इश्क़ से ....
इश्क़ से ....
यह ढाई अक्षर की आवली वैसी नहीं
जो निकलती है सड़क किनारे लगे भण्डारे की दुकान से
निकलती है ये सूखे गले की मीठी जुबां से
उल्फत की बदनाम गलियों में हमने कभी इश्क़ किया था सर -ऐ -आम पूरी आन-बान -शान से
डॉक्टरों का स्टेथोस्कोप ,वैधजी की जड़ी बूटियां ,कोई दवा कोई कैप्सूल इस बला से
ये मोहब्बत की मिर्गी का रोग था ,ऐसे ही नहीं छूटता जूता सूंघा देने भर से
क्या मर्ज़ क्या दवा ,क्या चोट का घाव अंदर से
क्या जुदाई का अता -पता सब कुछ था लापता इस दिल के मंदिर से
निकला कहाँ से था अब ना जाने कहाँ पे आ गया हूँ राह भटकते से
मैं कभी स्याना था अब पगला-सा हूँ दुनिया की नज़र से
नज़रें जब उससे पहले बार टकराई थी ,जैसे नदी की कोमल धार मिलती है समंदर से
अब देवदास सा बैठा हूँ ,ये दर्द चिपक गया है माइग्रेन का सिर से
दिल जल रहा है जलते-बुझते लालटेन की तरह पानी मिले केरोसीन से
ना खाना जंचता ,ना कोई हाल , ना मिजाज़ ही समझता है मेरा कोई तब से
नीरस ,नाज़ुक ,मुरझाता-सा जितना सुलझना चाहता उतना उलझता इन प्रेम की तरंगों से
बात बेताब इश्क़ की गहराई की होती तो महारथी तो इतने थे हम कसम से
इकलौते किरदार वाली इस प्रेम कहानी को महाग्रंथ बना देते अपने प्यार से
पर तोड़ गयी मुझे वो मुस्कान झुर्रियों वाले मुख से ,
वो हाथ जोड़ कर विनती करते तेरे रचयिता मुझ फ़कीर से।