ये कैसा अधूरापन
ये कैसा अधूरापन
मेरी ज़मीन की देह को, मन को
अपनी प्रचंड आग की लपटों की भीषण गर्मी में
झुलसाने के बाद
उसकी चिता की राख को
अपने तन पर भस्म-सा
लपेटने के बाद
खुद को उसकी प्रज्वलित आग में
झोंकने के बाद
जब वो नाज़ुक मनोरम दिनों की बहार हुई है
अब वो नरम चैनों सुकूं की बरखा बरसाई है
वो तनाव से कोसों दूर मस्त मगन
हिचकोले खाते शांत तरंगों की नरम ये लहर
ये ठंडी हवा में खुले केशों को चूमती ये ठंडी बयार में
घुले मासूम पानी के मोती
सब कुछ हल्का है यहाँ , सब कुछ तो मन का ही है यहाँ
फिर क्यों कुछ कमी सी अखर रही है
क्यों कुछ छूटा हुआ ,कुछ तो अधूरा सा लग रहा है ,की
आखिर क्यों शीतल शांत इस पानी में आग की याद सता रही है।