मात-पिता रो दिन
मात-पिता रो दिन


एक दिन सुबह-सुबह मेरी बेटी मेरे पास दौड़ती-दौड़ती आई और अपनी नानी से बोली ‘‘नानी अम्मा हैप्पी मदर्स डे’’ फिर मेरी तरफ भी मुड़ी और हैप्पी मदर्स डे कहती हुई मुझपर कागज के रंग-बिरंगे टुकड़े मारे खुशी के बिखरा दिये। अब मेरी अम्मा दौड़ती हुई आईं-यो के है छोरी?हैप्पी डे? अरे नानी अम्मा! आज तो ‘‘अम्मा का दिन है’’ हैप्पी मदर्स डे कहती बेटी मुझसे लिपट गई। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती या अपनी अम्मा को कुछ समझा पाती, उन्होंने अपनी त्योरियां चढ़ाईं और बोलीं ‘‘ अब मजाक की कोई सीमा नहीं रह गई, अरे थारी मां जीवती बैठी है, थारी मां री मां जीवती बैठी है तो दिन कैसे आ गया? अरे बेटा दिन तो उनका आता है जो इस दुनिया से चले जाते हैं। अपनी यही परंपरा है थोड़ी अपनी सभ्यता और अपनी परंपरा सीख ले। जीते जागते लोगों का दिन? हाय-हाय घोर कलजुग, मां का दिन! अम्मा माथे पर हाथ रखकर अपनी नातिन को समझाने लगीं। मेरी बेटी तो वहीं हक्का-बक्का जड़वत हो गई। अरे नानी मैं तो ये बताना चाहती थी कि आज का दिन बड़ा स्पेशल है मम्मियों को बहुत सम्मान मिलना चाहिये और इसे पूरी दुनिया मनाती है।
कुछ समझने समझाने का वक्त नहीं था। अम्मा के सुर में सुर मिलाते हुए बुआ अपने अंदाज़ में बोलीं अरे भाभी जब आपकी और मां की ये हालत है तो हमारे रिश्तों का क्या? हमें तो घर ही आना बंद करना पड़ेगा। घोर कलजुग, हम तो अपने ही बच्चों के सामने अपना दिन मना रहे हैं। भाभी हमारे बच्चे, हमारे जीते जागते हमारा दिन मनाने लगे हैं। अबतक अचकचाई सी हक्की-बक्की बेटी को अपने बड़ों की बात का अर्थ और अपनी बात का अनर्थ समझ में आ ही गया था। उसने बुआ के गले में बांहें डालकर समझाना चाहा तो बुआ बोल उठीं ‘तू तो संस्कार के नाम पर अपने घर की स्नेहिल परंपरा का पालन कर लेना जहां मां-बाप को अकेला नहीं छोड़ा जाता, बाकी दिन-विन हमें न पता।
अम्मा ने फिर आंखें तरेरीं-"अच्छा तो अब सम्मान का दिन तय कर दिया गया? बाकी दिन अम्मा घर की चक्की में पिसती रहे और साल में एक दिन उसको तेल-मसाले के डिब्बे से निकाल के दुलार देदो हो गया सम्मान! अरे
ये जरूरत वहां होती है जहां एकल परिवार हैं जहां रोज विवाह बनते बिगड़ते हैं जहां दादा-दादी, नाना-नानी या दूसरे बुज़ुर्गों के साथ रहने की परंपरा नहीं या जहां बच्चे बड़े होते ही मां-बाप से अलग रहते हैं। तू अपनी मां को छोड़ के कहां जा रही है? कब जा रही है?" मेरी बेटी निरूत्तर सी कुछ सोचती हुई वहीं बैठ गई। वह अपनी नानी की बातों से सहमत होती नज़र आ रही थी। जाने क्या सोच कर मैं सिहर गई कि अगर मेरे घर में भी एकल परिवार होता तो अगर मेरे घर में बुजुर्ग न होते तो अगर मेरी सोच भी बेटी को..... इसके आगे मैं सोच नहीं पाई।
बीते कुछ समय से पिता दिवस, दादा-दादी दिवस या अन्य दिवसों की चर्चाएं और इनके मनाये जाने के तरीकों पर जोर-शोर से लेख निकलते हैं, अखबारों में उपहार परंपरा और बाजार में उपलब्ध सामानों का भरपूर ज़िक्र होता है। बावजूद इसके वृद्धाश्रमों की संख्या में इज़ाफा भी हो रहा है और बुजुर्ग अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देने या सबकुछ छीन लेने का आरोप लगाते हुए अदालत जाने लगे हैं। ये कैसा प्रभाव है, कैसी परंपरा है जो हम पश्चिम से उधार ले रहे हैं और अपने माता-पिता का दिन निर्धारित करते हुए दिवस मना रहे हैं? बड़ी-बड़ी संस्थाएं, आश्रम और लोग चैरिटी होम खोल रहे हैं और बुजुर्गों को आसरा देने के दावे भी कर रहे हैं। क्या हम अपने बच्चों को संस्कार देने, अपनी पारिवारिक विरासत को सहेजने के संस्कार देने की जिम्मेदारी ले सकते हैं, क्या संस्थाएं बच्चों को संस्कारित करने का जिम्मा ले सकती हैं? कुछ बुद्धिजीवियों से सुना है कि ‘‘जब कुछ टूटता है तो कुछ नया बनता, लेकिन सवाल है कि अगर बुजुर्गों और माता-पिता का आशीर्वाद परिवार से अलग हो जाता है और बच्चे साल में उनसे एक बार मिलने जाते हैं और कहते हैं हैप्पी फादर्स डे, हैप्पी मदर्स डे, तो बन क्या रहा है? साथियों मुझे समझाइये’’ मेरे आस-पास के लोग तो मुझे बौड़म और भोली कहते हैं, लेकिन मुझे पढ़ने वाले आप क्या कहते हैं?हम तो सवालों की सरितायें हैं, बहते हैं निशान छोड़ते हैंमर्जी आपकी सवालों से क्या समझते और कैसे जवाब गढते हैं।।