संस्मरण- दो कलेजे
संस्मरण- दो कलेजे
बाड़मेर की बात हो! तिसपर खाने की बात हो और मुझे दो महान आत्माओं की याद न आये तो ये बाड़मेर के प्रति मेरा प्रेम नहीं बल्कि कृतघ्नता होगी। क्योंकि सच है हकीकतो के इर्दगिर्द ही कहानियां बुनी जाती हैं। बस अंदाजे़बयां अपना-अपना होता है। तो चलिये मिलते हैं असली बाड़मेर के बाशिंदों से जो दिल ही नहीं आत्मा जीतने का हुनर जानते हैं।
हलकी ठंड का मौसम था और हमारी टीम महानरेगा कानून के प्रचार-प्रसार के लिए गांव-गांव विचर रही थी। नियमतः टीम के हर सदस्य को रात्रि विश्राम और खाना दोनों ही ग्रामीण परिवेश में समुदाय के साथ उनके घर पर ही करना होता था। ऐसे में स्वेच्छा से जो सदस्य हमें आमंत्रित करते थे उनके घर पर टीम का एक सदस्य जाता था। उद्देश्य था कि उस गांव की जमीनी हकीकत से रूबरू हुआ जाये और प्रशासन को सत्य से अवगत कराया जाये। एक नियम जिसका हमें सख्ती से पालन करना था वो ये कि किसी भी सदस्य को किसी भी धनी या श्रेष्ठि वर्ग के घर जाना वर्जित था। वर्ष 2008 की उस रात जिस घर के बाहर मेरा रूकना हुआ, उसने मेरे जीवन की दिशा बदल दी।
आपसे जरूर मिलाना है ऐसे दो महान कलेजे वालों से ।
हमारी टीम को एक दिन में 3 से 4 गांव भ्रमण करना होता था और संध्या समय जो अंतिम सूचना गांव होता था वहीं टीम को उस रात्रि का विश्राम करना होता था। 2008 की उस संध्या को हम पत्थर खनन के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र जूनापतरासर में रूके। दिनभर के कठिन परिश्रम के बाद जब शाम को रूकने की बारी आई तो मेरे हिस्से एक ऐसा परिवार आया जिसमें मात्र दो सदस्य थे-बुजुर्ग पतिपत्नी। उस दंपत्ति ने स्वतः मुझे अपने घर आमंत्रित किया। स्नेहपगे शब्दों से बार-बार मेरी बलैया लीं। वे दंपत्ति अपनी हर बात बताते हुए उत्साहित थे। काफी देर तक उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि मैं उनके घर पर उनसे बातें करने, रात बिताने के लिए रूक रही थी। उस रात उन दंपत्ति को परेशान नहीं करने की गरज से मैंने कह दिया कि भूख नहीं थी, जानती नहीं थी कि अनजाने ही वे बुजुर्ग मेरी बात से अंदर ही अंदर आहत हो रहे थे।
भोर के उजाले में बिना छत वाला घर देखा तो मेरा मन दर्द से दरकने लगा। मात्र खंडहर खड़ा हुआ था और उसी खंडहर के एक कोने में छोटी सी टपरी के नीचे उनके बिछौने के नाम पर कुछ चीथड़े रखे हुए थे और एक बकरी बंधी हुई थी। उनके घाव इतने थे कि बाहर से ही दिख रहे थे। मात्र इतना ही पूछ पाई कि आपके बच्चे कहां हैं? पता चला एक के बाद एक आते गये और काल के गाल में समाते गये । 7 बच्चों को जन्म देने के बाद भी उनका कोई नहीं था।
मेरा चलने का समय हो रहा था लेकिन बुजुर्गों की जिद थी कि मैं रोटी खाकर जाऊॅं तो उनकी बात टाल नहीं सकी। घर की मालकिन मेरे सामने बाजरे की 2 रोटियां और सब्जी लेकर आ गईं। मेरे लिए एक चौथाई रोटी ही काफी थी। मैंने भी आग्रह किया कि साथ में खाना खाया जाये। हम तीनो खाने बैठे तो मैंने आनायास ही पूछ लिया कि ‘‘ मां आपने तो रात को ही मेरे लिये रोटी बना के रख ली, आपको पता था मैं सुबह-सुबह ही चली जाऊॅगी? एकसाथ दोनों की आंखों में स्नेह, करूणा और दर्द के साथ अनगिनत ऐसे भाव उभरे कि सीधे दिल को चीरकर रख दिया।
जो एकचौथाई रोटी और सब्जी मैं खा रही थी वो मेरे सो जाने के बाद किसी श्रेष्ठ परिवार के घर से मांगी गई थी, ताकि मैं यानी उनकी मेहमान भूखी घर से न चली जाये। उस घर में अन्न का एक भी दाना नहीं था। मेरे द्वारा खाया जाने वाला हर निवाला जन्म जन्मातर के लिए उनका ऋणी हो गया। अतिथि के लिए आवभगत का ये भाव तो किंचित ऋषियों मुनियों में ही देखा सुना गया है। उम्र अधिक हो जाने के कारण वे कहीं काम नहीं ंकर सकते थे, फिर भी किसी घर आये मेहमान के लिए इतनी चाहत और कहां मिलेगी। अतिथि देवो भव की कहानियां यूं ही नहीं मशहूर हैं। उस मेहमाननवाजी के आगे दुनिया का हर दस्तरखान हर पकवान बेजा लगता है। उस स्नेहपगी रोटी सब्जी का स्वाद जबान पर नहीं दिल पर चढ़ा था। किंचित यही वजह रही कि मिट्टी और रेत में जितने सुकून की नींद आती है उतनी कहीं नहीं। ऐसा भाव इतनी अपनायत गरीब के घर पर ही मिलेगी शहरों के आलीशान घरों में मुमकिन नहीं। ऐसा है अपऐसी दरियादिली बाड़मेर के सीने में ही हो सकती है।ना बाड़मेर और बाड़मेर के बाशिंदे। इतनी अपनायत कि आपका पूरा जीवन सराबोर हो जाये। निश्चय ही बाड़मेरवासियों को धोराधरती का वरदान है। ये प्रेम की धरती है। ऐसी दरियादिली बाड़मेर के सीने में ही हो सकती है।