बहु को बेटी नहीं मानती।
बहु को बेटी नहीं मानती।
"रमा! चाय कहाँ रखी मेरी"-सावित्री जी ने अपने कमरे में चारों तरफ देखते हुए अपनी बहु को आवाज लगायी।
"आयी माँजी" रमा रसोई से चलकर सावित्री जी के कमरे में आई।
और कहा,"माँजी! ये रही आपकी चाय मैंने बेड के पास टेबल पर ही रख दिया था"
"अरे !हाँ, और मुझे दिख ही नहीं रहा था।" सावित्री जी ने कहा
तभी सावित्री जी के मोबाइल की घंटी बजी।
"इस मोबाइल को भी तभी बजना होता है जब बैटरी 10% बची हो या फिर मैं तुरंत बैठूं, देखना तो बहु किसका फोन हैं, आजकल किसी के बुलाने पर इंसान आये ना आये लेकिन फ़ोन बजने पर तो आना ही होता है।" सावित्री जी ने कहा
रमा ने देखा तो सावित्री जी की छोटी बहन का फोन था
रमा ने कहा "माँजी! मौसी जी का फ़ोन है।"
"अच्छा! लाओ दो देखूं क्या बोलना चाहती है" रमा ने सावित्री जी को फोन दिया और वहाँ से चली गयी।
"हेल्लो !छोटी और बता कैसी है?" सावित्री जी ने कहा
रमा रसोई में काम कर रही थी वहाँ उसके कानों में सावित्री जी की बातें भी साफ सुनायी दे रही थी। तभी रमा ने सावित्री जी की बातें सुनी "देख छोटी सबसे पहली बात की तू बहु में बेटी मानना छोड़ दे, और बहू को बहु ही रहने दे, तो तू भी सुखी रहेगी और घर में शांति भी रहेगी समझी। मैं खुद रमा को अपनी बेटी नहीं बहु ही मानती हूँ।"
रमा ने जैसे ही ये बात सुनी उसका मन दुःखी हो गया। वो मन ही मन सोचने लगी कि माँजी की सेवा मैं अपनी माँ से भी बढ़कर करती हूँ, मैंने कभी कोई फर्क नहीं किया और माँजी मुझे सिर्फ बहु मानती है। उनके दिल में मेरे लिए अपनी बेटी जैसा प्यार नहीं।
दरअसल रमा और सावित्री जी का रिश्ता बहुत ही सुलझा हुआ सामान्य था ना शहद की तरह मीठा ना ही नीम की तरह कड़वा। सावित्री जी बहुत ही समझदार और सुलझी हुई महिला थी वो कोई भी बात बेबाकी से बोलती थी। उनका मानना था कि अगर रिश्ते और परिवार में प्यार बना कर रखना है तो खामोश होने से अच्छा अपनी बात खुल कर बोल दो।
इधर रमा अब पहले से बदलने लगी थी, रमा सावित्री जी की बातों का सिर्फ हाँ या ना में ही जवाब देती।
कुछ दिनों बाद रमा के पति अमित ने कहा "माँ छोटी मौसी आने वाली है बोला कि विश्वनाथ बाबा के दर्शन भी हो जाएंगे और परिवार से मिलना भी।"
ये सुनकर सभी खुश हो गए लेकिन रमा के दिमाग में घूम फिर कर वही बात आती।
अगले दिन रमा की मौसी सास बेटे राहुल और बहु खुशी के साथ आ गयी। रमा ने उनका बहुत आदर सत्कार किया।
एक दिन दोपहर में खुशी और रमा बात कर रहे थे तभी रमा ने बातों बातों में पूछा "खुशी एक बात पूछना चाहती थी बुरा ना मानो तो।"
हाँ ! पूछिए ना भाभी- खुशी ने कहा
"क्या मौसी जी से तुम्हारे सम्बन्ध अच्छे नहीं? क्या वो भी बेटी बहु में फर्क करती है" रमा ने कहा...
"सम्बन्ध अच्छे नहीं थे लेकिन अब हो गए, माँजी कम से कम अब हर बात पर मुँह नहीं फुलाती, बोल देती है जो भी कमी होती है, लेकिन आप ये क्यों पूछ रही है? आप तो किस्मत की धनी हैं जो आपको मौसी जी जैसी समझदार सास मिली"
खुशी की बात को बीच में काटते हुए रमा ने कहा "क्या खाक किस्मत की धनी हूं, माँजी तो बहु को बेटी की तरह मानती ही नहीं और ये बात उन्होंने खुद कही छोटी मौसी जी से, लेकिन मैंने कभी उनमें और अपनी मां में कोई फर्क नहीं किया लेकिन ये सुनने और जानने के बाद मेरा मन दुःखी हो गया, लेकिन ये बात बोला नहीं मैंने" कहते हुए रमा की नजर दरवाजे पर पड़ी तो सावित्री जी और उनकी बहन दरवाजे पर खड़े थे।
उनको देखते रमा के चेहरे का रंग ही उड़ गया। उसकी जुबान लड़खड़ाने लगी। उसने कहा "माँजी मेरा वो मतलब नहीं था मैंने तो बस उस दिन आपको मौसी जी से कहते हुए सुना तो "
कि तभी सावित्री जी ने कहा "बैठो रमा! तुमने बिलकुल सही सुना था, और ये सच भी है कि मैं तुमको अपनी बेटी नहीं बहु मानती हूं, तुम बहुत अच्छी बहु हो, क्या खराबी है इस शब्द में जो हम बहु को अपनी बहू के रूप में प्यार नहीं सकते।"
हम कितनी भी कोशिश कर ले सास को माँ कहने की बहू को बेटी कहने की लेकिन कही ना कही जज्बातों की कमी रह ही जाती है।
"जैसे अगर सच में तुमने मुझे अपनी मां की तरह समझा होता तो क्या ये बात तुम मुझसे साझा ना करती? तब तुम बिना डरे और हक से कहती कि ऐसा क्यों कहा आपने माँजी-" सावित्री जी ने कहा
तभी छोटी मौसी जी ने कहा "रमा बहु उस दिन तुमने सिर्फ आधी और एक तरफ की ही बात सुनी दरसअल दीदी ने कहा
अब बस कर छोटी तुझे किसने कहा " बहु को अपनी बेटी मानने के लिए ,मैं तो बहु को अपनी बहू ही मानती हूं और मेरी बहु को बेटी बनाने की कोई इच्छा भी नहीं । समझी तू? मेरा तो मानना है कि बेटी कभी बहु की जगह नहीं ले सकती है और ना ही बहु कभी बेटी की क्योंकि दोनों ही अपनी जगह अच्छी हैं| फर्क सिर्फ हमारे सोच का है। बेटी को हम जन्म देते हैं उसकी गलत सही हर बात को सुनते सहते और बिना कहे समझते भी है। बेटी भी बेफिक्री के साथ मायके में रहती है जब जो भी मन में आये किया| नहीं मन हुआ तो नहीं किया और हम इस बात की शिकायत भी कभी किसी से नहीं करते। बेटी के थोड़े काम की तारीफ भी बढ़ा चढ़ा के करते हैं। पर बहु ने तो ना ही जनम लिया ना ही हम उसको ना वो हमको और हमारे घर को ठीक से जानती है फिर भी बहुओं के आते ही हम उस पे जिम्मेदारी का बोझ ऐसे डाल देते हैं जैसे बचपन से ही हमने उसको सिखाया हो । कि ये लो तुम्हारी ससुराल के नियम तुम याद कर लो। लेकिन बहु से उन जिम्मेदारियों को निभाते हुए कभी कोई गलती हो जाये तो हम ताने भी मारने से पीछे नहीं हटते । वो अपनी गर्भावस्था में छोटी मोटी बीमारियों में भी घर के सारे काम करती है और बच्चे होने के बाद भी बच्चे ,घर ,पति ,रिश्तेदार, समाज सभी की जिम्मेदारी बहू के ही कंधों पे होती हैं बेटी के नहीं| बेटी अगर गर्भावस्था में मायके आती हैं तो हम उसका बहुत खयाल रखते हैं । बेटी को हम विदा करते हैं और बहू को विदा करा के ले के आते है तो दोनों की समानता हो ही नहीं सकती, दोनों ही हमारी हैं|
"तूने खुशी को डाँटा उसे तेरी डांट बुरी लगी तो वो ये बात अपनी माँ से ही तो कह रही थी इसमें इतना क्या बात का बतंगड़ बनाना। क्या हमारी बेटियाँ हमसे बात नहीं करती? अगर तूने सच में खुशी को बेटी माना होता तो सामने से जाकर उसको पूछती ना कि मुझसे कहती"
और छोटी बहू को बेटी मानने की बजाय हम उसे प्यार सम्मान और अपनापन दें तो बहु भी हमारे साथ अच्छा ही करेगी । बहु को बेटी बनाने की बजाय सास बहू में प्यार और सामंजस्य बनाया जाए तो रिश्ता और परिवार दोनों ही अच्छा चलेगा और जब भी कभी इन दोनों की कमी हुई तब तकरार होता ही है। फिर जमाना चाहे जो भी हो समझी? ऐसा मेरा मानना है।"
फिर खुशी ने कहा "भाभी यही मैं भी कहने जा रही थी कि मौसी जी की वजह से हम दोनों एक दूसरे को समझ सके लेकिन आपने मेरी बात पूरी ही नही होने दी।"
रमा को आज अपनी सास की सोच पर गर्व हो रहा था
उसने कहा "खुशी तुमने सही कहा कि मैं किस्मत की धनी हूँ जो ऐसी सासु मां मुझे मिली है।"
माँजी मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं ने आपको गलत समझा।
तभी सावित्री जी ने रमा को गले से लगाते हुए कहा" रमा मैं तुम्हें बेटी कहकर अगर अपनी बेटी जैसा प्यार नहीं देती तो ये एक तरह का विश्वासघात ही हैं, इसलिए मैं इस बात तो सिरे से खारिज करती हूं हमें हमेशा वही बात कहनी या करनी चाहिए जिसे हम सही मायने में कर सकते है, अब बोलो बहु को बेटी क्यों मानु, मुझे तो दोनो ही प्यारे है। बहु भी और बेटी भी," और सब खिलखिला कर हँस पड़े।
प्रिय पाठकगण उम्मीद करती हूँ कि आपको मेरी रचना पसंद आई होगी। कहानी का सार सिर्फ इतना है कि सिर्फ जुबान से और दिखावे के लिए बहु को बेटी ना कहे अगर आप दिल से उसे बेटी जैसा प्यार ना दे पाए इससे अच्छा होगा बहु को बहु ही रहने दे बेटी ने कहे क्योंकि एक बहु तो को सिर्फ तारीफ के दो बोल, प्यार और अपनापन मिल जाए उससे ही खुश हो जाती है।