Sarita Maurya

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4.4  

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परधानिन

परधानिन

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उनके पति पंचायत के प्रधान थे, इस नाते उन्हें सभी लोग परधानिन के नाम से संबोधित करते थे, कोई परधानिन भाभी कहता तो कोई चाची! वे भी यथायोग्य रिश्तों की मर्यादानुसार उसका निबाह करती थीं। गेहुंआ सा चेहरा, माथे तक घूंघट और घूंघट से झांकती लाल रंग की गोल बिंदी उन्हें ऐसी सुंदरता प्रदान करती थी कि बरबस ही सादगी सौम्यता और नम्रता ने मानो सशरीर आकार ले लिया हो। श्रेष्ठा होने का गुमान उन्हें छू तक नहीं गया था। उस समय की प्रथा के अनुसार घर की चौखट से बाहर कदम रखने से पूर्व मलमल की चादर अपनी साड़ी पर डालना कभी नहीं भूलती थीं ताकि गांव की प्रथानुसार स्त्रीसुलभ मर्यादा बनी रहे। उनकी स्वयं की दो पुत्रियां एवं दो पुत्र थे जो उम्र में प्रिया से काफी बड़े थे, इतने कि वह सबसे छोटी साधना दीदी के साथ भी खेल नहीं सकती थी। एक ही गांव लेकिन जिज्जी का ससुराल पक्षीय क्षेत्र होने के कारण प्रिया से उनके दो रिश्ते थे एक तरफ वह प्रिया की भाभी लगती थीं तो दूसरी तरफ बड़ी जिज्जी। वह जब भी उधर जाती तो जिज्जी हिदायत देतीं- या तो उसे उनके यहां दही देने जाना होता था या फिर लेने। वो जब भी वहां पहुंचती तो मानों उन्हें खुश्बू आ जाती और उसकी पसंद का दही, लड्डू या ऐसे ही अन्य खाने-पीने के पदार्थ उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते। वो नन्हीं प्रिया से इसरार करतीं कि वह उनके साथ बातें करे, आंगन में खेले और फिर उसकी हर बात पर हंसतीं, जब वह जाने को उद्दत होती तो फिर उसके लिए कुछ नई खाने की सामग्री अपनी बेटी से मंगवाकर रोकने के प्रयास करतीं। बालसुलभ प्रिया को अपनी जिज्जी के घर की बजाय बड़ी जिज्जी यानी परधानिन भाभी का घर अधिक अच्छा लगता था। एक दिन उसने अपने बड़ों से सुना कि काफी दिनों से वो बीमार रहने लगी थीं, पता चला उन्हें कोई बीमारी हो गई थी, ऐसी बीमारी कि प्रिया का उनके घर जाना लगभग छूट गया।

आज मेघों ने मानों एक अलग ही रूप ले लिया था और न थमने की कसम के साथ बरसे चले जा रहे थे मानों धरा को जलमग्न करके ही मानेंगे। चादर के अंदर भी ठंड से सिकुड़ती नन्हीं प्रिया को ठीक से नींद नहीं आ रही थी और जागने का मन भी नहीं कर रहा था, तभी उसे लगा कि उसकी चारपाई के पास स्टूल पर कोई बैठा हुआ था। वह कुछ बोल पाती इससे पहले ही परधानिन भाभी की आवाज उसके कानों में टकराई, वो उसके सर पर स्नेहसिक्त हाथ रखे पूछ रही थीं कि वह उनसे मिलने क्यों नहीं गई, वो तो कब से उसकी राह देख रही थीं। फिर खुद ही बोलीं कोई बात नहीं लो मैं ही आ गई, और हां जब भी तुम्हें मेरी जरूरत हो बुला लेना मैं आ जाया करूंगी बेटा, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं। प्रिया उनकी लाल गोल बिंदी के बारे में पूछना चाहती थी और जानना चाहती थी कि वह उसे इतना प्यार क्यों करती थीं? अचानक उसे अपने कान में घरवालों की आवाजें सुनाई देने लगीं, इससे पहले कि वह परधानिन भाभी से कुछ पूछ पाती उन्होंने उसके सिर पर आर्शीवाद और स्नेहसिक्त हाथ फेरा, बांहें फैलाईं और गायब हो गईं। प्रिया की नींद टूटी तो वो पसीने-पसीने हो रही थी। पता चला कि उस रात सबकी लाडली परधानिन हमेशा के लिए सो चुकी थीं, शायद एक नवजीवन की शुरूआत के लिए। परधानिन भाभी की समाधि उसी रास्ते में पड़ती थी जिस रास्ते से उसे विद्यालय जाना होता था। जाने क्यों कई बार उसे ऐसा लगता कि जैसे वह दो घड़ी रूक कर उन्हें पुकारेगी तो वो पक्का उसकी आवाज सुनकर मुस्कुराती हुई समाधि से बाहर आ जायेंगी और कहेंगी ‘‘हां बेटा, कैसी हो’’? लेकिन बाकी बच्चे वहां से गुजरते समय अपनी चाल तेज कर लेते कि कहीं परधानिन भूत बनकर उन्हें पकड़ न लें। घीरे-धीरे पूरे गांव में प्रसिद्ध हो गया कि परधानिन फुलवारी में भूत बनकर घूमती थीं। परधानिन भाभी ने दुनिया से जाने के बाद भी जैसे उसका मोह नहीं छोड़ा था तभी तो जब कभी वह उदास होती वो उसके सपने में आकर उसे ढाढस बंधाया करतीं और कहतीं कि वे कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ेंगी। वो समझ नहीं पाती थी कि उसके साथ ऐसा क्यों होता था? और जो उसके साथ घटित होता था क्या वह औरों के साथ भी होता था? 



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