वो अंजान
वो अंजान
मासूम सा था नादान सा था,
वो इश्क हैरान परेशान सा था।
चेहरे पर लटकती थी जो जुल्फें,
लगता उससे वो बेईमान सा था।
वो जो कच्ची उम्र का इश्क था,
लगता वो सच्चा ईमान सा था।
खिलखिलाती हँसी जो थी उसकी,
उसी में बसता मेरा सारा जँहा सा था।
बेवरपाह सा था वो जमाने से ऐसे,
जैसे हर चीज से वो अंजान सा था।
आया वो जिंदगी मे खुशियाँ लेकर लेकिन,
कुछ पल ठहरने वाला मेहमान सा था।
जाने वाले लौटकर आते नहीं कभी,
फिर भी मुझे उस पर गुमान सा था।
मिल जाए अब मुझे कुछ भी लेकिन,
तेरा आना न मिटने वाला इक एहसान सा था।।

