली नहीं हूं ये मेरे बड़े भाई बहन हैं, ये मुझे जीवन की दिशा देंगे, इनके रहते मुझे भाई बहनों की कमी नहीं खलेगी।
मां की बात मानूं या जो अपने कानों से सुन रही हूं अपनी आंखों से देख रही हूं। मां को कैसे बताऊं कि वक्त ही नहीं रिश्तों के मायने भी बदल चुके हैं, परिवेश और सफलताओं के पैमानों में सरलता और रिश्तों की परिभाषा बदल चुकी है। अंदर ही अंदर उसकी घुटन उसके मासूम मन को छलनी किये जा रही थी। वह भाग जाना चाहती थी! चीख-चीख कर कहना चाहती थी कि आप लोग गलत सोचते हैं, गलत कह रहे हैं, मेरी मां का स्वाभिमान सदैव देने में रहा है लेने में नहीं। लेकिन रात चुप थी, बिस्तर का किनारा था, सांसों की आवाज़ भी तेज करना गुनाह था, बात का बतंगड़ बनने का डर था ऐसे ही न जाने कितने भयावह खयालों को मन में संजोये उसने करवट भी न ली। वह मासूम रात यूं कोने में छौने की तरह दुबक कर रोती रही, रोती रही। क्या पता आने वाले समय में खुले आसमान में चांद तारे मुस्कुरा उठें।